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पुस्तक समीक्षा: विकल्प का दस्तावेज

सच्चिदा जी के समग्र लेखन में एक अंतर्दृष्टि मिलती है। इस दृष्टि का निर्माण समानता, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकरण, व्यक्ति-स्वातंत्र्य, अहिंसा, श्रमशीलता, अपरिग्रह, सह-अस्तित्व जैसे मूलभूत मूल्यों से हुआ है
सच्चिदानन्द सिन्हा का समग्र

आधुनिक सभ्यता के गंभीर अध्येता-समीक्षक, समाजवादी चिंतक, संस्कृति-कला मर्मज्ञ सच्चिदानन्द सिन्हा का समग्र लेखन सच्चिदानन्द सिन्हा रचनावली के रूप में प्रकाशित हुआ है। आठ खंडों की इस रचनावली के संपादक वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन हैं। प्रकाशन राजकमल ने किया है। सच्चिदानन्द सिन्हा का लेखन अंग्रेजी और हिन्दी में है। (हालांकि वे फ्रेंच और जर्मन भाषाएं भी जानते हैं) कुछ अंग्रेजी लेखन पहले से हिन्दी में अनूदित था। खुद संपादक ने उनकी पुस्तक कास्ट सिस्टम का हिन्दी अनुवाद किया था, जो राजकमल से ही प्रकाशित है। रचनावली में उनका समस्त अंग्रेजी लेखन हिन्दी में आ गया है। 94 वर्षीय सच्चिदा जी का लेखन करीब साठ साल की अवधि में फैला है। साथ ही उनका जीवन राजनीतिक गतिविधियों से भरा रहा है। उनका जीवन, जैसा कि एक बार उन्होंने खुद कहा था, “आकाश में भटकते मेघ की तरह रहा है।” ऐसे शख्स के लेखन की पूरी सामग्री जुटाने का कठिन काम संपादक और उनके सहयोगियों ने किया है। रचनावली का संपादन लेखन-क्रम के आधार पर नहीं, थीम के आधार पर किया गया है। इस पद्धति से पाठकों के लिए यह सुविधा बन गई है कि वे अपनी रुचि के विषय का खंड खरीद सकते हैं।

रचनावली के पहले खंड की भूमिका सच्चिदा जी ने लिखी है। भूमिका में उन्होंने 1942 के ‘भारत  छोड़ो’ आंदोलन से शुरू हुई अपनी राजनीतिक सक्रियता की संक्षिप्त जानकारी देते हुए अपने बंबई, दिल्ली और बिहार प्रवास के बारे में बताया है और आठों खंडों में संकलित सामग्री का भी परिचय दिया है। पहले खंड में ‘कला, संस्कृति और समाजवाद’, दूसरे में ‘स्वतंत्रता, राष्ट्रीयता, किसान समस्या और शहरी गरीबी’, तीसरे में ‘गांधी, लोहिया, जेपी और नक्सलवाद’, चौथे में ‘आपातकाल, जनता पार्टी का प्रयोग, पंजाब संकट और राजनीतिक गठबंधन’, पांचवें में ‘जाति, जातिवाद और सांप्रदायिकता’, छठे में ‘नया समाजवाद, पुराना समाजवाद’, सातवें में ‘उदारीकरण, भूमंडलीकरण और भविष्य’ तथा अंतिम आठवें खंड में ‘आंतरिक उपनिवेशीकरण और बिहार-केंद्रित शोषण’ विषयक सामग्री रखी गई है।

इस विपुल सामग्री की विस्तृत समीक्षा यहां संभव नहीं है। संक्षेप में ही उनके चिंतन और चिंतक व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएं रेखांकित की जा सकती हैं। सच्चिदा जी का लेखन एक साथ अवधारणात्मक-सैद्धांतिक और विवेचनात्मक है। वे विशेषज्ञ विद्वान नहीं हैं। कला से लेकर विज्ञान तक मनुष्य के प्रयासों को वे समग्रता में देखते हैं। इसीलिए आधुनिक विद्वता/शोध के प्राय: सभी अनुशासनों राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, इतिहास, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि का उन्होंने अध्ययन किया है। उनके विशाल अध्ययन की झलक उनके सैद्धांतिक लेखन के साथ विवेचनात्मक लेखन में भी मिलती है। रचनावली पढ़ने से पता चलता है कि लेखक ने आधुनिक युग की उन्नीसवीं, बीसवीं और इक्कीसवीं शताब्दियों के विकास-क्रम में निहित बौद्धिक बहसों, आंदोलनों, संकटों और समाधानों पर गहराई से विचार किया है। वे वैश्विक स्तर पर पूरी मानवता के चिंतक ठहरते हैं। 

सच्चिदा जी के समग्र लेखन में एक अंतर्दृष्टि मिलती है। इस दृष्टि का निर्माण समानता, लोकतंत्र, विकेन्द्रीकरण, व्यक्ति-स्वातंत्र्य, अहिंसा, श्रमशीलता, अपरिग्रह, सह-अस्तित्व जैसे मूलभूत मूल्यों से हुआ है। ये सभी मूल्य उनके लेखन के केंद्र में स्थित हैं, जिनके आधार पर वे विकास और जीवन-पद्धति के पूंजीवादी मॉडल का समाजवादी विकल्प प्रस्तुत करते हैं। विशिष्ट बात यह है कि उन्होंने अपने जीवन में भी इन मूल्यों का निर्वहन किया है। वे किसी विश्वविद्यालय या शोध-संस्थान से जुड़े नहीं रहे हैं। आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी करने के चलते उन्होंने स्कूली शिक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ दी थी। वे पुरस्कार स्वीकार नहीं करते। एक बार उन्होंने भारत में सुविधा की बढ़ती मांग को लक्ष्य कर कहा था कि ब्रिटिश काल में अकादमिक और शोध का काम करने वाले अंग्रेज अधिकारी बिना विशेष सुविधाओं के दूर-दराज इलाकों की यात्राएं करते थे। सच्चिदा जी गांधी की तरह मानते प्रतीत होते हैं कि मनुष्य का जीवन भोग के लिए नहीं, मूलत: विचार के लिए है। पूंजीवाद ही नहीं, प्रचलित समाजवाद के मॉडल में भी विकास की अवधारणा के केंद्र में उपभोक्तावादी प्रवृत्ति मूल है। भूमंडलीकरण की परिघटना ने इस प्रवृत्ति को पराकाष्ठा पर पहुंचाया है। सच्चिदा जी समुचित विकल्प के साथ इसका विरोध करते हैं।

मैं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला में 1991-1994 के बीच फेलो था, तब मैंने तत्कालीन निदेशक प्रो. जेएस ग्रेवाल से सच्चिदा जी को बतौर नेशनल फेलो आमंत्रित करने का निवेदन किया था। सच्चिदाजी की दो पुस्तकें कास्ट सिस्टम और सोशलिज्म ऐंड पावर संस्थान के पुस्तकालय में उपलब्ध थीं। उस समय संस्थान में प्रो. रणधीर सिंह, प्रो. जेडी सेठी और प्रो. जीएस भल्ला नेशनल फेलो थे। प्रो. ग्रेवाल ने पूछा, सिन्हा जी किस विश्वविद्यालय या संस्थान से संबद्ध रहे हैं। मैंने बताया वे राजनीतिक कार्यकर्ता भर हैं तो उन्हें आश्चर्य हुआ। उन्होंने अपनी सहमति जताई और मुझसे कहा कि मैं सिन्हा जी से पूछ लूं कि वे दो साल के लिए कब नेशनल फेलो होकर यहां आ सकते हैं। मैंने सच्चिदा जी से पत्र लिख कर इस बारे में पूछा। उनका जवाब आया कि अगर वे दिल्ली रह रहे होते, तो जरूर आ जाते। 1987 में वे अपने गांव मणिका लौट चुके थे। मैंने सोचा एक तरह से यह अच्छा हुआ। वे संस्थान की सुख-सुविधाएं देख कर दुखी ही होते।

सच्चिदा जी हिन्दी में काफी पढ़े जाने वाले लेखक हैं। उनकी रचनावली आने से खास कर हिन्दी माध्यम के शोधार्थी लाभान्वित होंगे। पूरी रचनावली या उसके कुछ अंश अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रकाशित हों तो दायरा बढ़ेगा। अंग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित होना चाहिए। रचनावली में अनुक्रमणिका दी जाती तो बेहतर होता।

सच्चिदानन्द सिन्हा रचनावली

खंड: आठ

प्रकाशक|राजकमल, नई दिल्ली

मूल्यः पेपरबैक 4000 रुपये

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