होली के दस दिन बाद छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने खून की होली खेली। 21 मार्च को सुकमा जिले के कसालपाड़ इलाके में 17 जवान शहीद हो गए। 15 पुलिसकर्मी घायल भी हुए। यह पहली बार नहीं है कि नक्सलियों के हाथों जवान मात खा गए। ताड़मेटला की घटना हो या फिर बुरकापाल की, नक्सलियों के जाल में जवान फंसे। आखिर ऐसा क्यों होता है और पुलिस के रणनीतिकार नई रणनीति क्यों नहीं बना पा रहे हैं? डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड (डीआरजी), एसटीएफ और कोबरा के लगभग 600 जवान कसालपाड़ में 200 से 250 नक्सलियों से मुकाबले के लिए गए थे, पर बाजी उलटी पड़ गई। नक्सलियों से ज्यादा जवान मारे गए। बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक (आइजी) सुंदरराज ने एक बयान जारी कर कम से कम आठ नक्सलियों के मारे जाने का दावा किया, वहीं घटना के दो दिन बाद 23 मार्च को सीपीआइ (माओवादी) के दक्षिण सब जोनल ब्यूरो ने प्रेस नोट जारी कर अपने तीन साथियों के मारे जाने की जानकारी दी। बाकायदा शव और अंत्येष्टि की तस्वीरें भी जारी की गईं।
बस्तर के आइजी सुंदरराज का कहना है कि सुकमा जिले के चिंतागुफा-बुरकापाल क्षेत्र में मिनपा-अलमागुड़ा-कोरजडोंगरी के जंगलों में नक्सलियों की मौजूदगी की जानकारी होने पर चिंतागुफा और बुरकापाल कैंप से डीआरजी, एसटीएफ और कोबरा के जवान ऑपरेशन के लिए गए थे। यह वही इलाका है, जहां नक्सली कई वारदातों को अंजाम दे चुके हैं और सीआरपीएफ को नुकसान उठाना पड़ा है। यह अलग बात है कि इस बार डीआरजी के जवान ज्यादा थे। डीआरजी सरेंडर कर चुके नक्सलियों और स्थानीय युवाओं की बटालियन है, जिन्हें नक्सलियों की रणनीति और लड़ाई के तरीके मालूम हैं, साथ में स्थानीय बोली भी उन्हें आती है। फिर भी पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) के सामने वे कमजोर पड़ गए। इसका सबसे बड़ा कारण भौगोलिक स्थिति है। नक्सलियों ने ऊंचाई से जवानों पर वार किया, जिससे वे संभल नहीं पाए। सर्च ऑपरेशन में गए जवान दो हिस्सों में बंटने के कारण एक टुकड़ी को नुकसान नहीं हुआ। डीआरजी की टुकड़ी पीएलजीए के कमांडर हिड़मा को घेर कर मारने के चक्कर में खुद ही नक्सलियों के जाल में फंस गई। 17 जवान शहीद और करीब 15 घायल हो गए। नक्सली एके-47 और इंसास जैसे हथियार भी ले गए।
सुकमा में शहीद जवानों को श्रद्धांजलि देने के बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पत्रकारों से कहा, “जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। नक्सली समस्या समाप्त होने तक लड़ाई जारी रहेगी और राज्य से नक्सलियों को जड़ से उखाड़कर फेंका जाएगा।” भूपेश बघेल के राज में भाजपा विधायक भीमा मांडवी की हत्या को छोड़ दें, तो यह पहली बड़ी नक्सली वारदात है। आदिवासियों के लिए जनहित के कई कदम उठाकर नक्सल हिंसा पर रोक की रणनीति पर चल रही भूपेश सरकार के लिए यह घटना बड़ा झटका है। कहा जा रहा है कि फोर्स नक्सलियों के मांद में नहीं घुस रही थी, तब तक शांति थी, लेकिन जैसे ही जवान जंगलों में घुसे, हादसा हो गया।
इस हादसे के बाद जवानों का मनोबल बढ़ाने के लिए भूपेश सरकार ने 16 पुलिस कर्मचारियों को आउट ऑफ टर्न प्रमोशन दिया है। लेकिन एक बात साफ है कि नक्सलियों के खात्मे और जवानों की शहादत को रोकने के लिए ठोस और स्पष्ट नीति बनानी होगी। पिछली रमन सिंह की सरकार ने नक्सलियों के सफाए के लिए कदम उठाए और बस्तर में भारी संख्या में केंद्रीय बल तैनात किए, लेकिन छत्तीसगढ़ के माथे से नक्सलवाद का कलंक नहीं मिट पाया। कांग्रेस की सरकार पर अब निगाहें टिकी हैं।
इसका एक बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस के दिग्गज नेता और कार्यकर्ता नक्सली हिंसा के सामूहिक शिकार हो चुके हैं, पर एक बात साफ है कि सरकार किसी की भी हो, राजनीति की जगह कदम राज्य हित में उठाने होंगे। नक्सलियों से मुकाबले के लिए भौगोलिक परिस्थिति के अनुसार रणनीति में बदलाव कर जुझारू जवानों की फौज तैयार करनी होगी, जिसकी कमी अभी राज्य में दिखाई देती है। हर नक्सली घटना के बाद हम पानी में लाठी पीटते रह जाते हैं और नेताओं-अफसरों के बयान तक मामला सिमटकर रह जाता है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि गर्मी के दिनों में नक्सली ज्यादा और बड़ी वारदात को अंजाम देते हैं।