वजह चाहे कोई भी रही हो, पिछली बार छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री का चेहरा रहे टी एस सिंहदेव सरगुजा से 14 की 14 सीटें जीतकर ले आए थे लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बन पाए थे। तो इस बार जनता ने पूरी 14 की 14 सीटें भाजपा की झोली में पटक दीं। इतना ही नहीं, जनता ने भाजपा के झंडे पर पहली बार चुनाव लड़े राजेश अग्रवाल को चुना और सिंहदेव को हार का चेहरा दिखा दिया। सात बार के कांग्रेस विधायक रवींद्र चौबे को साजा विधानसभा सीट से हार का सामने करना पड़ा। रवींद्र के पिता-माता भी विधायक रहे हैं। उन्हें हराने वाले कोई और नहीं बल्कि पहली बार चुनाव मैदान में उतरे भाजपा के प्रत्याशी ईश्वर साहू हैं। साहू फटी हुई चप्पल और फटे कपड़े पहनकर साइकिल से चुनाव प्रचार करते रहे और लोगो को दंगों में अपने बेटे को खोने का दर्द बताते रहे।
अग्रवाल, साहू और उनके जैसे तमाम लोगों की जीत ने सारे एग्जिट पोल के दावे को झूठा साबित कर दिया जो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बरकरार रहने की बात कह रहे थे। कांग्रेस चुनाव हार गई।
पिछले चुनाव में 15 सीटें बटोर न पाने वाली भाजपा की वापसी की कहानी चौंकाने वाली है क्योंकि पिछले पांच वर्षो में प्रदेश संगठन ने बड़े मुद्दों को उस तरह से नहीं उठाया जैसे उठाया जाना चाहिए था। पार्टी पांच साल तक मैदान और सड़क से गायब रही। उसकी सारी कवायद प्रेस विज्ञप्ति और ट्वीट तक सीमित रह गई थी।
जानकारों का कहना है कि विपक्ष की सक्रियता का आगाज लगभग एक साल पहले प्रदेश अध्यक्ष के बदलाव से हुआ। यह बात और है कि एक साल का ज्यादातर समय आपसी झगड़ों और गुटबाजी के चलते निपट गया और भाजपा कोई बड़ा आंदोलन खड़ा कर पाने में सफलता हासिल नहीं कर पाई। फिर भी एक बात तो साफ है कि प्रदेश अध्यक्ष के बदलाव के साथ भाजपा जातिगत और सामाजिक समीकरण का फॉर्मूला अपने लोगों तक पहुंचाने में कामयाब रही। धीरे-धीरे पार्टी दिखने लगी और सरकार के खिलाफ स्वाभाविक एंटी-इंकम्बेसी फैक्टर झलकने लगा। दो महीने पहले तक भाजपा चुनाव में कहीं भी नहीं दिखाई दे रही थी।
अपने प्रदेश इकाई की कमजोरी को भांपते ही केंद्रीय नेतृत्व सक्रिय हो गया और छत्तीसगढ़ भाजपा की कमान गृहमंत्री अमित शाह ने अपने हाथों में ले ली। ओम माथुर और मनसुख मंडाविया प्रदेश संगठन से जुड़ कर संगठन को मथते रहे। साथ ही साथ सामाजिक और जातिगत समीकरणों के तहत टिकट बांटने के फॉर्मूला पर काम किया जाने लगा।
2003 से 2023 तक जितने भी विधानसभा चुनाव हुए, उनमें 2013 के ट्रेंड को छोड़कर सभी में एक समान बात नजर आई। बस्तर और सरगुजा क्षेत्र, जहां कांग्रेस को पिछले चुनाव में सबसे ज्यादा बढ़त मिली वहां वोटिंग एकतरफा हुई। इस बार भी यह ट्रेंड बरकरार रहा, पर बाजी पलट गई। भाजपा को बस्तर की 12 सीटों में से 8 जबकि सरगुजा की 14 में से 14 सीटें पार्टी के खाते में आ गईं। सरगुजा का परिणाम इसलिए चौंकाने वाला है क्योंकि पिछली बार 14 की 14 सीटें कांग्रेस के पास थीं।
बहरहाल, नए और पुराने प्रत्याशियों का तालमेल कायम कर भाजपा ने सामाजिक और जातिगत समीकरणों के तहत टिकट बांटे जिसका सीधा फायदा पार्टी को मिला- 47 नए प्रत्याशी उतारे गए, जिनमें से 30 जीतकर आए।
पार्टी ने तो मानो साहू समाज को एक तरीके से हाइजैक ही कर लिया था। बता दें कि प्रदेश की राजनीति में ओबीसी सबसे बड़ा वोट बैंक माना जाता है। यहां की कुल जनसंख्या का 52 फीसदी आेबीसी वर्ग से है। इसमें सबसे बड़ी संख्या साहू समाज की है। भाजपा ने खुल कर 10 टिकट साहू समाज को दिए। यही वजह है कि चुनाव में छत्तीसगढ़ का साहू समाज भाजपा के पक्ष में एकतरफा दिखा।
चुनाव के लगभग एक महीने पहले बघेल सरकार के खिलाफ एंटी-इन्कंबेंसी नजर आने लगी। सरकार के नौ मंत्री भी हार गए
इस बीच पार्टी ने कांग्रेस से पहले अपना घोषणापत्र जारी किया और महतारी वंदन योजना लेकर लोगों के घर पहुंचने की शुरुआत की। पार्टी के कार्यकर्ता फॉर्म लेकर घर-घर पहुंचने लगे और खासकर महिलाएं इस फॉर्म का इंतजार करने लगीं।
इस बीच कांग्रेस भी अपने असलहों के साथ मैदान में उतर आई। भूपेश सरकार ने 2018 में पार्टी द्वारा किए गए किसानों की कर्जमाफी का भरोसा एक बार फिर से लोगों को दिया। किसानों को धान की कीमत देने का वादा भाजपा ने भी कर दिया था, तो कांग्रेस ने बोनस देने की भी घोषणा कर दी और बार-बार कर्जमाफी की बात दोहराने लगी।
इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य कद्दावर नेताओं ने भूपेश सरकार को भ्रष्टाचार के आरोपों में घेरने की कोशिश की। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पर 508 करोड़ रुपये महादेव सट्टा ऐप घोटाले से लेने के आरोप खुल कर लगे। ईडी की टीम ने छापा मारा। कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इसका जवाब देने में कमजोर पड़ गया। चुनाव के लगभग एक महीने पहले सरकार के खिलाफ लोगों का गुस्सा दिखने लगा और एंटी-इंकम्बेसी नजर आने लगी। शायद यही वजह रही कि सरकार के नौ मंत्री भी हार गए।
इस बीच दिवाली के दिन यानी मतदान से केवल पांच दिन पहले कांग्रेस को घबराकर 15 हजार रुपये सालाना देने की घोषणा करनी पड़ी। छत्तीसगढ़ और यहां के परिवेश को समझने वाले लोग भलीभांति जानते हैं कि यहां गांवों में त्योहार करीब सप्ताह भर तक चलता है। इसलिए कांग्रेस के 15 हजार सालाना देने वाली घोषणा जनता के कानों तक बहुत हद तक पहुंच ही नहीं पाई। इस बीच भाजपा के 12 हजार रुपये देने की घोषणा पर महिलाओं ने मुहर लगा दी। शायद यही वजह है कि महिलाओं का वोटिंग प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा रहा और इसका सीधा फायदा भाजपा को मिला।
चुनाव परिणाम में भाजपा को बहुमत प्राप्त होने के बाद छत्तीसगढ़ में सरकार बनाने को लेकर हलचल तेज हो गई है। भावी मुख्यमंत्री के लिए चल रही माथापच्ची के बीच वैसे तो डॉ. रमन सिंह के नाम की चर्चा पहले से है, लेकिन माना जा रहा है कि इस बार कुछ नाम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से भी आ सकते हैं। जानकारों का मानना है कि यह नाम चौंकाने वाला साबित होगा। दूसरी ओर कांग्रेस के खेमे में सन्नाटा पसरा हुआ है और कई नेताओं के खिलाफ जांच और गिरफ्तारी की तलवार लटक रही है।