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जनादेश ’24 बसपा: खोई जमीन पाने की लड़ाई

1990 और 2000 के दशक में उत्तर प्रदेश में दलित वोटों पर एकाधिकार रखने वाली और राजनीतिक चर्चा के केंद्र में रहने वाली मायावती की अगुआई वाली बहुजन समाज पार्टी के लिए ये चुनाव प्रासंगिक बने रहने की चुनौती
मायावती

संविधान निर्माता और दलित आइकन बीआर आंबेडकर की इस महीने पड़ने वाली जयंती पर कांशीराम द्वारा स्थापित बहुजन समाज पार्टी (बसपा) चालीस साल की हो जाएगी। पार्टी ने कई राज्यों में  1990 और 2000 के दशक में दलित वोट पर एकाधिकार कायम करके राष्ट्रीय पार्टी होने का दमखम दिखाया। उत्तर प्रदेश की राजनीति में तो उसका दबदबा निर्विवाद रूप से स्‍थापित हो गया था और 2006 के विधानसभा चुनावों में उसने अपने बूते बहुमत भी हासिल किया। लेकिन इस चुनाव में वही पार्टी प्रासंगिक बने रहने के लिए संघर्ष करती दिख रही है। देखना दिलचस्प होगा कि पारंपरिक वोट बैंक पर फिसलती पकड़, भाजपा और इंडिया ब्लॉक के दलित आउटरीच का विस्तार करने के प्रयासों के साथ-साथ छोटे दलित समर्थक दलों के उदय के बाद इस चुनाव में दलित वोट किसके पक्ष में जाएगा।

पंजाब के रोपड़ जिले में एक दलित परिवार में जन्मे कांशीराम जीवन भर भेदभाव का शिकार रहे। ऐतिहासिक रूप से सभी पिछड़े वर्गों और जातियों को सशक्त बनाने और गैर-द्विज जातियों के अधिकारों को सुरक्षित करने की मुहिम के तहत उन्होंने 1984 में एक राजनीतिक दल के गठन का निश्चय किया। कुछ ही समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित वर्गों के भारी समर्थन से बहुजन समाज पार्टी ने अपनी पैठ बनाई। उनके नेतृत्व में पार्टी ने वंचित समूहों खासकर दलित मतदाताओं को एकजुट करने में सफलता पाई। वर्ष 1991 से 2002 के बीच, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में बसपा का वोट शेयर 9.4 प्रतिशत से बढ़कर 23.2 प्रतिशत हो गया और बसपा ने 1993, 1995, 1997 और 2002 में प्रदेश में गठबंधन सरकारें बनाईं, जिसमें कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती चार में से तीन बार मुख्यमंत्री बनीं।

छत्रछायाः राजनीतिक गुरु कांशीराम के साथ मायावती

छत्रछायाः राजनीतिक गुरु कांशीराम के साथ मायावती

साल 2007 में पार्टी अपनी चुनावी सफलता के चरम पर पहुंच गई, जब वह विधानसभा चुनावों में 206 सीटें जीतकर एकमात्र बहुमत वाली पार्टी के रूप में उभरी। मायावती ने चौथी बार सीएम पद की शपथ ली। अपने शासन काल के दौरान मायावती ने प्रदेश में डॉ. भीम राव आंबेडकर और अन्य दलित नेताओं को समर्पित पार्कों, मूर्तियों और पुस्तकालयों का निर्माण कराया जो राज्य के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव का प्रतीक बना। इसके अलावा, उन्होंने प्रमुख सरकारी पदों पर दलित अधिकारियों की नियुक्ति कर देश स्तर पर नौकरशाही में वंचित वर्गों के समुचित प्रतिनिधित्व पर बल दिया। पूर्व में पेशे से शिक्षक रहीं मायावती ने राज्य में पेरियार और आंबेडकर जयंती को भी उत्सव के रूप में बड़े पैमाने पर मनाया और राज्य के कई जिलों के नाम गौतम बुद्ध, आंबेडकर, शाहू जी महाराज, संत रविदास, महामाया (बुद्ध की मां) और ज्योतिबा फुले के नाम पर रखे। 

लोकसभा चुनावों में बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2009 में रहा। पार्टी ने 20 सीटें जीतकर 23 सीटों वाली समाजवादी पार्टी और 21 सीटों वाली कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी। हालांकि, 2014 के चुनाव में पार्टी को बड़ा झटका लगा जब वह प्रदेश की कोई भी सीट हासिल करने में विफल रही। लेकिन, 2019 में बसपा-सपा गठबंधन 15 सीटें हासिल करने में कामयाब रहा, जिसमें अकेले बसपा ने 10 सीटें जीतीं। हालांकि विधानसभा चुनावों में बसपा का प्रभुत्व धीरे-धीरे कम होने लगा। 2012 के विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी ने अधिकांश सीटें जीतीं। उसके बाद 2017 और 2022 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने लगातार दो बार जीत दर्ज की। इस दौरान बसपा की सीट हिस्सेदारी 2012 में जीती 80 सीटों से घटकर 2017 में 19 और 2022 में सिर्फ एक रह गई।

लोकसभा चुनावों में बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2009 में रहा। पार्टी ने 20 सीटें जीतकर 23 सीटों वाली समाजवादी पार्टी और 21 सीटों वाली कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी

लोकसभा चुनावों में बसपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2009 में रहा। पार्टी ने 20 सीटें जीतकर 23 सीटों वाली समाजवादी पार्टी और 21 सीटों वाली कांग्रेस को कड़ी चुनौती दी

जाहिर है, कभी राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पहचान बनाने वाली बसपा हाल के दिनों में अनिश्चितता की स्थिति में रह रही है। मायावती की पार्टी से न केवल उनका पारंपरिक दलित वोट बैंक, बल्कि उनकी पार्टी के नेता भी दूर हो रहे हैं। पार्टी के कई नेता चुनाव से पहले भाजपा, कांग्रेस, सपा और आरएलडी जैसे विपक्षी दलों में शामिल हो गए हैं। हाल के दिनों में पार्टी न सिर्फ राजनीतिक परिदृश्य से दिनोंदिन कटती नजर आ रही है बल्कि स्वयं मायावती की सार्वजनिक मंचों पर उपस्थिति कम रही है। पार्टी के कई नेताओं का आरोप है कि बसपा सुप्रीमो उनकी पहुंच से भी बाहर हैं। शुरुआत से ही गठबंधन की राजनीति के लिए जानी जाने वाली बसपा ने इस बार स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने का फैसला किया है। बीएसपी के इंडिया ब्लॉक में शामिल होने की शुरुआती अटकलों को मायावती ने सिरे से खारिज कर दिया है।

इसलिए, एनडीए या इंडिया ब्लॉक से किसी तरह का गठबंधन न होने के कारण, उत्तर प्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य में बसपा तीसरी पार्टी के रूप में उभरी है, जिससे प्रदेश में मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है।

दलित वोट लेने की होड़

जैसा कि पिछले चुनावों में देखा गया है, बसपा के घटते दलित वोट बैंक का सीधा फायदा भाजपा को हुआ है। सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों को लाभ पहुंचाने वाली आकर्षक कल्याणकारी योजनाओं को लागू करके भाजपा बसपा के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रही है। जानकारों के अनुसार, बसपा के वाल्मीकि और अन्य गैर-जाटव समुदाय के समर्थन आधार का एक बड़ा हिस्सा भाजपा में स्थानांतरित हो गया है।

बसपा की पुरानी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, समाजवादी पार्टी भी अपने नए ‘पिछड़ा दलित और अल्पसंख्यक’ के नारे पेश कर इन वर्गों में अपने विस्तार का करने का प्रयास रही है। इस प्रयास का उद्देश्य केवल यादव समर्थक पार्टी के रूप में अपनी पहचान खत्म कर हाशिए पर रहने वाले समुदायों के बीच अपनी पहुंच को व्यापक बनाना है।

उत्तर प्रदेश में इन दो मुख्य राजनीतिक दलों के अलावा, हाल के वर्षों में चन्द्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी (एएसपी) ने भी दलित युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल की है। भीम आर्मी प्रमुख पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगीना से चुनाव लड़ेंगे, जहां बसपा सुप्रीमो मायावती के भतीजे आकाश आनंद ने 6 अप्रैल को पार्टी का राजनीतिक अभियान शुरू किया था। फरवरी में, एएसपी नेता ने घोषणा की थी कि वे उन क्षेत्रों में 14 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे जहां वे ‘संगठनात्मक रूप से मजबूत’ हैं। चन्द्रशेखर आजाद  युवा और ऊर्जावान दलित नेता हैं जिन्होंने कांशीराम के सिद्धांतों पर आधारित, 2020 में एएसपी की स्थापना की थी।

बसपा की यात्रा

समाज सुधारक कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना 1984 में की थी, जिसका प्राथमिक लक्ष्य बहुजनों का प्रतिनिधित्व करना और उन्हें एकजुट करना था। ‘बहुजन’ शब्द अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ी जातियों और धार्मिक अल्पसंख्यकों के व्यक्तियों को संदर्भित करता है। सामूहिक रूप से ये समूह 6000 विभिन्न जातियों में विभाजित थे।

1984: दलित आइकन बीआर आंबेडकर की जयंती पर 14 अप्रैल को कांशीराम द्वारा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की गई। पार्टी  आंबेडकर के विचारों से प्रेरित थी और बहुत ही कम समय में यह दलितों के नेतृत्व और समर्थन वाली पार्टी बन गई।

1993: बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने पहली बार  1993 में समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ गठबंधन किया, जब दोनों दलों ने उत्तर प्रदेश में गठबंधन सरकार बनाई। समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने।

1995: एसपी-बीएसपी गठबंधन, जिसने अन्य पार्टियों के समर्थन से सरकार बनाई थी, 1995 में तब टूट गया, जब सत्ता के बंटवारे के सवाल पर उनके रिश्ते बिगड़े। एसपी कार्यकर्ताओं पर मायावती के साथ दुर्व्यवहार का आरोप लगा। उसके बाद मायावती भाजपा के समर्थन से जून 1995 से अक्टूबर 1995 तक मुख्यमंत्री रहीं।

1997-2003: मायावती ने दो और मौकों पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में 1997 में छह महीने के लिए और 2002-03 में 15 महीने के लिए कार्य किया।

2001: कांशीराम ने मायावती को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी नामित किया।

2007: बसपा ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में 206 सीटें पर कब्जा कर ऐतिहासिक जीत हासिल की और बहुमत हासिल करने वाली पार्टी बन गई। मायावती ने बिना किसी दूसरी पार्टी के समर्थन के चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

2009: बसपा ने लोकसभा चुनाव में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए 20 सीटें जीतीं लेकिन 23 सीटें जीतने वाली सपा और 21 सीटों वाली कांग्रेस से पीछे रही।

2012: 2012 के विधानसभा चुनाव में पार्टी सिर्फ 80 सीटें ही जीत सकी। सपा के अखिलेश यादव ने सीएम पद संभाला।

2014: बसपा को बड़ा झटका लगा और लोकसभा चुनाव में यह पार्टी एक भी सीट हासिल नहीं कर पाई।

2017: 2017 के राज्य चुनावों में बसपा की सीटों की संख्या 80 से घटकर 19 हो गई।

2019: 2019 लोकसभा चुनाव में बसपा-सपा गठबंधन 15 सीटें हासिल करने में कामयाब रहा। बसपा के खाते में 10 सीटें आईं।

2022: राज्य चुनावों में बसपा केवल एक सीट जीतने में सफल रही।

 

 

 

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