इस संग्रह की कहानियां जटिलताओं से भरे यथार्थ को पाठकों के सामने रखती हैं और फिर उनसे सवाल करती हैं कि ये स्थितियां क्यों हैं। हर दिन होने वाले वर्ग भेद संघर्ष, सांप्रदायिक संघर्ष की कहानियां इसमें बहुत ही कलात्मक और स्वाभाविक ढंग से आती हैं। इस संग्रह में यदि चिड़िया की कोमल भावना है, तो दमन सहने वालों का कठोर चित्रण भी। हम जिस एकता और अखंडता की बात करते हैं, उस अखंडता के टूटने की वजह की पड़ताल यह संग्रह बखूबी करता है। ‘बानवे के बाद’ ऐसी ही कहानी है, जो सांप्रदायिक सौहार्द के बिगड़ने और उन हालात के लिए जिम्मेदार तत्वों को कटघरे में खड़ा करती है। पांच उप-शीर्षकों-बहत्तर के बाद, बयासी के बाद, बानवे के बाद, दो हजार दो के बाद, दो हजार बारह के बाद-में बंटी इस कहानी में, एक शिक्षक मिर्जा साहब और उनके बसने-उजड़ने की कहानी है, जो देश के असली हालात को बताती है। आज के दौर में यह कहानी बहुत ही मौजू है।
लेखन ने शीर्षक कहानी ‘प्रार्थना समय’ में सांप्रदायिक कट्टरता की भयावहता को कहानी का केंद्र बनाया है। अलग-अलग महजब के दो दोस्त और उनकी कहानी इस ढंग से मोड़ लेती है कि जब नायक मनीष अपने दोस्त असद के लिए प्रार्थना करता है, तो पढ़ने वाला खुद ब खुद उस प्रार्थना में साथ हो जाता है। यह कहानी मुस्लिम लड़कों की बिना जुर्म गिरफ्तारी पर भी इशारा करती है और उस स्थिति के लिए जिम्मेदार माहौल की पड़ताल भी करती है। प्रदीप जिलवाने अपने संग्रह में सिर्फ सांप्रदायिकता की ही बात नहीं करते, वे इस समय की सबसे विकराल समस्या बेरोजगारी पर भी खूबसूरती से कलम चलाते हैं। ‘उधेड़बुन’ में वे बेरोजगार हो गए युवक का बहुत विश्वसनीयता से चित्रण करते हैं। कुल दस कहानियों के इस संग्रह में बहुत विविधता है। लोकतंत्र का मखौल उड़ाते सरपंच अयोध्या बाबू, रहस्यमय मानसिक बीमारी की गिरफ्त में आए मामा गिरधारी, अपने मां के प्रेमी को लेकर उथल-पुथल के शिकार एक किशोर की कहानियां हैं, जो बांधे रखती हैं।
प्रार्थना समय
प्रदीप जिलवाने
प्रकाशक | सेतु प्रकाशन
पृष्ठः 152 | मूल्यः 148 रुपये