कुंवर नारायण की कहानी ‘सीमारेखाएं’ पढ़ें और मंटो की कहानी ‘टोबा टेकसिंह’ याद न आए, ऐसा नहीं हो सकता। रातोरात अपनी ही धरती पर बेगाने हो जाने का जो धक्का एक वतनपरस्त संवेदनशील मन-मस्तिष्क पर पड़ सकता है, उसकी अविस्मरणीय मिसाल मंटो ने पेश की थी। इधर कुंवर नारायण अपनी कहानी में दो देशों के बीच सरहद की रेखा खो जाने की (वास्तव में संभव!) फतांसी में त्रासदी से लेकर कौतुक तक बहुत सारे रंग भर देते हैं!
“क्योंकि सीमारेखा खो गई थी इसलिए सबसे बड़ी मुश्किल दोनों देशों के बीच फर्क करने में हो रही थी। दोनों का रंग-रूप एक, रहन-सहन एक, जमीन-आसमान एक, पहाड़-नदियां-जंगल एक, वेशभूषा तक एक। रक्त का रंग एक, शरीर की बनावट भी एक। ... लड़ाई की जड़, यानी सीमारेखा ... अभी कुछ ही वर्षों पहले तक वह कहीं थी ही नहीं!...”
“इसके पहले कि ... दो महान देशों के बीच ... लड़ाई-झगड़े की कोई बुनियाद ही न बचती, कुछ पेशेवर देशभक्त राजनीतिज्ञों और कूटनीतिज्ञों ने मुआमले को आगे बढ़कर हाथ में ले लिया ... और शपथ खाई कि देश के हित में हम मामले को उलझाकर ही रहेंगे...”
नतीजा ये कि “अब तो घर-घर में हर व्यक्ति परेशान था, दो के बीच एक सही सीमारेखा की तलाश में ...। सिर्फ बच्चे खुश थे, जो नहीं मानते किसी भी सीमारेखा को। ...”
निबंध, रिपोर्ताज, संस्मरण, यात्रा अनुभव, चरित्रांकन, विचार-व्याख्या जैसे अनेक गद्य रूपों को, विभिन्न छोटे-बड़े आकारों में समेटती-विस्तृत करती हुई ये रचनाएं ‘कहानी की खोज’ भी हैं। 1971 में प्रकाशित एकमात्र कथा-संग्रह आकारों के आसपास ने ‘नई कहानी’ आंदोलन के उस दौर में अपनी निराली छाप छोड़ी थी। रघुवीर सहाय, विनोद कुमार शुक्ल, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल आदि कुछेक ‘मूलतः’ कवियों ने ही वास्तव में प्रेमचंद की परंपरा को नई दिशा देने का काम किया था। विजय मोहन सिंह ने साठोत्तरी कथा साहित्य पर लिखते हुए यह बखूबी रेखांकित किया था।
उस पहले संग्रह में लक्षित किया गया था कि कुंवर नारायण ताकत और सत्ता के विविध रूपों, आयामों और रूपांतरणों की, उसके मनोविज्ञान की सूक्ष्म छानबीन करते हैं। उनकी कहानियों के अनेक विलक्षण पक्षों में एक दूसरा पक्ष ‘देखना’ भी है। ‘मोनालीसा की डायरी’ में चित्रांकित मोनालीसा भी उसे देखने आने वालों को देख रही है। देखना कितनी तरह का हो सकता है, इसे यहां अनेक रचनाओं में, “अलग-अलग शक्लों में” देखा जा सकता है। घटित और संभावित, प्रकट और अलक्षित, एक तरह से प्रकाश और छाया का खेल कई कहानियों में चलता रहता है।
निधन (2017) से कुछ पहले तैयार हो चुके संग्रह बेचैन पत्तों का कोरस का प्रकाशन उनके जीवनकाल में नहीं हो सका, यह बताते हुए अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने अपने संपादकीय में कुंवर नारायण जी के ‘प्राक्कथन’ को महत्वपूर्ण विस्तार दिया है। कुछ और नहीं तो कहानी ‘सीमारेखाएं’ घर-घर पढ़ी जाएं, यह आकांक्षा शायद समीक्षकों को होगी!