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पुस्तक समीक्षाः कथक इति-कथा

मिथक है कि मुगल दरबारों के संरक्षण से उत्तर भारत में कथक को जगह मिली
अनवरत यात्रा का दस्तावेज

पांच वर्षों तक निरंतर विपुल शोध और सात हजार किलोमीटर की अनवरत यात्रा के बाद लिखी गई शोभना नारायण और गीतिका कलहा की किताब पढ़ते हुए पहले ख्याल आता है कि जिसे हम शास्त्रीय कहते हैं और समझते हैं, वह तो हमारे लोक में रचा-बसा है। इसका प्रमाण है कि उत्तर भारत में उन्नीस गांव कथक के नाम पर बसे हुए हैं।

सहज जिज्ञासा होती है कि किन लोगों ने ये नाम रखे होंगे और कैसे ये नाम बचे रहे। ध्यान देने की बात है कि उत्तर भारत के जिस मध्यवर्गीय समाज ने नाचने-गाने को अचानक बुरी चीज मान लिया था, वहीं ग्रामीण समाज और लोक परंपरा ने इसे बचाए रखा। निश्चय ही इसमें कुछ राजाओं, जमींदारों, सामंतों आदि का संरक्षण रहा होगा। लेकिन अगर इसे परंपरा का जल नहीं मिला होता तो ये लताएं सूख गई होतीं। 

मिथक है कि मुगल दरबारों के संरक्षण से उत्तर भारत में कथक को जगह मिली। लेकिन मुगलों से पहले भी उत्तर भारत के ग्राम प्रांतरों में कथक के चिन्ह मिलते हैं। कथक शोध की इस लंबी यात्रा में दोनों यात्रियों ने कथक से जुड़े गांवों में जाकर, मंदिरों में कथक लोक देखकर, राजाओं, नर्तकों, विद्वानों और साधकों से मिलकर इतिहास खंगाला। दोनों ने बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सुदूर क्षेत्रों में जाकर कथक की परंपरा और इतिहास की परतों को खोलने का जो सार्थक प्रयास किया, उसने कथक को लेकर कई मौखिक और लोकप्रिय धारणाओं को ध्वस्त कर दिया। कथक की उत्पत्ति को लेकर कई तरह की भ्रांतियां रही हैं। कहा गया कि कथक की शाखाएं महाभारत काल से जुड़ी हुई थीं। पुरातन नाचती शिल्पी मूर्तियों और शिलालेख के आधार पर यह कहा गया है।

2003 में कथक परंपरा की खोज में शोभना नारायण बिहार के गया शहर में गईं तो वहां एक पत्रकार से उन्हें पहली बार मालूम हुआ कि यहां के गांवों का नाम ही कथक है। उससे उनकी जिज्ञासा गांवों के अस्तित्व और इतिहास जानने की हुई। यात्रा के दौरान गया जिले के कथक ग्राम ‘कथक बीघा’, ‘जागीर कथक’ और ‘गौड़ कथक’ के बारे में पता चला। इससे कथक गांव के कई तथ्य उजागर हुए। लेकिन एक अभियान के रूप में  यात्रा का आरंभ 2015 में शुरू हुआ। इन गांवों की खोज में शोभना के साथ इतिहासकार गीतिका कलहा भी शामिल हुईं। यात्रा के दौरान दोनों विशिष्ट वर्ग के लोग जैसे, धधि, चारण, लंगा और भगवातुलुस से मिले, जिनका व्यवसाय ही राजाओं, संरक्षकों और अन्य लोगों के इतिहास को पीढ़ी दर पीढ़ी याद करना था। 7,000 किलोमीटर की इस यात्रा में दोनों लेखकों ने कथक गांवों के बुजर्गो के साथ बैठकर उनकी कहानियां और मत सुनें। महलों और किलों में अभिलेखों  का अध्यन किया। दोनों शोधकर्ताओं ने अतीत और वर्तमान कथक नर्तकों, कथक गांव के निवासियों, कथक वंश समुदाय के सदस्यों से मिलकर जानकारी ली। सामने आए तथ्यों से पता चला कि उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण समुदायों में कथक लोक नामक ऐसा समुदाय था, जिसकी पहचान अब क्षीण हो गई है।

उत्तर प्रदेश के झूसी शहर, जिसे पहले प्रतिष्ठानपुर या प्रतिष्ठान कहा जाता था, के आसपास कथक गांव थे। प्रतिष्ठानपुर के शासक के रूप में नहूसा राजा का उल्लेख है। यह स्थान इलाहाबाद के संगम के निकट है। झूसी के आसपास हंडिया तहसील के भू-लेखों में ‘कथक तारा’ नामक नहर का जिक्र है। लखनऊ घराने के दिग्गज कथक अपने पूर्वजों को हंडिया तहसील का मानते हैं।

वे दोनों किचकिला गांव गए, वहां ‘कथक तारा’ नामक तालाब था। यह पंडित बिरजू महाराज का पैतृक गांव है। कथकों को दी गई एक और जागीर नसीरपुर कथक गांव था, अब यह पूरी तरह उजड़ गया है। कथक में तकरीबन सभी मिश्रा ब्राह्मण जाति के थे। उनमें कुछ कथकों के परिवार कलन गांव में रहते थे। यहां इनकी मुलाकात अब्दुल हमीद शास्त्री से हुई। वे रामायण के व्याख्याकार थे। इसलिए उन्हें पंडित उपनाम मिला। उनके पिता इबारत अली खां कबीरपंथी भजन गायक और चाचा मुहम्मद बशीर शास्त्रीय संगीत गायक थे। इन गांवों की कड़ी में कथक पुरवा गांव अन्य गांवों से विपरीत था। इस गांव की दिलचस्प कहानी इस पुस्तक में दर्ज है। हरिहरपुर या कथकौली में कई कथक परिवार हैं। सुल्तानपुर जिले के कमेचा और लम्बुआ गांव में पंडित बिरजू महाराज के रिश्तेदार अशोक महाराज का परिवार रह रहा है। एक समय 32 कथक परिवार इस इलाके में थे। अमेठी जिले में मुसाफिरखाना तहसील के कथिकान पुरवा गांव में 5 कथक परिवार हैं।

 ‘कथा कहै सो कथक कहलाये’ (जो  कथा कहता है उसे कथक कहा जाता है)। कथा और कथक की व्याख्या भी इस किताब में है। कथक के अस्तित्व के सबूत ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से ईशा पूर्व पहली शताब्दी तक मिलते हैं। जैन परंपरा में कथक को ‘कथक अकीर्ति निबाह’ कहा गया है। 13वीं शताब्दी के ग्रंथ संगीत रत्नाकर में कथक शब्द का उल्लेख है। 19वीं शताब्दी के दौरान कथक एक अलग समुदाय के रूप में बनारस और उसके आसपास रहते थे।

पिछले 2400 वर्षों में कई ग्रंथों ने स्पष्ट रूप से उजागर किया है कि कथक लोक का प्रदर्शन शृंगार रस में था। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में कथक की परंपरा, उसके विकास के बारे में गहरे शोध के साथ इस किताब में है। यह महत्वपूर्ण है कि कथक पर लिखी गई, यह इकलौती ऐसी किताब है, जिसमें इस नृत्य कला के पूरे इतिहास को शोध के जरिये खंगाला गया है।

 

कथक लोक मंदिर, परम्परा और इतिहास

शोभना नारायण, गीतिका कलहा

शुभि प्रकाशन

495 रुपये

236पृष्ठ

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