जब लोकतांत्रिक अधिकारों पर कई तरह के पहरे मढ़े जा रहे हों तो हर दिल अजीज रंगकर्मी सफदर हाशमी के जिक्र से कई सियासी सूत्र खुलते हैं। रंगकर्मी, सफदर के अभिन्न मित्र और उनकी हत्या के चश्मदीद गवाह सुधन्वा देशपांडे की किताब हल्ला बोल इन्हीं नए संदर्भों की याद दिलाती है।
सुधन्वा बताते हैं कि एक जनवरी 1989 को सफदर ने नशे में लड़खड़ाते एक आदमी को संभलने के लिए आवाज दी थी, “किसी गड्ढे में मत गिर जाना” उसी दिन अपने साथी कलाकारों को बचाते हुए सफदर ने अपनी जान गंवा दी। वह कांग्रेसी गुंडों का हमला था। पूरे देश में इसकी प्रतिक्रिया हुई। शबाना आजमी ने दिल्ली में चल रहे अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव के मंच से सफदर की हत्या के खिलाफ एक वक्तव्य पढ़ा, “लोग सफदर को श्रद्धांजलि देने आए। नहीं आए तो सिर्फ कांग्रेस, भाजपा के नेता।”
यह पुस्तक उन तमाम लोगों से बात कर लिखी गई है जिन्होंने सफदर के साथ काम किया या उनके काम को देखा है। उनके समकालीन कलाकारों और बुद्धिजीवियों के नामोल्लेख में इस कदर मेहनत की गई है कि शायद ही किसी का नाम छूटा हो। हल्ला बोल में सत्तर और अस्सी के दशक की राजनीति और ट्रेड यूनियन के संघर्षों की चश्मदीद गवाही भी है। किताब में नुक्कड़ नाटक को एक विधा के रूप में विकसित करने की सफदर और उनके साथियों की जद्दोजहद भी दिखाई देती है। उस जमाने में नुक्कड़ नाटक की विधा पर ‘समुदाय’ और ‘प्रजा नाट्य मंडली’ जैसी संस्थाओं के योगदान की चर्चा भी इसमें है। सफदर वामपंथी विचारधारा के रंगकर्मी थे, इसे रेखांकित करते हुए सुधन्वा लिखते हैं, “सफदर को इसलिए मारा गया क्योंकि उसने इस वर्ग संघर्ष में खुद को हत्यारों के बीच खड़ा कर दिया ताकि दूसरों की जिंदगी बच सके।” हल्ला बोल एक कवि, लेखक और रंग-योद्धा के जीवन और शहादत के ‘सीधे-प्रसारण’ जैसा है।
हल्ला बोल
सुधन्वा देशपांडे
(अनुवाद: योगेंद्र दत्त)
प्रकाशक | वाम प्रकाशन
पृष्ठः 280 | मूल्यः 325 रुपये