Advertisement

जनादेश 2022/आवरण कथाः विजय सूत्र और सूत्रधार

चार राज्यों, खासकर सियासी तौर पर सबसे अहम उत्तर प्रदेश में दोबारा जीत दर्ज करके भाजपा ने जता दिया कि उसके चुनावी जीत के सूत्रों की काट तलाशने में विपक्ष है नाकाम
यूपी नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ

आजाद भारत के चुनावी इतिहास में ऐसे नतीजे गिनती के ही होंगे, जब सतह पर दिखते सत्ता-विरोधी रुझानों के बावजूद कोई सत्तारूढ़ राजनैतिक पार्टी एक नहीं, चार-चार राज्यों में बड़े बहुमत से फिर राजकाज चलाने का जनादेश पा जाए। और, मुद्दे सिर्फ राज्यों तक सीमित नहीं, बल्कि देशव्यापी असर वाले हों तो वाकई यह जादू-सा लगता है। कोई शायद ही इनकार करे कि किसान आंदोलन, बेरोजगारी, महंगाई, खस्ताहाल अर्थव्यवस्था से घटती आमदनी, कोविड-19 महामारी की खासकर दूसरी लहर की मर्मांतक पीड़ा जैसे मसले कुछ समय से देश को मथ रहे हैं। यही नहीं, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर, गोवा कहीं भी स्थानीय सियासी असंतोष न घुमड़ रहे हों, ऐसा भी नहीं था। अलबत्ता, इकलौते उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एक अलग पायदान पर खड़े नजर आए। फिर भी, विपक्ष पर्याप्त मात्रा में लोगों का भरोसा नहीं जीत पाया या भाजपा के प्रबंधन कौशल के आगे नाकाम साबित हुआ। इसे विपक्ष के प्रति लोगों की शंका का संकेत माना जाए या फिर भाजपा नेतृत्व की विकल्पहीनता का प्रतीक? इसका दूसरा अर्थ यह निकलता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा नेतृत्व का इकबाल कायम है। नतीजे भी देखिए, उत्तर प्रदेश में कुल 403 सीटों में 2017 में 312 के मुकाबले 2022 उसे 255 सीटें ही मिलीं लेकिन पार्टी बहुमत से काफी आगे है। उत्तराखंड में तो पिछले साल कुछेक महीने के भीतर ही एक के बाद एक तीन मुख्यमंत्री बनाने पड़े मगर कुल 70 में 47 सीटें जीतकर पार्टी ने दो-तिहाई बहुमत हासिल कर लिया। गोवा  की 40 सीटों में भी 20 जीतकर वह बहुमत को छू गई। मणिपुर की 60 सीटों की विधानसभा में तो उसने 32 जीत लीं। पंजाब में जरूर उसे सिर्फ दो सीटें मिलीं, मगर वहां कभी भी पार्टी की पैठ नहीं रही है। फिर, किसान आंदोलन का सबसे ज्यादा जोर वहीं था, इसलिए भाजपा से नाराजगी भी काफी थी। फिर भी 10 मार्च को नतीजों के दिन जश्न के माहौल में दिल्ली के भाजपा मुख्यालय में पार्टी कायकर्ताओं और नेताओं को संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी पंजाब की ही बात छेड़ते हैं, जिससे एकदम प्रतिकूल क्षेत्रों में भी पैठ बनाने की अकुलाहट का परिचय मिलता है। 

दरअसल यही अकुलाहट शायद पार्टी और उसके पदाधिकारियों में चुनावी जीत के लिए कोई कोर कसर न छोड़ने की प्रेरणा बनती है, जिसके नतीजे भी मिलते हैं। उत्तर प्रदेश में लगातार चौथे चुनाव-2014, 2017, 2019 और 2022 में पार्टी का वोट प्रतिशत 40 के पास या उससे अधिक रहा है। तो, क्या यह सिर्फ भाजपा के प्रचार तंत्र और मजबूत चुनावी मशीनरी का कमाल है, जैसा कि कई सारे लोग खासकर विपक्षी कहना पसंद करते हैं? इसमें दो राय नहीं कि भाजपा और उसके पितृ-संगठन आरएसएस का संगठन तंत्र हर मतदान बूथ तक फैल गया है, जिसे पार्टी पन्ना प्रमुख कहती है। खासकर 2014 में केंद्र में सत्ता मिलने के बाद यह आधार व्यापक हुआ है। वैसे, सत्ता में होने से बहुत सारे सामाजिक समूह जुड़ जाते हैं, जो अंतत: कार्यकर्ता की तरह काम करने लगते हैं। इसके अलावा प्रचार में भी उसका कोई जोड़ नहीं है। मीडिया और खासकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों के इस्तेमाल में तो वह इतनी आगे निकल चुकी है कि विपक्षी पार्टियां अभी उसके पीछे ही दौड़ लगा रही हैं। लेकिन सिर्फ यही भाजपा की चुनावी जीत का आधार होता तो दिल्ली में उसे 2015 और 2020 में लगातार दो विधानसभा चुनावों में बुरी हार का सामना नहीं करना पड़ता, क्योंकि भाजपा और आरएसएस दोनों का दिल्ली से ज्यादा सघन कार्यकर्ता नेटवर्क शायद ही कहीं और हो। इसलिए वह कुछ और फॉर्मूला है, जो जीत संभव बनाता है।

इसकी सबसे प्रत्यक्ष मिसाल अभी उत्तर प्रदेश के चुनावों में देखने को मिली, जहां समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने लोगों की नाराजगी को भुनाने वाले मुद्दों और पिछड़ी जातियों के व्यापक समीकरण का मिश्रण बनाकर तगड़ी चुनौती पेश की थी। अखिलेश की सभाओं में उमड़ती भीड़ भी इसका एहसास दिला रही थी। इसी चुनौती की वजह से उत्तर प्रदेश का चुनाव सबसे दिलचस्प बन गया था। लेकिन सात चरणों वाले मतदान के हर चरण में बूथ पर कतार में खड़े लोग महंगाई या बेरोजगारी को मुद्दा बता रहे थे या मोदी-योगी पर भरोसा जता रहे थे कि वे सब ठीक कर लेंगे। शायद इसी वजह से पहली बार उत्तर प्रदेश का चुनाव दोतरफा हो गया था। नतीजों से यह जाहिर हो गया कि किस ओर ज्यादा लोग थे। यही भरोसा शायद देश में राजनैतिक रूप से सबसे अहम, केंद्र में 80 सांसद भेजने वाले उत्तर प्रदेश में मोदी और योगी के योग को चुनावी जीत का अजेय फॉर्मूला बनाता है। यह फॉर्मूला ऐसा है, जो प्रत्यक्ष दिखती परेशानियों को ढंक लेता है और एक ऐसी आकांक्षा का एहसास कराता है, जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है, देखा नहीं जा सकता।

दूसरी तरफ से देखें तो नेतृत्व में भरोसे का यह मामला बहुत कुछ साफ हो जाता है, जिसकी मिसाल पंजाब है। किसान आंदोलन की धधकती ज्वाला वाले इस राज्य ने न सिर्फ आंदोलन समर्थक सत्तारूढ़ कांग्रेस को नाकामियों और तुगलकी सियासी फैसलों की सजा सुना दी, बल्कि लगभग सभी पारंपरिक (जिसे पंजाब में रिवायती कहते हैं) दलों और नामचीन नेताओं को सिरे से खारिज कर दिया। यही नहीं, पहली दफा सियासत में भाग्य आजमा रहे किसान नेताओं को भी बेमानी करार दिया, जिनके आह्वान पर राज्य के किसान साल भर से ज्यादा समय तक दिल्ली की सीमा पर डेरा डाले रहे। वहां लोगों ने अब तक न आजमाए गए आम आदमी पार्टी को दिल खोलकर सत्ता सौंप दी, वह भी भगवंत मान जैसे शख्स को, जिसे पारंपरिक दलों का कोई गंभीर सियासी किरदार मानने को तैयार नहीं था। इससे दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी राष्ट्रीय मंच पर विपक्षी खेमे में एक पुश्त ऊंचे नजर आने लगे हैं क्योंकि आप इकलौती गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा पार्टी है, जिसकी दो राज्यों में सरकार है (भले दिल्ली आधा राज्य हो मगर उसकी अहमियत खास है)। यानी नेतृत्व में भरोसा ही वह तिलिस्म है, जो सियासी रूप से अहम हिंदी प्रदेशों में मोदी की लोकप्रियता को प्रतिकूल स्थितियों में भी कायम रखता है।

हालांकि इसके लिए मोदी और भाजपा नेतृत्व को भी कम से कम हर चुनावी मौके पर चौकस रहना पड़ता है, ताकि लोगों को भरोसे का एहसास लगातार दिलाया जा सके। इस चुनावी सफर का निर्णायक मोड़ शायद 19 नवंबर था, जब गुरुपरब के दिन नरेंद्र मोदी ने विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया और माफी भी मांगी। हालांकि उसके पहले कई राज्यों के उपचुनावों खासकर हिमाचल प्रदेश के तीन विधानसभा और एक लोकसभा उपचुनाव में हार सरकार के खिलाफ बढ़ती नाराजगी का एहसास करा रही थी, लेकिन एक-डेढ़ महीने बाद होने वाले अहम चुनाव भी दिख रहे थे। तभी यह फैसला भी किया गया कि कोविड महामारी के दौर में बीपीएल परिवारों को दिए जाने वाले मुफ्त राशन को मार्च 2022 तक जारी रखा जाए, जिसे नवंबर 2021 में खत्म करने का ऐलान हो चुका था। फिर, राशन में तेल, नमक, दाल भी जोड़ दिया गया और उसके पैकेटों पर मोदी की तस्वीर लगाई गई (उत्तर प्रदेश में पैकेटों पर योगी आदित्यनाथ की तस्वीर भी थी)। इन दो फैसलों ने इन चुनावों में जादू की तरह काम किया।

कृषि कानूनों को वापस लेने से लोगों का गुस्सा कुछ घटा और राशन मिलने से कोविड से उपजी स्वास्थ्य और रोजगार संबंधी परेशानियों पर कुछ मरहम लगा। उत्तर प्रदेश के चौथे-पांचवें चरण के दौरान एक गरीब बूढ़ी महिला ने एक पत्रकार से कहा कि ‘‘नमक खाइत ह, उहै क देबै वोट।’’ फौरन मोदी अपने भाषणों में नमक की बात करने लगे। बाद में खासकर कांग्रेस की प्रियंका गांधी ने कहा कि लोग नहीं, नेता खाते हैं नमक। उसके बाद मोदी भी कहने लगे कि हमने आपका नमक खाया है।

खैर, यह विवाद तो अपनी जगह है, लेकिन मुफ्त राशन के साथ उज्ज्वला, सस्ते आवास, शौचालय, किसान सम्मान निधि जैसी केंद्रीय योजनाओं और राज्य में पिछले साल शुरू की गई बुजुर्ग महिला पेंशन योजना ने सरकार और भाजपा के प्रति सहानुभूति रखने वाला एक वर्ग तैयार किया। भाजपा और उसके समर्थक इसे लाभार्थी वर्ग बताते हैं, जो उनके मुताबिक, जाति के बंधनों से अलग होकर वोट दे रहा है। राशन के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली तो देश में लंबे समय से कायम है, लेकिन किसी सरकार या सत्ताधारी राजनैतिक दल ने इससे पहले लाभार्थियों को अपना वोट बैंक बनाने की नहीं सोची। यानी हर वक्त हर काम को चुनावी जीत के नजरिए से पेश करना मोदी-अमित शाह की भाजपा की खासियत बन गई है, जो उसके पहले नदारद हुआ करती थी।

लेकिन कल्याणकारी योजनाओं के इस फलसफे में खासकर उत्तर प्रदेश के चुनावों में कड़े प्रशासन का पुट जोड़ा गया, ताकि आधार व्यापक हो। कल्याणकारी योजनाओं से तो ग्रामीण गरीब अति पिछड़ी और दलित जातियां प्रभावित थीं लेकिन शहरी और मध्यवर्गीय वोटरों को लुभाने में शायद बड़ा योगदान योगी आदित्यनाथ की शख्सियत का है, जो पिछले विधानसभा चुनावों में कुछ हद तक गैर-मौजूद थी। योगी 2017 के चुनावों में चेहरा नहीं थे, लेकिन मोदी-अमित शाह और आरएसएस की शह से उन्हें गद्दी मिली तो उन्होंने कट्टर हिंदुत्ववाद की अपनी छवि पुख्ता करने पर पूरा जोर लगाया। मसलन, गोवध बंदी, लव जेहाद के खिलाफ कानून, एंटी-रोमियो स्क्वाड जैसे अभियान और कानून बनाए गए। इसी कड़ी में अपराधियों और माफिया पर सख्ती और बुलडोजर से घर ढहाने के अभियान की बात भी है, जिसमें एक हद तक सांप्रदायिक रंग भी घुल जाता है। इस छवि का इन चुनावों में एक अलग तरह से उन्हें फायदा मिला। इस कट्टर छवि को इस बार कड़े प्रशासक के तौर पर पेश किया गया और उसे पुख्ता करने के लिए वे अपनी सभाओं में बुलडोजर खड़ा करने लगे। लगभग हर सभा में वे यह भी कहते रहे, ‘‘अभी बुलडोजर मरम्मत होने गया है, 10 मार्च के बाद चलेगा।’’ इस तरह वे माफिया और अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की अपनी सरकार की नीतियों को याद दिलाते रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि खासकर शहरों में एक वर्ग कानून-व्यवस्था की दुहाई देकर सुरक्षा की बात करता पाया गया।

हालांकि मतदान के पहले दो चरणों में ‘गर्मी निकाल देते हैं’ जैसे बयान देकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश की, क्योंकि पश्चिम उत्तर प्रदेश और रुहेलखंड के इलाकों में मुसलमान आबादी ज्यादा है। लेकिन ध्रुवीकरण होने के खास प्रमाण नहीं मिले तो योगी ने कानून-व्यवस्था पर फोकस किया और अपनी सभाओं में बुलडोजर खड़ा करने लगे। इससे उन्हें कुछ लोग ‘बुलडोजर बाबा’ भी कहने लगे। लेकिन बड़ी बात यह है कि योगी की कट्टर छवि और मोदी की कल्याणकारी छवि ने जीत में बड़ी भूमिका निभाई। हालांकि चुनावों के पहले हिंदुत्व के मूल मुद्दों अयोध्या में राम मंदिर और काशी कॉरीडोर को उछालने की कोशिश की गई। पूर्व उप-मुख्यमंत्री केशव देव मौर्य (जो खुद चुनाव हार गए) जैसे कुछेक नेता मथुरा और बनारस के मंदिरों की भी बात उछालते रहे, ताकि एक अंडरकरंट जैसी कायम रहे। लेकिन जब हिंदुत्व के मुद्दे कारगर नहीं हुए तो भाजपा नेतृत्व ने रणनीति बदली और कल्याणवाद तथा राष्ट्रवाद को अपने एजेंडे में आगे बढ़ाया। इसी के साथ सख्त प्रशासन की छौंक भी लगाई गई।

इस जीत से योगी का कद बढ़ा है और बड़ी बात यह भी है कि पिछली बार की तरह उन्हें बाकी नेताओं से कोईं चुनौती भी नहीं मिलने वाली है। अब वे मोदी के बाद की कतार में पहुंच गए हैं। खैर, लेकिन नए भाजपा नेतृत्व की बड़ी खासियत समय और स्थान देखकर रणनीतियों में बदलाव लाना है।

यही निरंतर रणनीतियां बदलना, उसमें सुधार करना या पूरी तरह बदल देना मोदी-शाह-योगी की नई भाजपा का खास गुण है। हालांकि दलितों के वोट में बड़ी सेंध से भी भाजपा को काफी मदद मिली है। यह बहुजन समाज पार्टी को सिर्फ एक सीट मिलने और वोट प्रतिशत 13 तक गिर जाने से भी जाहिर होता है। उसे पिछले चुनावों में 22 फीसदी वोट मिला था। इस बार बलिया के रसड़ा की सीट भी उमाशंकर सिंह अपने बूते जीते हैं। मायावती इस चुनाव में निष्क्रिय-सी रहीं तो उनके परंपरागत जाटव वोटरों में भी उदासीनता देखी गई और वे विकल्प तलाशने लगे। मायावती ने कहा भी कि ‘जो बसपा को वोट देने से हिचक रहे हैं, वे कम से कम अखिलेश को वोट न दें।’ इसका असर पहले चरण से ही देखने को मिला। शायद दलित वोटों का एक हिस्सा मिलने से भाजपा से गैर-यादव पिछड़ी जातियों में हुई टूट की भरपाई हुई है। दलितों का वोट अगर बसपा के पास बना रहता तो भाजपा को मुश्किल हो सकती थी। मायावती क्यों उदासीन बनी रहीं, यह आज की शायद सबसे बड़ी सियासी पहेली है क्योंकि जो वोट दूसरी ओर चला जाता है, उसे वापस लाना आसान नहीं होता। इसकी सबसे बड़ी मिसाल कांग्रेस है। प्रियंका गांधी की कोशिशों के बावजूद कांग्रेस का वोट प्रतिशत घटकर करीब 2.5 पर आ गया। कांग्रेस को मिली दो सीटें भी प्रत्याशियों की अपनी लोकप्रियता का फल है।

बहरहाल, भाजपा के लिए यह जीत मुंहमांगी मुराद की तरह है, क्योंकि इससे 2024 के लोकसभा चुनावों की राह आसान हो सकती है। वजह यह है कि चुनाव में एक-दो राज्यों या अकेले उत्तर प्रदेश में ही हार का बहुत बड़ा फर्क पड़ता। इससे फिजा बदल जाती और शायद मौजूदा नेतृत्व पर सवाल भी खड़े हो जाते। यही नहीं, जुलाईं में होने वाले राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति चुनाव में भी मुश्किल पेश आती और राज्यसभा में एनडीए सदस्यों की संख्या भी कम हो सकती थी, जिसके जुलाई के पहले करीब 73 सदस्य रिटायर हो रहे हैं। यह सरकार के लिए अपशकुन की तरह होता मगर जीत से ये सारी आशंकाएं छंट गईं।

वैसे इन चुनावों पर दूसरी शंकाएं भी उभर रही हैं। विपक्षी दल ईवीएम में छेड़छाड़ और प्रशासनिक हेराफेरी का आरोप लगा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में करीब 44 सीटें 1,000 से कम अंतर से जीती गई हैं, इसलिए यह आरोप उछल रहा है। हालांकि इसका मतलब यह भी है कि कितना कांटे का मुकाबला था। यही सोचकर भाजपा को ध्यान रखकर चलना चाहिए, वरना बहुसंख्यकवाद के चक्‍कर में उसे बड़ी चुनौती मिल सकती है। राजनीति शास्‍त्री आशुतोष वार्ष्णेय ने हाल में लिखा, ‘‘बहुसंख्यकवाद संवैधानिक लोकतंत्र के लिए खतरा है, क्योंकि संविधान इसकी गारंटी नहीं देता।’’ उम्मीद यही की जानी चाहिए कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ नारा वाकई अमल में लाया जाएगा।  

Advertisement
Advertisement
Advertisement