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पुस्तक समीक्षा: अचर्चित नायिका की आत्मकथा

किताब का ‘मुख्य आकर्षण’ है, किशन जी के साथ वाणी जी द्वारा बिताए जीवन के ब्यौरे
किशन पटनायक के नए पहलू से रूबरू कराती किताब

आजाद भारत के सबसे मौलिक राजनैतिक चिंतकों और जीवनभर ईमानदार राजनीति करने तथा वैकल्पिक राजनीति के लिए पार्टी खड़ा करने में जान लगाने वाले किशन पटनायक को जानने वाले इस किताब को हासिल करने की पूरी कोशिश करेंगे। राजनैतिक कामों, सामाजिक गतिविधियों, संगीत को जीवन का आधार बनाने वाले सभी लोगों के लिए यह किताब पढ़ने योग्य है। किशन पटनायक की पत्नी वाणी जी ने स्मृतियों के सहारे अपनी जीवन कथा लिखते-लिखते इस नायक के जीवन के अनेक अचर्चित प्रसंगों को सामने लाने के साथ उनकी सोच और आचरण के ऊंचे स्तर को भी दर्शाया है।

वाणी मंजरी दास खुद को सुंदर नहीं मानतीं। उनका परिवार उनसे जुड़े एक अपशकुन के चलते उनको शादी से ही नहीं, खुद से भी दूर रखना चाहता था। जहां-तहां से मिले मामूली सहयोग और फिर संगीत के जन्मजात कौशल ने (जिसे बाद में विनायक राव जी पटवर्द्धन जैसे गुरु का आशीर्वाद मिला) ने न सिर्फ उनको जीवित रखा बल्कि पचास और साठ के दशक में भी अकेले जीवन चलाने की क्षमता दी। बाद में आकाशवाणी, फिल्मी गायन समेत मंच के कार्यक्रमों ने उनको इतनी ताकत दी कि वे अपनी मां और परिवार के जरूरतमंद लोगों की भी मदद कर सकीं। इसी क्रम में वे किशन पटनायक से मिलीं, उनसे विवाह, संतान न पैदा करने का निश्चय (जिससे सामाजिक-राजनैतिक काम करने का पूरा अवसर मिले) किया और फिर संगीत के माध्यम से नया जीवन जीने में जुट गईं।

वे केंद्रीय विद्यालय में संगीत की अध्यापक बनीं और सुदूर इलाकों में लगभग अकेले जीवन जिया, क्योंकि किशन पटनायक अक्सर दौरों पर रहते थे। इसमें समय-समय पर किशन जी को सहयोग देना, उनके आगंतुकों और साथियों का सत्कार और नौकरी-तबादले की परेशानियों से जूझना शामिल रहा। एक घर बनाने की जरूरत भी लगी क्योंकि किशन जी ने अपना सब कुछ त्याग दिया था।

वाणी मंजरी दास इतने संघर्षों और प्रतिभा के बल पर अपना जीवन आगे बढ़ाती हैं और रोचक ढंग से अपनी कहानी भी कहती हैं। इस ब्यौरे से उनका व्यक्तित्व और निखर कर आता है और सुंदर न होने तथा अपशकुन वाली बात कटती है।

लेकिन किताब का ‘मुख्य आकर्षण’ है, किशन जी के साथ बिताए जीवन के ब्यौरे। किशन पटनायक की सोच और व्यवहार के किस्से और उनके समकालीनों के आचरण की कमी-बेसी की कहानियां जो दिल्ली से लेकर भुवनेश्वर, रांची, संबलपुर, बरगढ़ और पुणे-मुंबई तक से जुड़ी हैं। इसमें कई चेहरे बेनकाब भी होते हैं (हालांकि वाणी जी ने ऐसे किस्से ज्यादा विस्तार से नहीं बताए हैं)। स्मृति के सहारे लिखी और हिंदी में पूरी तरह प्रवीण न होने के चलते एकाध जगह तथ्यात्मक चूक या विवरण का आगा-पीछा भी हुआ है। लेकिन वाणी जी ने बहुत चीजें देख जानकर भी समाजवादी आंदोलन के अनेक कथित नायकों के व्यवहार के ज्यादा किस्से नहीं दिए हैं। अपने साथ हुए ‘दुर्व्यवहार’ को जरूर वे नहीं भूली हैं। अगर वे डॉ. लोहिया की मित्र रमा मित्र और चंद्रशेखर जी की पत्नी से अपनी घनिष्ठता के कुछ ज्यादा किस्से किताब में देतीं तो और अच्छा होता। पुस्तक पढ़ते हुए इन किस्सों का लोभ लगातार बना रहता है। कुल मिलाकर यह किताब उन सभी को देखनी और जरूर पढ़नी चाहिए, जिनकी रुचि समाजवादी आंदोलन, चौहत्तर के बाद के जनांदोलनों, किशन पटनायक और उनके समकालीनों के जीवन में है और वे इसे पढ़ना-समझना चाहते हैं। साथ ही  सुदूर ओडिशा के एक सामान्य परिवार में जन्म लेकर और अनेक तरह के भेदभाव को लांघ कर अपना जीवन बनाने और किशन जी समेत दसियों लोगों को सहयोग देने वाली एक महिला के आत्मसंघर्ष को जानना है, तो यह पुस्तक उन लोगों के लिए है।

खामोशी तोड़ते वे दिन

वाणी मंजरी दास

संपादकः गंगा प्रसाद

प्रकाशक|सूत्रधार, कांचरापाड़ा (प. बंगाल)

मूल्यः 200 रु.| पृष्ठः 152

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