महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, उपमुख्यमंत्री अजित पवार और वरिष्ठ मंत्री अशोक चव्हाण की 8 जून को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मराठा आरक्षण, जीएसटी जैसे मुद्दों पर बैठक केंद्र-राज्य टकराव के इस दौर में जैसे कोई बिरली घटना थी। फिर, आधा घंटा मोदी की उद्धव ठाकरे से अकेले में बातचीत भला कयासों को जन्म क्यों नहीं देती। ऐसे सवालों पर ठाकरे की खिसियाहट भरी प्रतिक्रिया भी समझ में आती है कि, ‘‘कोई नवाज शरीफ से तो नहीं मिल आया!’’ लेकिन हाल के दौर में महाराष्ट्र, दिल्ली, पश्चिम बंगाल जैसे विपक्ष शासित तमाम राज्यों की सरकारों से बात-बात पर केंद्र के टकराव कई बार मर्यादा की सीमा लांघ गए हैं। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान वैक्सीन, ऑक्सीजन और कई जरूरी दवाइयों की आपूर्ति को लेकर तो ऐसी ठनी कि उसके नतीजे भी भयावह हुए। आखिर केंद्र को कम से कम वैक्सीन के मामले में कोर्स करेक्शन जैसा करना पड़ा। लेकिन इससे टकराव की सियासी आंच अभी कम होती नहीं दिख रही है और इसके अक्स आने वाले महीनों में और किस रूप में खुलेंगे, कहना मुश्किल है।
असल में यह टकराव अब सियासी वर्चस्व की लड़ाई में बदलता जा रहा है। शायद इसी वजह से पहली एनडीए सरकार में वित्त और विदेश मंत्री रह चुके, लेकिन अब मोदी-अमित शाह की अगुआई वाली भाजपा के धुर विरोधी यशवंत सिन्हा आउटलुक से कहते हैं, ‘‘विपक्ष शासित मुख्यमंत्रियों को संविधान और संघीय ढांचे को बचाने के लिए एकजुट होकर मोर्चा खोलना चाहिए।’’ जाहिर है, शंकाएं बड़ी हैं और विपक्ष या विपक्षी सरकारें केंद्र के प्रति नरमी के मूड में नहीं दिखती हैं। एक कांग्रेस नेता की दलील है कि कोविड की दूसरी लहर के भयानक असर के बाद भले केंद्र कुछ बैकफुट पर दिख रहा हो लेकिन वह सहकार की नीति पर चलेगा, इसका भरोसा नहीं किया जा सकता।
केंद्र में मोदी सरकार खासकर अपने दूसरे कार्यकाल में विपक्ष शासित राज्यों के प्रति ज्यादा ही तीखा रवैया अपनाती दिख रही है। वह राज्यों के अधिकार क्षेत्र में ही हस्तक्षेप नहीं कर रही, उनको जीएसटी की देय राशि भी नहीं दे पा रही है, जिससे उनकी माली हालत बेहद खराब हो चली है। बार-बार जीएसटी की राशि मांगने पर केंद्र ने राज्यों को सलाह दी कि वे अपने खर्चों के लिए कर्ज उठा लें और केंद्र बाद में उसकी भरपाई कर देगा। इसके अलावा राज्यों के कल्याणकारी कार्यक्रमों के ऐलान पर भी उसकी टेढ़ी नजर रहती है। इसका सबसे ताजा उदाहरण दिल्ली है, जहां मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की घर-घर राशन पहुंचाने की योजना पर रोक लगा दी गई। लेकिन केंद्र ने दिवाली तक राशन देने की जो स्कीम बनाई है, उसके लिए राज्यों को हिदायतें भेजी गई हैं। यही नहीं, केंद्र को दिल्ली की निर्वाचित सरकार का फैसला लेना भी पसंद नहीं आया। संसद के बजट सत्र में उसने एक संशोधन के जरिए उपराज्यपाल को सर्वोपरि बना दिया। मतलब यह कि उपराज्यपाल की अनुमति के बिना राज्य सरकार कोई कदम नहीं उठा सकती। यह संशोधन सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को निष्प्रभावी करने के लिए लाया गया, जिसमें निर्वाचित सरकार को प्राथमिकता दी गई थी और उपराज्यपाल के लिए कुछेक मामलों को छोड़कर कैबिनेट के फैसले को मानना अनिवार्य बनाया गया था।
इसी तरह महाराष्ट्र के साथ केंद्र के टकराव की नींव उसी दिन से पड़ गई, जब शिवसेना-राकांपा-कांग्रेस की सरकार ने सत्ता संभाली। टकराव का पहला मामला भीमा कारेगांव प्रकरण था, जिसमें कई जाने-माने बौद्धिक यूएपीए के तहत गिरफ्तार हैं। राज्य सरकार ने उसकी जांच करानी चाही तो फौरन मामला एनआइए को सौंप दिया गया। फिर अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या की जांच मुंबई पुलिस से लेकर सीबीआइ को सौंप दी गई। इसके लिए बिहार में एक मामला दर्ज करके सुप्रीम कोर्ट से आदेश लाया गया। हाल में पूर्व पुलिस कमिश्नर परमबीर सिंह की शिकायत पर राज्य के पूर्व गृह मंत्री अनिल देशमुख के खिलाफ सीबीआइ जांच बिठा दी गई। विवाद केरल, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ को लेकर भी उभरते रहे हैं। लेकिन इस लड़ाई का सबसे नायाब नमूना तो पश्चिम बंगाल चुनावों में तीसरी बार ममता बनर्जी की अभूतपूर्व जीत के बाद सामने आया। लेकिन ममता भी कहां हार मानने वाली हैं।
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ तृणमूल नेता अभिषेक बनर्जी
यह ऐसी जंग बन गई, जिसमें दोनों तरफ से शह और मात के खेल जारी हैं। 31 मई को ट्विटर पर हैशटैग ‘बेंगालीप्राइममिनिस्टर’ (बंगाली प्रधानमंत्री) ट्रेंड करने लगा तो मानो ममता बनर्जी जंग में दो दौर जीत चुकी थी। एक, विधानसभा चुनावों के नतीजों ने भाजपा को आईना दिखा दिया कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी अजेय नहीं है। दूसरे, चुनावी नतीजों के बाद छिड़े केंद्र-राज्य टकराव ने लगभग समूचे विपक्ष को ममता की ओर ला खड़ा किया। केंद्र ने भाजपा समर्थकों के खिलाफ चुनाव बाद कथित हिंसा की जांच के लिए टीम भेजी, और फिर सीबीआइ ने नारद घोटाले के उन आरोपियों को गिरफ्तार किया, जो भाजपा में नहीं हैं। उसके बाद यास चक्रवात की समीक्षा बैठक पर टकराव बन गया। उसमें विधानसभा में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी को अप्रत्याशित निमंत्रण से ममता ने प्रधानमंत्री की बैठक में न जाने का मन बना लिया। यह विवाद इस कदर बढ़ा कि ममता के भरोसेमंद, राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव आलापन बंद्योपाध्याय के खिलाफ केंद्र कार्रवाई कर बैठा। उन्हें फौरन दिल्ली में रिपोर्ट करने को कहा गया। लेकिन बंद्योपाध्याय ने केंद्र में जाने से बचने के लिए सेवानिवृत्ति मांग ली तो केंद्र ने उन्हें मोदी की बैठक में गैर-हाजिर रहने के लिए कारण बताओ नोटिस थमा दिया। इस विवाद पर खुद आइएएस रह चुके यशवंत सिन्हा कहते हैं, ‘‘काडर कंट्रोलर अथॅरिटी यानी बंगाल की राज्य सरकार की अनुमति के बिना उन्हें केंद्र में बुलाना सरासर संवैधानिक कानून और मान्यताओं का उल्लंघन है।
ममता ने उसी दिन, 31 मई को उन्हें तीन साल के लिए अपना मुख्य सलाहकार नियुक्त करके केंद्र को एक और झटका दिया। उसी के साथ गिरफ्तार तृणमूल नेताओं को कोलकाता हाइकोर्ट से जमानत भी मिल गई। केंद्र को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से कोई राहत नहीं मिल पाई। इन घटनाओं पर बंगाल भाजपा के ज्यादातर नेता मुंह सिए रहे। कोलकाता में रवींद्र भारती विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, ‘‘मोदी जितना ममता पर वार करते हैं, ममता की राष्ट्रीय अहमियत उतनी बढ़ रही है। लोगों की धारणा केंद्र के खिलाफ बनने लगी है। राज्य पीडि़त माने जाने लगे हैं और सहानुभूति बटोर रहे हैं।’’
पूर्व मुख्य सचिव आलापन बद्योपाध्याय के साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
केंद्र के इस आक्रामक रवैए से बंगाल भाजपा में बढ़ती परेशानी शुभ्रांशु राय के उस फेसबुक पोस्ट से भी उजागर होती है कि पार्टी को चुनाव में भारी पराजय के बाद आत्ममंथन करना चाहिए, न कि तृणमूल पर हमलावर होना चाहिए। शुभ्रांशु कभी ममता के दायां हाथ रहे और अब भाजपा के उपाध्यक्ष मुकुल राय के बेटे हैं। उनकी बीमार मां को देखने अचानक ममता के भतीजे अभिषेक बनर्जी पहुंच गए तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष से लेकर अमित शाह और नरेंद्र मोदी में हालचाल पूछने की होड़-सी लग गई। इससे भी भाजपा केंद्रीय नेतृत्व की घबराहट का ही इजहार हुआ। दूसरे कई पूर्व विधायक सोनाली गुहा, दीपेंदु विश्वास, बच्चू हांसदा तृणमूल में वापसी की गुहार लगा रहे हैं। बंगाल से भाजपा के एक सांसद कहते हैं, ‘‘केंद्र ने बंगाल में अपनी पार्टी को बचाए रखने के लिए राज्य के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाया हुआ है।’’
शायद इसी वजह से राज्यपाल जगदीप धनखड़ लगातार आक्रामक हैं। उधर तृणमूल भी शायद अब राज्यपाल से सीधे टकराने का फैसला कर चुकी है। तृणमूल सांसद महुआ मोइत्रा ने एक ट्वीट में बताया है कैसे राज्यपाल ने अपने करीबी रिश्तेदारों की नियुक्ति राज्यपाल निवास में कर ली है। राज्यपाल ने इस पर सफाई दी है। मगर यह विवाद अब मर्यादा की सीमा के पार होता जा रहा है।
जाहिर है, यह लड़ाई यूं ही जारी रही तो देश की संघीय व्यवस्था तार-तार हो उठेगी और देश में कानून का राज नहीं, बलिक जिसकी लाठी उसकी भैंस का कानून प्रभावी हो जाएगा। लेकिन सियासत की यह धुरी कहां जाकर नया रूप लेगी, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।