डॉ. आंबेडकर के प्रसिद्ध भाषण ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ के इतने अनुवाद और इतनी चर्चाएं हो चुकी हैं कि दिवंगत राजकिशोर के द्वारा उसका पुन: अनुवाद या चर्चा कोई नई बात न होती, मगर अनुवाद, संदर्भों और विमर्शों के प्रस्तुतिकरण में इतनी कल्पनाशीलता और नयापन बरता गया है कि जाति का विनाश नाम से प्रकाशित एक अकेली पुस्तक कई उपयोगी पुस्तकों का समाहार लिए हुए है।
मूल रूप से 1936 में आर्य समाज के क्रांतिकारी संगठन ‘जात-पात तोड़क मंडल’ के लिए तैयार यह व्याख्यान क्यों न दिया जा सका, इसे जानना उतना ही दिलचस्प और महत्वपूर्ण है, जितना व्याख्यान है। मंडल के सूत्रधार संतराम बी.ए. न सिर्फ क्रांति (पहले उर्दू, बाद में हिंदी) और युगांतर पत्रिका के संपादक थे, बल्कि व्यवहार के स्तर पर भी क्रांतिकारी थे। डॉ. आंबेडकर के मुखर प्रशंसक होने के बावजूद वे कतिपय बातों को हटा देने के लिए आग्रही थे। वे कौन-सी बातें थीं, जो उच्चवर्णीय, प्रगतिशील हिंदुओं के इस आर्यसमाजी संगठन (यद्यपि संतराम जाति से कुम्हार थे) की ‘क्रांति’ की सीमा थी और उस ‘आग’ का तापमान क्या था, जिसका एक भी कॉमा, फुलस्टॉप आंबेडकर बदलने को तैयार न थे। मंडल या संतराम को इस भाषण की सारी बातें पसंद थीं, सिवाय इस बात के कि आंबेडकर ने एकाधिक बार हिंदू धर्म और इसके धर्म-शास्त्रों के परित्याग की बात कही थी। उन्होंने यह भी कहा कि हिंदू के रूप में यह उनका आखिरी व्याख्यान है (बाद में उन्होंने वैसा किया भी)।
जाति प्रथा और हिंदू धर्म के एक-एक तर्क का आंबेडकर ने खंडन किया। इन तर्कों के आगे श्रम विभाजन, नस्लीय शुद्धता, लंगड़े तर्क और थोथी दलीलें नहीं टिक पाईं। आंबेडकर बताते हैं कि जातिप्रथा आदिम जन जातियों समेत वृहत्तर आबादी के एकीकरण, उनमें परस्पर विश्वास, भाईचारा, प्रेम और औदार्य में पूर्णतया बाधक है और जैसा कि मंडल कहता और मानता है, मात्र अंतर्जातीय विवाह से समस्या हल नहीं होगी। जब तक कि उनके उत्स ‘वेद’, ‘मनुस्मृति’, ‘शास्त्रों’ से पिंड नहीं छूट जाता। उन पर टिप्पणी करते हुए आंबेडकर कहते हैं, “यह भ्रम है कि उदारपंथी और रूढ़ दो तरह के ब्राह्मण हैं। दरअसल, वे एक ही हैं।”
ईश्वर और धर्म पर सीधे-सीधे प्रहार न करते हुए वे पुजारीगीरी को लक्ष्य करते हैं, उनके अनुसार यह पैतृक नहीं होनी चाहिए। आंबेडकर ने जाति के विनाश के संदर्भ में ‘जाति की उत्पत्ति’ की खोज करना जरूरी समझा। उनके अनुसार, ‘सजातीय विवाह ही विष बीज है। न सिर्फ सजातीय विवाह, बल्कि इसका पूरा तंत्र।’
डॉ. आंबेडकर के जाति उच्छेद का चिंतन समाजशास्त्रीय है। सौ साल में समाज की कट्टरता एक ओर जहां और रूढ़ हुई है, वहीं कुछ नए क्षितिज भी खुले हैं। विज्ञान और टेक्नोलॉजी के तथा वैश्विकता के एक्सपोजर्स, प्रशासनिक वैधता, संरक्षण और दबाव से गांठें ढीली पड़ सकती हैं, बशर्ते जन आंदोलनों के जरिए लोक में चेतना का प्रसार हो। उनका आप्त वाक्य ‘शिक्षित हो, संगठित हो, संघर्ष करो’ आज भी उतना ही प्रासंगिक है, आगे भी रहेगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि ‘जाति उन्मूलन’ की यह लड़ाई तब तक जारी रहेगी, जब तक जाति का यह रोग समाप्त नहीं हो जाता।