इस पुस्तक को पढ़ना अनुभव की आंच में तपी और अध्ययन और सृजन के नए सोपान तय करती ऐसी लेखिका को पढ़ना है, जो चेतना, विचारों में युवाओं से ज्यादा युवा बनी हुई हैं। 85 साल की मृदुला गर्ग की किताब ‘साहित्य का मनोसंधान’ अलग-अलग समय पर लिखे गए उनके लेखों और व्याख्यानों का संग्रह है। इन लेखों के विषय अलग हैं, लेकिन इनमें जो स्पष्टता है, प्रगतिशील और मानवीय दृष्टि है, वह हर लेख को जोड़ती चलती है। महत्वपूर्ण है कि विचारों के स्टीरियोटाइप होते हैं, जिनको अपना बना कर लिखना आसान होता है, मृदुला गर्ग उनके जाल में नहीं फंसतीं। वे हर विचार को अपने अनुभव और संवेदन की कसौटी पर कसती हैं और पाठकों के साथ लगभग नया विचार साझा करती हैं।
पहला ही लेख ‘प्रज्ञा और गर्भाशय के बीच’ मातृत्व के जटिल प्रश्न पर केंद्रित है। एंजेला कार्टर के उपन्यास का जिक्र करते हुए वे बताती हैं कि जिस पश्चिम में मातृद्वेष आधुनिक विचार, साहित्य की अंतर्धारा बन चुका है, वहां लेखिका कहती हैं कि जवान बच्चे की मौत से बड़ा दुख दुनिया में कुछ नहीं होता। पूरा लेख मातृत्व के अतिरिक्त महिमामंडन से सावधान करता है, तो दूसरी तरफ गर्भपात के अधिकार को बहुत सारी बच्चियों के मारे जाने की वजह के तौर पर रेखांकित करता है। हालांकि वह इस अधिकार के विरुदध नहीं, मां के रूप में स्त्री की जटिल भूमिका के ही अलग-अलग पक्षों को बहुत सुविचारित ढंग से रखता हैं।
किताब के ज्यादातर लेख चिंतन और विचार की सामग्री सुलभ कराते हैं। ‘प्रेम सहज भी जटिल भी’ में वे स्त्री-पुरुष के प्रेम को शरीर की अपरिहार्यता से जोड़ते हुए, मस्तिष्क और देह के द्वैत को समझते हुए प्रेम की नैतिक अवधारणा के विकास पर भी सवाल खड़े करती हैं और स्वतंत्र चेत्ता स्त्री के प्रेम और दैहिक संबंध के भीतर कर सकने वाले खेल को भी खोलती हैं।
समाज में लेखक की भूमिका, प्रतिरोध के साहित्य की परंपरा और जीवन और कला के द्वंद्व जैसे आमफहम माने जाने वाले विषयों पर भी जब वे कलम चलाती हैं, तो उनका लेखन पठनीय और विचारणीय हो उठता है। इस पठनीयता में उनका विपुल अध्ययन काम आता है, भारतीय साहित्य का भी और विदेशी साहित्य का भी। उनके पास एक मौलिक और निर्भीक दृष्टि है जिसमें पर्याप्त ममत्व और करुणा है, लेकिन वे इनके प्रवाह में बह नहीं जातीं बल्कि ठोस ढंग से विचार करती दिखती हैं। यह भी नजर आता है कि एक लेखक के तौर पर वे कमजोर लोगों, स्त्रियों और उपेक्षित तबकों के साथ खड़ी हैं। मौजूदा दौर में बढ़ती असहिष्णुता और सत्ता के रवैये के खिलाफ भी वे मुखरता से अपनी बात रखती हैं। उनके पास सघन और समृद्ध भाषा है जो उनके बेखटक बात कह सकने के साहस से मिलकर कुछ और सुंदर और संप्रेषणीय हो उठती है।
बेशक, कहीं-कहीं कुछ लेखों में दोहराव दिखता है और कुछ में अतिरिक्त संक्षेपण। एकाध लेख कमजोर तो नहीं, लेकिन कुछ कम जान पड़ते हैं। लेकिन ऐसे संग्रहों की यह सीमा होती है। निस्संदेह इस किताब में यह सीमा उन संभावनाओं के मुकाबले नगण्य हैं, जो इसे पढ़ते हुए हमारे वैचारिक क्षितिज में खुलती जाती है। सबसे महत्वपूर्ण यही है कि वे अमूमन लीक पर नहीं चलतीं, जब चलती दिखती हैं, तभी उसे बदल भी डालती हैं। एक बेपरवाह, बेलाग, प्रसन्न गद्य भी इस किताब का हासिल है।
साहित्य का मनोसंधान
मृदुला गर्ग
प्रकाशक | पेंगुइन रैंडम हाउस
कीमतः 299 रुपये | पृष्ठः 150