उत्तराखंड में हुए सुरंग हादसे के दौरान मुन्ना कुरैशी और वकील हसन जब 80 सेंटीमीटर के व्यास वाली पाइप के सहारे मलबे में उतरे, तब उनके मन में ‘करो या मरो’ वाला एहसास था। मुन्ना के मुताबिक सुरंग में उनके सहित घुसे कुल 12 लोगों की महज एक ही प्रेरणा थी, “हमें अपने मजदूर भाइयों के लिए यह काम करना है।” किसी तरह मलबे में छेनी-हथौड़ी चलाते हुए उन्होंने अपना रास्ता बनाया और बिना थके आगे की ओर बढ़ते रहे। जैसे ही दूसरी ओर से मुन्ना के कान में थोड़ी हलचल सुनाई पड़ी, उनका दिल जोर से धड़कने लगा। वे जान गए कि कामयाबी मिल चुकी है। उनके साथ फंसे हुए 41 मजदूर भी जान गए कि उनकी जान बच जाएगी।
राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने 2014 में रैटहोल माइनिंग को उसके खतरों के चलते प्रतिबंधित कर दिया था, हालांकि मेघालय की खदानों में धड़ल्ले से यह तरीका अपनाया जाता है। यहां लोग खनन के चक्कर में लगभग सौ फुट नीच तक खोदकर चले जाते हैं और अकसर उनकी मौत हो जाती है। इन मौतों का जवाबदेह कोई नहीं होता। रिपोर्टों की मानें, तो 2007 से 2014 के बीच करीब 275 लोगों की इस तरह की खुदाई के कारण जान जा चुकी है।
जाहिर है, उत्तराखंड की घटना का किसी तरह के अवैध खनन से कोई लेनादेना नहीं था, फिर भी जब लोगों के सामने यह शब्द आया तो लोगों के मन में रैटहोल माइनिंग को जानने के बारे में दिलचस्पी जागी। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि भारत के इतिहास में यह सबसे लंबा चला बचाव अभियान था। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिकरण के पूर्व सदस्य सैयद अता हसनैन कहते हैं, “रैटहोल माइनिंग गैर-कानूनी है पर उत्तराखंड बचाव अभियान में रैटहोल माइनरों ने बड़ी भूमिका अदा की।” रैटहोल माइनरों के टीम लीडर वकील भी कहते हैं, “हम लोग इसे रैटहोल माइनिंग नहीं कहते। यह तो मीडिया का शब्द है। हम इसे मैनुअल जैक पुशिंग कहते हैं।”
इस बचाव अभियान से पहले इन लोगों ने कभी भी कोयला खदान में काम नहीं किया था, लेकिन इनके पास पानी, गैस और सीवर की लाइनें बिछाने का पुराना अनुभव है। मुन्ना यह काम पंद्रह साल से कर रहे हैं। इन्हीं में एक इरशाद बताते हैं कि जिस तरीके से यह खनन किया जाता है, वह वैसा ही है जैसे कोई चूहा बिल खोदता है। वे बताते हैं, “चूहे पहले मिट्टी खोदते हैं, फिर उसे पीछे धकेलते हैं। हम भी वही करते हैं। हम खुदाई करते हुए भीतर घुसते जाते हैं और मिट्टी पीछे धकेलते जाते हैं। ऊपर बैठा आदमी उस मिट्टी को निकालता जाता है।”
मेरठ के रहने वाले इरशाद छह साल पहले दिल्ली आए थे। सुरंग के काम में वे 2001 से लगे हुए हैं। इसी तरह कोई दस साल पहले नसीम ने काम शुरू किया था। वे पूछते हैं, “अगर मैं सुरंग से बाहर नहीं आ पाता तब? कौन पूछता?”
रैटहोल माइनिंग में किसी प्रशिक्षण की जरूरत नहीं पड़ती। मजदूरों को नीचे भेजते वक्त किसी विशेषज्ञता की भी मांग नहीं होती। वकील कहते हैं कि यह काम अच्छा नहीं है। वह कहते हैं, “आपको फील्ड में भेजा जाता है। आप मजदूरों को भीतर जाते और निकलते हुए दिन-रात देखते हैं। ऐसे ही देख-देख कर सीखते हैं। फिर एक दिन आपकी बारी आती है।”
कासगंज के रहने वाले फिरोज कुरैशी भी इस काम को अच्छा नहीं मानते। उनका कहना है, “इसे काम कहना भी ठीक है या नहीं, पता नहीं। बस घर चल जाता है इससे, इसलिए क्या शिकायत करें। खतरे तो हैं और सबसे बुरा है कि खर्च बहुत आता है।”
फिरोज कहते हैं कि कायदे से मजदूरों को ऑक्सीजन देने वाला ब्लोअर, सुरक्षा बूट, हेलमेट और हादसों की स्थिति में परिवारों को सुरक्षा, सब मिलनी चाहिए। फिलहाल ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। उस पर भी जो पारिश्रमिक का वादा किया जाता है, वह नहीं मिलता।
इरशाद पूछते हैं, “हम लोगों को कम से कम दो से तीन हफ्ते पांच से आठ सौ रुपये की दिहाड़ी मिलनी चाहिए, लेकिन बिचौलिये या ठेकेदार सब कमा लेते हैं। पांच सौ में से हमें केवल दो सौ मिलता है। इतने में घर कैसे चलेगा?”
पर्यावरण कार्यकर्ता प्रफुल्ल सामंतराय इस तरह के जोखिम भरे काम के बारे में कहते हैं, “पहला सवाल तो यही होना चाहिए कि ऐसा काम करने की लोगों को जरूरत ही क्यों पड़ती है।’ वे ऐसे कामों को करने वालों की जाति और वर्ग विशेष की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘हमारा सामाजिक ढांचा ही इन्हें ऐसी जोखिम भरी मजदूरी करने को बाध्य करता है, जहां कोई इंसानी प्रतिष्ठा नहीं है।”
मेघालय की कोयला खदानों में नेपाल, बांग्लादेश, असम के मजदूर रैटहोल खनन का काम करते हैं। मेघालय की खनन-विरोधी कार्यकर्ता एग्नेस खारसिंग कहती हैं, “इनमें ज्यादातर बच्चे होते हैं क्योंकि वे संकरी सुरंगों में आसानी से घुस सकते हैं।”
मेघालय की जैंतिया पहाडि़यों से लगातार मानवाधिकार उल्लंघन की ऐसी खबरें आती रहती हैं। बच्चे बिना इच्छा के ऐसे काम करने को मजबूर हैं जो संविधान के अनुच्छेद 23 का स्पष्ट उल्लंघन है।
सिलक्यारा-बड़कोट की सुरंग में बचाव अभियान में शामिल रैटहोल खननकर्मियों के लिए कई पुरस्कारों की बात की गई है लेकिन अब तक इन्हें कुछ नहीं मिला है। मुन्ना कहते हैं, “बोला है, तो देंगे ही।”
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने सभी को पचास हजार रुपये के ईनाम की घोषणा की थी। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी एक-एक लाख रुपया देने के लिए कहा था। खबर थी कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में इन रैटहोल माइनरों का अभिनंदन किया और इनके साथ फोटो खिंचवाई। आउटलुक ने जिन रैटहोल माइनरों से बात की, उनका दावा था कि वे कभी केजरीवाल से नहीं मिले। उन्हें आया न्योता केवल सुर्खियों के लिए था।
वकील हसन कहते हैं, “किससे मिले वे? फोटो में तो हम लोगों में से कोई नहीं है।”
इन लोगों को पैसे से ज्यादा सम्मानजनक जीवन की आकांक्षा है, लेकिन सरकार इन्हें अवैध निवासी कहती है। दिल्ली की श्रीराम कॉलोनी में कई बार बुलडोजर चल चुका है। वकील हसन की पत्नी शबाना यहां दस साल तक पार्लर चलाती रही थीं, लेकिन पार्लर ध्वस्त किए जाने के बाद दोबारा इसे खोलने में उन्हें डर लगता है। शबाना कहती हैं, “फिर बना लूं तो वे फिर गिरा देंगे। ये हमें अवैध कहते हैं।”
शबाना के घर में चार साल से बिजली का कनेक्शन नहीं है। डीडीए ने 2019 के अतिक्रमण हटाओ अभियान में कनेक्शन काट दिया था। घर सौर ऊर्जा से चलता है। यमुना विहार वॉटर टैंक से महज चार किलोमीटर की दूरी के बावजूद हर सुबह ये लोग पानी के लिए संघर्ष करते हैं।
ये लोग नहीं चाहते कि इनके बच्चे भी रैटहोल माइनिंग करें। मुन्ना कुरैशी के तीन बच्चे हैं। खजुरी खास के प्राथमिक स्कूल की खस्ता हालत गिनवाते हुए वे कहते हैं कि बच्चों की जिंदगी यहां पढ़ के बरबाद हो रही है। हम बच्चों को अच्छी जगह के अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं, लेकिन ऐसा नहीं कर सकते।
वे कहते हैं, “हम सोच भी नहीं सकते कि बच्चे अंधेरी काली सुरंगों में जान जोखिम में डाल के काम करेंगे। पैसा, शिक्षा और सामाजिक ढांचे के अभाव में क्या इन्हें भी मजदूरी के लिए मजबूर होना पड़ेगा?”
इन मजदूरों की जिंदगी में इतने सम्मान के बाद भी कुछ बदलने वाला नहीं है। इनकी जिंदगी वैसी ही चलेगी जैसी पहले चल रही थी। वकील कहते हैं, “एक बार मीडिया हमें पूछना बंद कर दे, तो लोग धीरे-धीरे हमें भूल जाएंगे। हम लोग वापस फिर वहीं अंधेरी सुरंगों में रेंगते नजर आएंगे।”