अकादमिक दुनिया और उच्च शिक्षा संस्थानों का हाल अभय मोर्य से भला बेहतर कौन बता सकता है, और शायद दशा-दिशा के संप्रेषण का कथा-कहानी से बेहतर प्रभावी साधन भला कोई दूसरा क्या हो सकता है। इसलिए बुजुर्ग प्रोफेसर अभय मोर्य का ताजा उपन्यास हमारे विश्वविद्यालय एक अहम दस्तावेज की तरह आज की अकादमिक राजनीति की परत-दर परत खोलता जाता है। बारीक बुनावट वाला उपन्यास पाठक को इस कदर बांधे रखता है कि पात्रों के बीच एक भी संवाद छूट जाए तो लगता है, जैसे कथा का कोई सिरा गुम हो गया। पढ़ते हुए बार-बार भारतेंदु हरिश्चंद्र का वह पद याद आ जाता है, आवहु सब मिल रोवहुं भाई...दुर्दशा देखि न जाई।
प्रोफेसर मोर्य देश-विदेश के कई नामधारी विश्वविद्यालयों से जुड़े रहे हैं। हैदराबाद में अंग्रेजी और विदेशी भाषा केंद्रीय विश्वविद्यालय के संस्थापक कुलपति रहे हैं। लेकिन यह उनका औपचारिक परिचय भर है। साहित्य, संस्कृति और शोधकार्य में उनकी सक्रियता की गवाही उनकी करीब 15 पुस्तकें और 50 से अधिक प्रकाशित शोध देते हैं।
हमारे विश्वविद्यालय की कथा की परतें खुलती हैं तो आप पहचान पाते हैं कि कैसे देश के कई बेहद प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में एक खास राजनैतिक सत्ता के करीबियों का दबदबा कायम करने के लिए समूचे माहौल को बिगाड़ा जाता है। कैसे विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ पदों पर अपने लोगों के जरिये उदार और शिक्षा को लेकर गंभीर अध्यापकों, छात्रों पर शिकंजा कसा जाता है। उन पर दमन के चक्र चलते हैं।
बेहद सहज, रुचिकर भाषा और शैली में यह उपन्यास मौजूदा दौर की ही नहीं, उसके पहले भी अकादमिक दुनिया के मैला अंचल की कथा बताता चलता है। इसलिए यह किताब हर किसी के लिए अनिवार्य बन जाती है- सिर्फ उन्हीं के लिए नहीं, जो शिक्षा जगत की दशा-दिशा से वाकिफ होना चाहते हैं, बल्कि उनके लिए भी जो इसके जरिये देश की व्यापक सियासत का नजारा देखने में रुचि रखते हैं।
हमारे विश्वविद्यालय
अभय मोर्य
प्रकाशक | विजया बुक्स
कीमतः 395 रुपये | पृष्ठः 208