नई कहावत है: पूरे घर के बदल डालूंगा, पुरानी कहावत है: संकट में सबका साथ भाए। हालांकि यह कहना कुछ लोगों को नाइंसाफी लग सकती है कि नरेंद्र मोदी की अगुआई वाले एनडीए की दूसरी सरकार का दो साल से अधिक समय बाद पहला मंत्रिमंडलीय फेरबदल महज संकटकालीन डैमेज कंट्रोल है। लेकिन इससे भला कौन इनकार करेगा कि 43 मंत्रियों का लंबा-चौड़ा शपथ ग्रहण (36 नए और सात की पदोन्नति) नई ऊर्जा की तलाश और नएपन के एहसास से नया जोश भरने की कोशिश है, ताकि हाल में कुछ अरसे से गहरी होती मायूसी की काली घटाएं कुछ छटें, वरना ये सभी चेहरे लंबे समय से कुछ सिकन लिए नजर आ रहे थे। और हाल के विधानसभा चुनावों, खासकर पश्चिम बंगाल चुनावों के नतीजों और कोविड-19 की दूसरी लहर की तबाही के बाद कुछ तो खुलकर दूसरी ओर ताक-झांक करने लगे थे।
दरअसल, अरसे से न सिर्फ मंत्री पद के आकांक्षियों में बेचैनी बढ़ रही थी, बल्कि विपक्ष भी इसे मुद्दा बनाने लगा था। सूत्रों की मानें तो इसकी तैयारी या कहिए इसका इंतजार तब से चल रहा था, जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस से 22 विधायकों के साथ ज्योतिरादित्य सिंधिया की आमद हुई। लेकिन मध्य प्रदेश में पाला बदल कोविड की पहली लहर की शुरुआत में हुआ था।
मई 2019 में दूसरी बार भारी बहुमत से जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपेक्षाकृत छोटी मंत्रिपरिषद बनाकर भी इसकी गुंजाइश छोड़ी थी। लेकिन उसी साल के अंत में पहले महाराष्ट्र, फिर हरियाणा विधानसभा चुनावों में माकूल विजय न मिलने से मायूसी आई। उसके बाद 2020 में तो कोविड का दौर शुरू हो गया। फिर नवंबर में बिहार चुनावों ने नई समस्या पैदा कर दी। चुनाव के ऐन पहले लोजपा नेता रामविलास पासवान की मौत से एक नई सियासत ने जन्म लिया। उनके बेटे चिराग पासवान ने एनडीए में रहते हुए अलग चुनाव लड़ने का फैसला किया, जिसे जदयू और नीतीश कुमार को कमजोर करने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की शह माना गया। इसका नतीजा हुआ कि जदयू सबसे छोटी पार्टी बन गई, लेकिन चिराग का मामला फंस गया। नीतीश ने तेवर कड़े किए तो अब लोजपा के छह में से पांच सांसद चिराग को अकेला छोड़ आए और उनके चाचा पशुपति कुमार पारस का भाग्य चमका। अब वे केंद्रीय मंत्री हैं। हालांकि चिराग मामला अदालत में ले जाने की चेतावनी दे चुके हैं। उधर, जदयू के आरसीपी सिंह भी मंत्रिमंडल में अपनी हिस्सेदारी निभाने पहुंच गए हैं।
यह भी बदले हालात की बानगी है, क्योंकि 2019 में जदयू ने केंद्र में मंत्रिपद का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। लेकिन तब मोदी अपराजेय लग रहे थे। 2014 से ही मोदी और अब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की जोड़ी का रुतबा चढ़ता गया था और 2019 के बाद तो भाजपा का मतलब लगभग यही जोड़ी हो गई थी। केंद्र में कुछेक को छोड़कर मंत्रियों के बारे में भी यही आम धारणा बन गई थी कि वे तो बस नाम के हैं। इस दौरान देश में अब तक का सबसे भारी पीएमओ बना। कहा जाने लगा कि लगभग सभी मंत्रालयों के फैसलों में पीएमओ की मंजूरी ही अंतिम होती है। मंत्रियों का कोई खास मतलब नहीं रह गया है। केंद्रीकरण के इस रवैए से एनडीए के सहयोगी भी साथ छोड़ते चले गए। पहले शिवसेना और फिर कृषि कानूनों के विरोध में अकाली दल के एनडीए से निकलने के बाद केंद्र में रिपब्लिकन पार्टी के रामदास आठवले ही सहयोगी दल के इकलौते मंत्री रह गए थे।
मंत्री पद छिनाः (बाएं से दाएं) रविशंकर प्रसाद, रतन कटारिया, संतोष गंगवार, बाबुल सुप्रियो, देबश्री चौधरी, थावरचंद गहलोत, सदानंद गौड़ा, रमेश पोखरियाल, प्रकाश जावडेकर, संजय धोत्रे, डॉ. हर्षवर्धन और प्रताप सारंगी
संकट बढ़ा और सवाल मुखर होने लगे तो विभिन्न क्षेत्रों और सामजिक तबकों तथा समुदायों की भागीदारी का ख्याल आया। अपनी पार्टी के नए आकांक्षी चेहरों के अलावा सहयोगी भी याद आए। मुश्किल यह भी है कि सहयोगी थोड़े ही बचे हैं, इसलिए सबको बांधे रखना मजबूरी है। 2024 के लोकसभा चुनावों तक लगातार अहम राज्यों में चुनाव हैं। सबसे अहम तो अगले साल के शुरू में उत्तर प्रदेश का चुनाव है, जिसके मद्देनजर अपना दल की अनुप्रिया पटेल को फिर मंत्री बनने का मौका मिला, वरना खबरें थीं कि उनकी सपा के साथ गलबहियां गाढ़ी हो रही हैं। पंचायत सदस्यों के चुनाव में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में सपा और अपना दल ने जीत दर्ज कर अपनी अहमियत बता दी थी।
कुछ इसी तरह ज्योतिरादित्य सिंधिया की आखिर बारी आई, वरना उनकी भौंहें टेढ़ी होने की कुछ अटकलें गूंजने लगी थीं। अरसे से किनारे बैठे महाराष्ट्र के नारायण राणे का भी भाग्य चमका, जो शिवसेना और कांग्रेस से होकर भाजपा में आए थे। वहां कांग्रेस से आए नेताओं में कुछ कसमसाहट की खबरें आने लगी थीं। असम के पूर्व मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल को भी दिल्ली बुलाना पड़ा क्योंकि राज्य की कमान हिमंत बिस्वा सरमा को सौंपनी पड़ी। सरमा कांग्रेस से पार्टी में पिछले चुनावों में आए थे और उन्होंने अपनी महत्वाकांक्षा छुपा नहीं रखी थी।
इस विस्तार में क्षेत्रीय और जाति-समुदाय के गणित का भी ध्यान रखा गया है। समीकरण साधने की इस कोशिश में बेचारे बलि चढ़े भाजपा के ऐसे नेता जिनके जाने से खास फर्क नहीं पड़ने वाला। जिन 12 को विदा किया गया, उनमें थावरचंद गहलोत को कर्नाटक का राज्यपाल बनाकर संतुष्ट किया गया, ताकि दलित वोटों का खेल न बिगड़े। बाकी रविशंकर प्रसाद, डॉ. हर्षवर्धन, रमेश पोखरियाल निशंक, प्रकाश जावडेकर, बाबुल सुप्रियो से खास फर्क नहीं पड़ने वाला। बाबुल सुप्रियो हाल के विधानसभा चुनावों में हार भी गए थे। उन्होंने ट्वीट करके अपने दुख का इजहार भी किया। उनकी जगह मेदिनीपुर से सुभाष सरकार, बनगांव से शांतनु ठाकुर, जलपाईगुड़ी से जॉन बारला और नीतीश प्रामानिक को मंत्री बनाकर बंगाल में पार्टी को मजबूती देने की कोशिश दिखती है। हर्षवर्धन को कोविड की दूसरी लहर में गड़बड़झाले का शिकार बताया जा रहा है।
अब दो बातों पर खास नजर रहेगी। एक, इससे मोदी सरकार को संकट से निपटने में कितनी मदद मिलती है। और दूसरे, मंत्रियों को काम करने की ज्यादा छूट मिलेगी या पीएमओ ही हावी रहेगा। आलोचक यह भी कह रहे हैं कि जब आर्थिक स्थितियां प्रतिकूल हैं, तब बड़े मंत्रिमंडल का खर्च बढ़ाना कौन-सी समझदारी है। यही नहीं, नया कोऑपरेटिव मंत्रालय भी बना दिया गया। बहरहाल, इसके सियासी नफा-नुकसान अगले साल होने वाले चुनाव में ही देखने को मिल सकते हैं।