हम लोग आजकल अप्रत्याशित रूप से नागरिकता के सवाल में उलझ गए हैं। मानवाधिकार संगठनों, कुछ समुदायों, कई प्रदेशों, अनेक विश्वविद्यालयों और सभी विरोधी दलों में इसे लेकर गंभीर आशंकाएं और एतराज हैं। पहले संसद के दोनों सदनों में और फिर मीडिया में वाद-प्रतिवाद हुआ और अब देश की राजधानी समेत अनेक शहरों में हर दूसरे-तीसरे दिन सभा-प्रदर्शन-धरना का क्रम बन गया है। नागरिकता कानून में संशोधन और नागरिक रजिस्टर के विरोधियों द्वारा छिटपुट हिंसा, जुलूस और धारा 144 तोड़कर गिरफ्तारियों की खबरें हैं। शासन की तरफ से छात्रावास और घरों से गिरफ्तारियों, लाठीचार्ज, आंसू गैस और गोलीबारी का सिलसिला शुरू है।
सत्ताधीश इसे विरोधी दलों की तरफ से फैलाई गई अफवाहों का नतीजा मानते हुए सभी से नए कानून को पढ़ने की अपील कर चुके हैं। खुलकर कांग्रेस, ‘अर्बन नक्सल’, अलगाववादियों और वामपंथी बुद्धिजीवियों को असत्य प्रचार का दोषी बताया जा रहा है। नागरिकता संबंधी सरकारी विमर्श को ‘संविधान विरोधी’ और ‘देश-विभाजक’ बताने वाले व्यक्ति और संगठन संशोधित कानून को वापस लेने और नागरिक रजिस्टर योजना को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। इनमें संविधान विशेषज्ञ, समाज वैज्ञानिक, सांसद से लेकर छात्रसंघ और अध्यापक मंच भी शामिल हैं। इसके खिलाफ गृह मंत्री से शुरू होकर आरएसएस प्रमुख और प्रधानमंत्री के सामने आने से मुद्दे का वजन बढ़ गया है। सड़कों पर प्रतिरोध बढ़ रहा है। आर्थिक गतिरोध, महंगाई, रोजगारहीनता, देश-विदेश में जमा काला धन और बिगड़ते प्रशासन के बीच इस मुद्दे का सभी प्रश्नों को पीछे छोड़ देना सबके लिए अचरज की बात है। यह कैसे हो गया?
देशव्यापी बेचैनी के तीन मुख्य कारण
वस्तुत: इस उथल-पुथल के तीन बड़े कारण हैं: केंद्र सरकार का तरीका, असम के लिए बने नागरिक रजिस्टर के नतीजे और सुप्रीम कोर्ट द्वारा तत्काल समीक्षा की प्रार्थनाओं की अनदेखी। इस हलचल के मूल में केंद्र सरकार द्वारा संसद के दोनों सदनों में ‘नागरिकता (संशोधन) कानून’ को बहुत ही आक्रामक अंदाज में पेश करना और पारित कराना और इसके बाद एक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने के इरादे की एकतरफा घोषणा करना है।
केंद्रीय गृह मंत्री के अनुसार, इन फैसलों से दो पुराने जख्मों पर मरहम लगेगा। एक, पड़ोसी तीन इस्लामी देशों- पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में प्रताड़ित धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत में नागरिकता देने की व्यवस्था स्पष्ट होगी। इनमें से बहुत से लोग अरसे से भारत में ही बगैर किसी संवैधानिक आधार के जहां-तहां भटक रहे हैं। दूसरे, देश के हर हिस्से में फैल गए घुसपैठियों की पहचान कर उन्हें निष्कासित करने का टलता काम पूरा करके देश की सुरक्षा को मजबूत किया जाएगा। वे जोर देकर बार-बार जोड़ते हैं कि इन दोनों उपायों से किसी भी भारतीय नागरिक को कोई परेशानी नहीं होगी। सिर्फ गैर-कानूनी घुसपैठियों को पहचाना और बाहर किया जाएगा। यह हमारी सभ्यता और संस्कृति के अनुकूल है।
लेकिन इस दावे को आम लोग शक की निगाह से देख रहे हैं, क्योंकि यह हमारे सिर्फ इस्लामी पड़ोसी देशों में गैर-मुस्लिम धर्मावलंबियों को उत्पीड़न का शिकार मानता है। इसमें बौद्ध प्रधान श्रीलंका में प्रताड़ित हो रहे भारतीय मूल के तमिल भाषी हिंदू, मुसलमान और ईसाई की अनदेखी है। फिर बौद्ध देश म्यांमार में पीड़ित रोहिंग्या छोड़ दिए गए हैं। बौद्ध देश भूटान से निष्कासित हिंदू उपेक्षित हैं। चीन में धार्मिक कारणों से प्रताड़ित तिब्बती बौद्धों और सिक्यांग के मुस्लिम उग्यूओरों पर भी ध्यान नहीं दिया गया है। पड़ोसी देशों में हो रहे अंतर्धार्मिक हिंसा (शिया-सुन्नी-अहमदिया-कादियानी आदि), राजनैतिक उत्पीड़न (पख्तून, बलूच आदि) और सांस्कृतिक भेदभाव (स्थानीय बनाम बंटवारे के कारण आए हुए ‘मुहाजिर’, ‘बिहारी मुसलमान’ आदि) का सच भुला दिया गया है। कहां ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की व्यापकता और कहां मात्र तीन पड़ोसी देशों के गैर-मुस्लिम स्त्री-पुरुषों को ही देश की करुणा का अधिकारी मानने की संकीर्णता!
दूसरे, सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में असम में बनाए गए ‘नागरिक रजिस्टर’ के नतीजों से पैदा सच तो न उगलते बना, न निगलते बना। सबसे पहले इससे 1985 का असम समझौता रद्द हो गया क्योंकि अब ‘अवैध प्रवासी’ की परिभाषा में 1971 के बजाय 2014 की समय सीमा बन गई है। इसी के साथ इसने धर्म (हिंदू-मुस्लिम) के बजाय भाषा की दरार– असमिया बनाम बंगाली को चौड़ा कर दिया है। यह अनुमान था कि इससे कई लाख बांग्लादेशी मुसलमान पहचान कर बाहर कर दिए जाएंगे। लेकिन वास्तव में ‘अवैध’ लोगों में बंग्लाभाषी हिंदुओं का अनुपात दोगुना था और आदिवासी भी कई लाख निकल आए। इनमें अधिकांश पीढ़ियों से गांवों-शहरों की सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक जिंदगी में घुले मिले। ये लोग शिक्षक से लेकर किसान और सैनिक के रूप में राष्ट्रनिर्माण में जुटे रहे हैं। सिर्फ एक प्रदेश में यह सच निकला तो पूरे देश का रजिस्टर बनाने का क्या नतीजा निकलेगा?
इससे भौचक्की असम सरकार ने ‘गलती’ से ‘छूट गए’ लाखों नागरिकों के दावों की सुनवाई के लिए एक सरकारी समीक्षा आयोग बनाकर तनाव पर काबू पाया है। असम आंदोलन के नायकों ने तो यहां तक माना कि यह सच हमको चौंकानेवाला है और यह मानना पड़ेगा कि ‘अवैध’ विदेशियों के बारे में हमारा अनुमान गलत था। उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि इस रजिस्टर से बाहर पाए गए 19 लाख हिंदुओं-मुसलमानों-आदिवासियों को असम में नहीं बसने देंगे अन्यथा हम पड़ोसी त्रिपुरा की तरह अपने ही प्रदेश में बांग्लाभाषियों के मुकाबले अल्पसंख्यक हो जाएंगे। इसकी प्रतिक्रिया में बंगाल के लोगों, विशेषकर तृणमूल सरकार के स्वर और संदेश ने एक नया संकट पैदा कर दिया है। केंद्र सरकार ने इसके इलाज के लिए रोग से बुरी दवाई के रूप में ब्रिटिश राज में शुरू और नेहरू-इंदिरा राज तक जारी ‘इनर लाइन परमिट’ को पूर्वोत्तर के सात राज्यों में बनाए रखने को मंजूरी दे दी है। इसमें संपूर्ण अरुणाचल, मणिपुर, नगालैंड, मिजोरम, मेघालय (शिलॉन्ग को छोड़कर), 70 फीसदी त्रिपुरा और असम के तीन स्वायत्त परिषद और बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद का भूक्षेत्र शामिल किया गया है। यह तो जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 निरस्त करने के कारणों के बिलकुल विपरीत किया गया है। ‘एक देश–एक विधान’ के लिए 5 अगस्त 2019 से जम्मू-कश्मीर प्रदेश के तीन टुकड़े और कश्मीर में ‘इमरजेंसी’ जैसी दशा बनाम 11 दिसंबर 2019 के आगे पूर्वोत्तर के सात प्रदेशों में ‘इनर लाइन परमिट’ व्यवस्था की निरंतरता को मंजूरी से केंद्र सरकार को ‘बिना विचारे जो करे सो पाछे पछताय’ की दशा में फंसा देखा जा सकता है।
तीसरे, नागरिकता से जुड़े कानून संशोधन के बारे में संसद के फैसले की संवैधानिकता को लेकर पैदा देशव्यापी विवाद के बारे में कई मंचों की ओर से सुप्रीम कोर्ट से गुहार की गई। अगर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सुनवाई की दरख्वास्त को स्वीकार कर संबंधित पक्षों को शीघ्र अपना पक्ष रखने के लिए निर्देश जारी कर देते तो जन-असंतोष की आग पर पानी पड़ जाता। लेकिन सुनवाई के बारे में वादियों-प्रतिवादियों को कई सप्ताह बाद जनवरी में आने को कह दिया गया। विधायिका और कार्यपालिका के फैसलों की समीक्षा में न्यायपालिका की तत्परता से प्राय: समाज में शांति बनी रहती है। लेकिन न्यायपालिका द्वारा सुनवाई में देरी के बाद नाराजगी को सड़क पर प्रकट करने की प्रासंगिकता स्वयंसिद्ध हो गई।
‘नागरिकता’ की महत्ता
आखिर नागरिकता को लेकर इतनी चिंताएं क्यों हैं? क्योंकि आधुनिक दुनिया में नागरिकता ‘राज्य’, में विशेषकर लोकतंत्रिक देशों में, जीवन का अधिकार, सुरक्षा और सम्मान, राजनैतिक हिस्सेदारी, प्रतिनिधित्व और न्याय का हक और आश्वासन होता है। देश के नागरिक स्त्री-पुरुष की संतति, राष्ट्र-राज्य के भौगोलिक क्षेत्र में जन्म, एक निश्चित अवधि तक विधिसम्मत निवास और स्थानीय नागरिक स्त्री-पुरुष से विवाह, नागारिकता प्राप्त करने के चार प्रचलित आधार हैं। नागरिकता के अभाव में स्त्री-पुरुषों के प्रति राष्ट्र-राज्य की कोई संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं होती। प्राय: उपेक्षा और उदासीनता होती है, इसीलिए ‘नागरिकता’ आधुनिक समाज में व्यक्ति का सबसे मूल्यवान परिचय होता है। समकालीन दुनिया में नागरिकता का कुल साढ़े तीन सौ बरस का इतिहास कहा जा सकता है। इसमें शुरू में मात्र राजनैतिक तत्व था। फिर क्रमश: आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक पक्षों का विकास हुआ है। अब कई देशों में ‘पर्यावरणीय अधिकार’ भी नागरिकता की परिभाषा में जुड़ने लगे हैं।
जर्मन शहर वेस्टफेलिया में 1648 में युद्धग्रस्त यूरोपीय शासकों के बीच हुए एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के आधार पर अस्तित्व में आए राष्ट्र-राज्यों के ताने-बाने से आधुनिक विश्व-व्यवस्था की पिछले साढ़े तीन सौ बरसों में रचना की गई है और प्रत्येक राष्ट्र-राज्य की बुनियाद में ‘नागरिकता’ की अवधारणा का केंद्रीय महत्व माना गया है। दूसरी तरफ ‘नागरिकता’ की परिभाषा किसी भी व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं और गरिमा के संदर्भ में नागरिकता को मान्यता देने वाले राष्ट्र-राज्य के सम्मुख कुछ निश्चित राजनैतिक, आर्थिक और राष्ट्र के आधार से ही बंधी रहती आई है। इसमें दूसरे विश्वयुद्ध तक भाषा, धर्म और नस्लभेद का बोलबाला रह चुका है।
यूरोप के अधिकांश देशों और संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिकता के दायरे में नस्लवाद था और सिर्फ यूरोपीय मूल के स्त्री-पुरुषों को नागरिकता का अधिकार था। अमेरिका में उन्नीसवीं शताब्दी के गृहयुद्ध तक अफ्रीकी मूल के अश्वेतों को नागरिकता के अधिकार नहीं थे। 1917 में कम्युनिस्ट क्रांति के बाद अस्तित्व में आए सोवियत संघ के भौगोलिक दायरे के सभी निवासियों को बिना किसी भेदभाव के नागरिकता का अधिकार दिया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के दुखद अनुभवों के बाद विश्वशांति के लिए 1945 में स्थापित संयुक्त राष्ट्रसंघ की पहल पर दुनिया के लोकतांत्रिक देशों ने धार्मिक और नस्ली कट्टरता को खारिज करने वाले एक मानव अधिकार चार्टर को स्वीकार किया और इस बारे में भारत नव-स्वाधीन देशों में अग्रणी रहा है।
स्वाधीन भारत में नागरिकता का विमर्श
यह याद करने लायक है कि स्वराज के बाद अस्तित्व में आए भारतीय गणतंत्र के 26 जनवरी 1950 से अपनाए गए संविधान में नागरिकता के बारे में भाग दो में धारा 5 से 11 तक सभी नियम दिए गए हैं। हमारे संविधान के अनुच्छेद 5 में नागरिकता के तीन स्पष्ट आधार लिखे गए थे। ‘इस संविधान के प्रारंभ पर प्रत्येक व्यक्ति जिसका भारत के अधिक्षेत्र में अधिवास है और– 1. जो भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा था, 2. जिसके माता या पिता में से कोई भारत के राज्यक्षेत्र में जन्मा था, या 3. जो ऐसे प्रारंभ से ठीक पहले कम से कम पांच बरस तक भारत के राज्य-क्षेत्र में मामूली तौर से निवासी रहा है। इसके साथ ही धारा 6 में पाकिस्तान से भारत आनेवालों को नागरिकता देने और धारा 7 में भारत से पाकिस्तान जाने वालों की नागरिकता की समाप्ति के नियम हैं। इसी के समांतर धारा 8 में विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को नागरिकता देने और धारा 9 में स्वेच्छा से दूसरे देशों की नागरिकता लेने वाले भारतीयों की नागरिकता रद्द करने के नियम हैं। धारा 10 में नागरिकता की निरंतरता के आधारों का निर्देश है। धारा 11 स्पष्ट शब्दों में भविष्य में देश की नागारिकता के नियमों के बारे में संसद को ही सर्वेसर्वा बनाया गया। इसके आगे संविधान के तीसरे भाग में नागरिकों के मूल अधिकारों और भाग 4 में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों को सूचीबद्ध किया गया है। इन सब मान्यताओं को भारतीय नागरिकता कानून 1955 ने पूर्णता प्रदान की।
नागरिकता संशोधन कानून, 2019 और प्रस्तावित ‘नागरिक रजिस्टर’ के विरोधी इंगित कर रहे हैं कि ये दोनों कदम हमारे संविधान के इन दोनों भागों में अन्तर्निहित मूल्यों का निषेध और अवलेहना करने वाले हैं क्योंकि नागरिकता प्रदान करने में धर्म के आधार पर स्वीकारना या इनकार करना दोनों गलत होगा। हमारा संविधान मानवतामूलक है, सांप्रदायिकता विरोधी है। इसलिए पीड़ित हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी और यहूदी आदि को शरण देने में कोई बुराई नहीं है लेकिन मुसलमान होने के नाते किसी को शरण नहीं देना संविधान का अपमान होगा। भारत मुस्लिम-निरपेक्ष देश माना जाएगा जबकि हमारी बुनियाद सर्वधर्म समभाव है।
आगे कैसे बढ़ें?
गृह मंत्री अमित शाह ने इस प्रसंग में यह दावा किया है कि 1947 में देश का धर्म के आधार पर बंटवारा कांग्रेस की सहमति से ही हुआ था, इसलिए मुसलमानों के लिए दावे की सही जगह पाकिस्तान है। इस प्रसंग में यह जोड़ना अनुचित नहीं होगा कि भारत को हिंदू-मुसलमान के आधार पर बांटने की कोशिश को मुहम्मद अली जिन्ना के अलावा मुख्यत: हिंदू महासभा का समर्थन था। इन दोनों की 1937 के बाद राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में क्या भूमिका थी? दूसरी तरफ, सरहदी गांधी पख्तून नेता खान अब्दुल गफ्फार खान, अनुसूचित जाति फेडरेशन के मार्गदर्शक डॉ. आंबेडकर और ‘भारत छोडो आंदोलन’ के नायक और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया की खुली असहमति थी। स्वयं गांधी जी ने नोआखाली में हिंदुओं की और बिहार, दिल्ली और मेवात में मुसलमानों की रक्षा की पहल की। हिंदुओं-मुसलमानों-सिखों सभी को अपनी मातृभूमि को छोड़ने से रोका। क्या इसका आशय यह लगाएं कि 1947 के साम्राज्यवादी-सांप्रदायिक बंटवारे के बाद मुसलमानों के बहुमत वाले हिस्से के भू-भाग में पाकिस्तान बना है, इसलिए बचे भू-भाग पर बने भारत में उनका संविधान-सम्मत सहजीवन और नागरिकता का दावा नहीं रहा। इस शेष क्षेत्र पर सिर्फ गैर-मुस्लिमों का दावा हो गया है? इसका सही जवाब अमित शाह और उनकी सोच से परिचित लोगों से ही मिलेगा और उन्हें देना चाहिए।
नागरिकता संबंधी दोहरी सरकारी पहल के विरोधियों की दृष्टि में स्वाधीनोत्तर भारत की बुनियाद के बारे में यह समझ सही नहीं है। जिन्ना, जमींदारों, उद्योगपतियों और ब्रिटिश राज के साझा षड्यंत्र से उत्तर-पश्चिमी और पूर्वी ब्रिटिश भारत के मुस्लिम बहुमत वाले हिस्सों को कृत्रिम तरीके से जोड़कर लाखों निर्दोषों की हत्या और विस्थापन की बर्बरता के जरिए एक इस्लामी देश के रूप में पाकिस्तान बना। लेकिन 24 बरस के अंदर ही तानाशाही और लोकतंत्र के बीच झूलते हुए वह बांग्ला-उर्दू के इर्द-गिर्द एक सर्वनाशी गृहयुद्ध के बाद 1971 में दो टुकड़े हो गया। पाकिस्तान के दो टुकड़ों में टूटने के साथ ही धर्म आधारित मुस्लिम–हिंदू राष्ट्रीयता की दावेदारी का भी अंत हो गया है, क्योंकि भाषाई विविधता को समेटने में धार्मिक एकता– यूरोप से लेकर एशिया तक हर कहीं सदैव असफल साबित हुई है। ब्रिटिश राज द्वारा पोषित दो-राष्ट्र सिद्धांत तथा ‘पाकिस्तान’ के उकसावे के बावजूद भारत ने ‘गैर-मुस्लिम’ या ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की राह नहीं अपनाई।
यह शर्मनाक रहा कि निर्दोष हिंदू-मुस्लिम-सिखों को सांप्रदायिकता की आग से बचाने में 30 जनवरी 1948 को गांधी को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। महात्मा गांधी की कायराना हत्या से उनका दिखाया सर्वधर्म समभाव का मार्ग पुन: प्रासंगिक हो गया। गांधी की शहादत से पैदा प्रायश्चित-भाव और विवेक से प्रकाशित भारतीय संविधान सभा के सदस्यों ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता, नेहरू-पटेल-मौलाना आजाद जैसे स्वतंत्रता सेनानियों के सहयोग और बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर की अगुआई में स्वीकारे गए अपने संविधान-प्राक्कथन में ‘भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को- सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय; विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता; प्रतिष्ठा और अवसर की समता तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए बंधुता बढ़ाने के लिए’ एकजुटता का संकल्प लिया था।
यह सच है कि इंदिरा गांधी के नेतृत्व में इमरजेंसी वर्षों में 1973 में प्राक्कथन में ‘समाजवादी पंथनिरपेक्ष’ शब्दों को जोड़ा गया है। लेकिन इससे यह बुनियादी बात नहीं प्रभावित होती है कि हमारे संविधान ने 1949 में स्वीकारे गए मौलिक अधिकारों में ही धारा 14, 15, 16, 25, 26, 27, 28, 29, 30 तथा बाद में जोड़ी गई मूल कर्तव्य सूची (51-क) में सर्वधर्म समभाव का प्रवर्तन और संरक्षण किया गया है। इस सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह चुनौती अप्रासंगिक है कि नागरिक संशोधन में मुसलमानों को बाहर रखने का विरोध करने वालों को भारत की वकालत का साहस दिखाना चाहिए। कांग्रेस और उसकी समर्थक पार्टियों से उलझने के बजाय मोदी जी को सोचना चाहिए कि आखिर तमिलनाडु की द्रविड़ मुनेत्र कडगम से लेकर पंजाब की अकाली दल और बंगाल की तृणमूल कांग्रेस पीड़ित-दुखी पड़ोसी मनुष्यों को शरण देने का दायित्व पूरा करने के कर्तव्य में श्रीलंका से लेकर पाकिस्तान और चीन तक प्रताड़ित हो रहे अनेक स्त्री-पुरुषों को भारतीय मूल का होने के बाद भी मुसलमान होने के नाते वंचित करना क्यों अनुचित मानते हैं? ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्श वाले हमारे देश का क्या युगधर्म और कर्तव्य-पथ होना चाहिए? सत्ताधीश देश की नागरिकता से जुड़ी ज्वलंत समस्याओं के प्रसंग में संवाद का प्रस्ताव रख चुके हैं। इस आत्ममंथन के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद में सर्वदलीय संवाद करना सही उपाय होगा। नागरिकता विमर्श के मौजूदा नाजुक मोड़ पर यह भी देश के सत्तापक्ष, प्रतिपक्ष और नागरिक समाज के ध्यान में आ सके तो अच्छा होगा कि इस प्रसंग में गांधी-आंबेडकर-लोहिया-जयप्रकाश क्या राह अपनाते!
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(वरिष्ठ टिप्पणीकार, जेएनयू में समाज विज्ञान विभाग के प्रोफेसर रहे हैं)
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कहां ‘वसुधैव कुटुंबकम’, कहां मात्र तीन देशों के गैर-मुस्लिमों को ही करुणा का अधिकारी मानने की संकीर्णता
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ब्रिटिश राज द्वारा पोषित दो-राष्ट्र सिद्धांत के बावजूद भारत ने ‘हिंदू राष्ट्र’ बनने की राह नहीं अपनाई