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पुस्तक समीक्षा: ग्राम समाज की माटी की सुगंध

पुस्तक के कई वाक्य एकदम से नागार्जुन और रेणु याद दिलाते हैं
सशक्त कथाक्रम की पुस्तक

अन्तिका प्रकाशन से मीना झा का पहला उपन्यास,शिलाक्षर बन मेरे मन, मैं एक नहीं दो बार पढ़ गई। बिहार के अकाल पर लिखा, ग्राम समाज का विहंगम दृश्य एक बार में ही अपनी पूरी जटिलता नही खोलता। इसका सशक्त कथाक्रम स्पष्ट कर देता है कि स्त्रियां अपने लेखन में अब घरेलू परिदृश्य से आगे और बाहर निकलकर, आजादी के बाद के ग्रामीण समाज की प्रामाणिक रिपोर्टर बन रही हैं।

उपन्यास फ्लैशबैक में चलता है जहां, मुख्य पात्र कुसुम के जेल चले जाने पर कहानी 1967-68 के सुखाड़ और अन्न संकट, राहत कार्य की अपर्याप्तता का त्रिआयामी चलचित्र दिखाती चलती है-“गिरफ्तारी के बाद गांव से जेल तक आते कुसुम जैसे सब कुछ भूल गई थी। हथकड़ी तो जन्म से ही लगी है...।” जेल की कोठरी में कुसुम की चेतना में सब स्पष्ट हो रहा है, “...कई साल से बाढ़ आ रही थी और अब सूखा पड़ गया...प्रेस और सरकार अलग–अलग विरोधाभासी बयान दे रहे हैं। जब भी कोई आपदा आती है...तो हमारे यहां...सरकार और उनका महकमा लीपापोती और लूट-खसोट एक साथ ही करते हैं।” विपन्न किसानों का सर्वहारा रूप और गांव के चालाक वर्ग का ‘लूटो और गोदाम भरो’ अभियान समानांतर चलता है। पहले उपन्यास के बावजूद कथा सूत्र में कोई ढिलाई लेखिका ने नहीं बरती है।

बहुत से पात्रों को लेखिक ने सरलता से साध लिया है। यह कथा ग्राम समाज के ऐसे खांटी शब्द लेकर आती है कि पाठक पढ़ते हुए दंग रह जाता है। कुछ बानगी यहां देखिए, गेंहू को गहूम, पीएल480 को पिलैटी, पान खेतिहर को बड़ै, कलश को सिरहर, ठिकाने को डीह, अल्पना को अरिपन, अलग करने को भिन्न करना जैसे शब्द मन को पुरानी यादों में ले जाता हैं। चापाकल से पानी निकलने में विलंब पर सर्वे वाले का कहना कि पानी दस मर्द नीचे चला गया, गुदगुदाता है। एक मर्द 6 फीट का मानो तो पानी 60 फुट नीचे पहुंच गया। इस तरह के वाक्य एकदम से नागार्जुन और रेणु याद दिलाते हैं। देशज और आंचलिक शब्द को फिर याद करना सुखद लगता है। वरुण के बेटे में नागार्जुन कहते हैं गढ़पोखर का नाम गदोहर ही मान्य हुआ। इसी तरह रेणु मिथिला के बिदापत नाच की महिमा बताते हैं जब मृदंग की ध्वनियां पकड़ते हैं, एकदम रागात्मक धृन्गा धृन्गा, ध्रिंगा।

अनावृष्टि से धान की पैदावार नष्ट हुई, धान मिल की पुकपुक, गांव की धड़कन बंद चल रही। केवल थोड़ा बहुत मडुआ हो जाता है, क्योंकि उसको ज्यादा पानी नहीं चाहिए, “उस भीषण अकाल में खेती बाड़ी तो खतम ही थी...न रात-रात भर धान उबलने की कसरत, न नए चावल-चिउड़ा कूटने की आवाज। सांझ के धुंधलके को संगीतमय बनाती धान मिल की पुकपुक, गांव की धड़कन भी बंद थी...मां कहतीं, “ मंडुए का मंत्र होय, घर में भूखा रहे न कोय।”

अभावों से भरी जिंदगी में, वंचित समाज में चंद हंसी-खुशी के लम्हे भी कई बार दर्ज होते हैं। सुखाड़ में सभागाछी से पकड़ राजेन्द्र का कुसुम के साथ ब्याह, झूठे आरोप-पत्र पर विजय को मिला न्याय और प्रोन्नति। कुसुम पर विपत्तियों के पहाड़ कुछ इस तरह टूटते हैं कि “उसे लगता है कि दुर्दिन के चूहे ने उसकी तकदीर में बिल बना लिया है।”

आखिरकार नायिका कई साल बिना गुनाह जेल काटकर, वह अंततः बरी होती है। इतने संघर्ष के बावजूद वह जीवन में परास्त नहीं होती, निराश नहीं होती। अपनी डॉक्टर सखी के साथ काम करने को वह फिर से उठ खड़ी होती है। उपन्यास में लेखिका ने बुढ़िया दादी का किरदार बहुत कद्दावर बनाया है। एकदम सशक्त। “आरंभ से ही विपत्तियों की मारी दादी संभवतः हर मायाजाल से निकल चुकी थीं। उनके अभाव भरे जीवन का एक ही मूल मंत्र था, प्रेम।” उपन्यास के अन्य पात्र जैसे, गोविंद, विजय, कुसुम, शम्भू, शंकर, सियादुलारी सभी चरित्र बहुत खूबसूरती से उभर कर आते है। गोविंद काका का तकियाकलाम पाठकों को देर तक याद रह जाता है। जैसे वह कहते हैं, “अड़ैर करोगे तो फरैड़ करेंगे।” यानी दुश्मनी करोगे तो फायर करेंगे। यह सब पढ़ना बिलकुल अलग तरह का अनुभव है। मिथिलांचल के लेखकों में अपनी मिट्टी और गांव के लिए इस कदर अभिमान होता है कि यह पढ़ते वक्त हर पाठक को विस्मित करता है। मीना झा का यह पहला उपन्यास इसी मिट्टी और गांव के अभिमान और परंपरा की कड़ी है।

उपन्यास के प्रकाशक गौरीनाथ स्वयं जाने माने साहित्यकार और कुशल संपादक हैं। यह सुखद संयोग ही बन पड़ा है कि वह भी मिथिला के ही हैं। उन्होंने इस उपन्यास का प्रकाशन भी बड़े मन से किया है। आवरण पर प्रसिद्ध लोक कलाकार यमुना देवी का चित्र है। लोक कलाकृति को आवरण पर लेना एक प्रकार की अच्छी पहल है, जिस पर और काम हो, तो कलाकारों को भी फायदा मिलेगा।

शिलाक्षर बन मेरे मन

मीना झा

प्रकाशक | अन्तिका प्रकाशन

पृष्ठः 152 | मूल्यः   `295

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