भारत में अभी भी ऐसे अनेक जनजाति-समूह हैं, जिनकी ओर राजनीतिकों, सुधारकों या साहित्यकारों का ध्यान नहीं गया। उपन्यास में वे जनजातियां हैं, जो आजादी से पूर्व आपराधिक जनजातियों की श्रेणी में आती थीं। इन्हें 31 अगस्त, 1952 को आपराधिक जनजाति एक्ट से मुक्त कर विमुक्त जनजातियां कहा गया।
हालांकि इन जनजातियों पर पूर्व में भी कई उपन्यास आए हैं। लेकिन रत्न कुमार सांभरिया का उपन्यास सांप लगभग पंद्रह जनजातियों के सामूहिक संघर्ष का प्रतिफल है। यही कारण है कि इसे 'हाशिए का समाज' का पहला उपन्यास होने का श्रेय प्राप्त है।
नायक लखीनाथ मुख्यमंत्री के सामने अपनी जाति की पीड़ा बेबाकी से व्यक्त करता है- ''हुकम म्हारी घुमक्कीड़ जातियां अपना ही देस में बीरानी हैं। अनजानी हैं। बिना चेहरा की हैं। देस अपणो। परदेस अपणो। पर ना म्हारो कोई गाम। ना ठीयो। '' शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास बेहद विलक्षण है।
सांप
रत्न कुमार सांभरिया
प्रकाशक | सेतु प्रकाशन
पृष्ठः 424 |
मूल्यः 375