आजकल समाजवादी राजनीति कुछ अलग ही ढंग से चर्चा में है। उस पर भीषण हमला सिर्फ बाजारवाद, नव-चढ़ पूंजीवाद, निजीकरण, सांप्रदायिक सियासत के मिलिटेंट पैरोकार ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे भी कर रहे हैं, जिनकी सियासी जगह छिनती जा रही है और वजूद बचाने को वे हाथ-पैर मार रहे हैं। हालांकि मुश्किल यह भी है कि आजादी के आंदोलन के सघन विमर्श से उपजी खांटी देसी समाजवादी राजनैतिक धारा से निकले मुद्दे ही सहारा भी बन रहे हैं। सामाजिक न्याय और सबको समान हिस्सेदारी उसी धारा से निकले मुद्दे हैं, जो आज दोनों तरफ के लिए ऊर्जा के स्रोत बने हुए दिखते हैं, अलबत्ता इन मुद्दों में ढेरों मिलावट घुल गई है। निजीकरण तथा सांप्रदायिक सियासी गठजोड़ को ना, ना करते सत्ता बचाए रखने के खातिर उसी ठांव पर आना पड़ रहा है। उसके बरक्स खड़ी तमाम किस्म की धाराओं को सिर्फ उन्हीं मुद्दों का किनारा मिल रहा है। फिर भी उस पर हमला भी दोनों तरफ से हो रहा है। विपक्ष और खासकर वाम झुकाव वाले कथित बुद्धिजीवियों में एक विमर्श तेज है कि डॉ. लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे समाजवादी नेता दक्षिणपंथी संघ परिवार और जनसंघ-भाजपा को मुख्यधारा में जगह दिलाने में मददगार बने। शायद ऐसे लोग अपनी कमजोरियों को छुपाने के लिए तर्क गढ़ते हैं, यह लंबे विमर्श का मामला है। इसलिए खांटी समाजवादी धारा की वैचारिक पृष्ठभूमि, उसकी व्यावहारिक कमजोरियों, धर्मनिरपेक्षता और हर तरह के भेदभाव तथा गैर-बराबरी को मिटाने के उसके जज्बे का मर्म प्रेम सिंह की ‘पंडित होई सो हाट न चढ़ा’ में शिद्दत से जाहिर होता है।
कहने को ये श्रद्धांजलियां हैं और उस दौर में लिखी गई हैं, जब यह आंदोलन गहरे ढलान की ओर था और पूंजीवाद के खातिर उदारीकरण और पहचान तथा सांप्रदायिक राजनीति का हल्ला जोर पकड़ता जा रहा था। इसलिए यह उस आंदोलन के खांटी जज्बे और छीजती धारा की कमजोरियों की गहन परीक्षा-निरिक्षा बन गई है। इसमें मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस, सुरेंद्र मोहन, जस्टिस राजेंद्र सच्चर जैसे चर्चित शख्सियतों के अवसान की चर्चा है तो समाजवादी आदर्श में जिंदगी खपा देने वाले, हमेशा परदे के पीछे रहने वाले विनोद प्रसाद सिंह, ब्रजमोहन तूफान, भाई वैद्य, केशव राव जाधव जैसे कई लोगों के आजीवन जज्बे की कहानी भी है। सबसे विस्तार से समाजवाद के अनूठे चिंतक किशन पटनायक का जिक्र है, जिनके अवसान पर लेखक ने अपने लिखे से ज्यादा उनके लिखे और उसमें हमारे समाज, देश, दुनिया की अनोखी दृष्टि को ही पेश करना ज्यादा जरूरी समझा।
ऐसी ही अनूठी शख्सियत सुनील की भी वैचारिक धारा और उनके केसला-भुमकापुरा प्रयोग पर शिद्दत से नजर डाली गई है। यह शायद गांधीवादी आश्रमों की रचनात्मक राजनैतिक धारा का मध्य प्रदेश के आदिवासी अंचल में आखिरी प्रयोग था। कुछ स्मृति-लेख कर्पूरी ठाकुर जैसे नेताओं पर भी हैं, जिनका अवसान तो पहले हो गया था, लेकिन जिनके राजनैतिक कर्म की ज्वाला की छाइयां खासकर बिहार में आज भी मौजूद हैं। वैसे, समाजवादी धारा की छाइयां पूरे देश में मौजूद दिखती हैं और आज की सियासत में तो बदस्तूर स्थापित होती जा रही हैं। आखिर आजादी और उसके बाद यह धारा महानद की तरह देश के पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक बहती रही है। उसका योगदान राजनीति को ही आकार देने तक सीमित नहीं रहा, साहित्य, सस्कृति, कला हर क्षेत्र में नई धारा बहा रही थी। देश के हर कोने में उस धारा के दिग्गज साहित्यकारों, विद्वानों, कलाकारों की धमक सुनी गई।
प्रेम सिंह की छोटी-सी किताब इसी मायने में बेहद अहम है और शायद यह कोशिश है कि कहीं शुद्ध विचारों और राजनीति का समावेश फिर देश में हो जाए। किताब पठनीय और संग्रहणीय है।
पंडित होई सो हाट न चढ़ा
प्रेम सिंह
प्रकाशक | नामक
कीमतः 299 रु.
पृष्ठ: 84