आजादी से ठीक पहले और बाद के वर्षों के दौरान असम के इतिहास में खुशियों के पल कम ही रहे हैं। आजादी से पहले असम को पूर्वी पाकिस्तान में शामिल करने की योजना बनाई जा रही थी। लेकिन धार्मिक आधार पर भारत को बांटने के लिए जब अंतरराष्ट्रीय सीमाएं खींची जा रही थीं, तब असम के नेताओं ने इस राज्य को भारतीय संघ में ही रखने के लिए काफी प्रयास किए। इसके लिए गांधी जी ने भी हस्तक्षेप किया था। इसके बाद भाषाई आधार पर राज्यों का विभाजन किया गया- मराठी भाषा बोलने वालों के लिए महाराष्ट्र, कन्नड़भाषियों के लिए कर्नाटक, बंगालियों के लिए पश्चिम बंगाल और असमियों के लिए असम...। तब असम में मेघालय और मिजोरम शामिल थे, इसलिए राज्य का आकार बड़ा था। वहां आबादी का मिश्रण भी काफी पेचीदा था। विशिष्ट पारंपरिक भाषाओं, परंपराओं और पहचान के साथ अलग-अलग समूहों में लोग वैसे ही रहते थे, जैसे आज रहते हैं। विभाजन के समय सुरमा (बराक) वैली को असम में शामिल कर दिया गया था। यहां के बांग्लाभाषी हिंदू निवासी मुस्लिम बहुसंख्यक वाले पूर्वी पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते थे। बांग्लाभाषी पश्चिम बंगाल में इस क्षेत्र को शामिल करना भौगोलिक दृष्टि से असंभव था, क्योंकि बीच में एक अलग देश बन गया था।
इस तरह असम में बांग्ला बोलने वाले दूसरे सबसे बड़े समूह बन गए। दूसरे आदिवासी समूहों के साथ मिलकर उनकी आबादी असमी बोलने वालों से ज्यादा हो गई। फलस्वरूप जल्दी ही अविश्वास और भय का बीज पनपने लगा, जिसने धीरे-धीरे संघर्ष का रूप ले लिया। इसमें एक तरफ बंगाली आधिपत्य था, तो दूसरी तरफ असमी उपराष्ट्रीयता थी। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से समय-समय पर लाखों लोगों के भागकर आने और शरण लेने से इस संघर्ष ने उन्माद का रूप ले लिया।
आंकड़े भी इस समस्या की ओर संकेत देते हैं। ढाका यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अबुल बरकत लिखते हैं कि 1964 से 2013 के दौरान करीब 1.13 करोड़ हिंदू बांग्लादेश छोड़कर चले गए। इसका अर्थ है कि हर दिन 632 और हर साल 2,30,612 हिंदुओं ने यहां से पलायन किया, क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान की सरकार ने हिंदुओं की जमीनों को शत्रु संपत्ति मानकर उस पर कब्जा कर लिया था। बांग्लादेश से आने वालों में से अधिकांश लोग असम और पश्चिम बंगाल में बसने लगे। उसी समय गरीब बांग्लादेश से पलायन का एक और दौर शुरू हुआ। बेहतर अवसरों की तलाश में बांग्लादेशी मुसलमान भी असम और पश्चिम बंगाल में पहुंचने लगे। इनकी संख्या के बारे में सटीक अनुमान किसी के पास नहीं है, लेकिन इनकी तादाद लाखों में हो सकती है, क्योंकि असम में मुस्लिम आबादी का हिस्सा बढ़कर 35 फीसदी हो गया। असम में बाहरी लोगों का विरोध 1950 में ही शुरू हो गया था, जब पूर्वी पाकिस्तान से अवैध रूप से आने वालों/शरणार्थियों को रोकने के लिए अप्रवासी (असम से निष्कासन) कानून लागू किया गया। वैसे तो यह कानून सात साल बाद रद्द कर दिया गया था, लेकिन तब तक असमी-बंगाली विभाजन संकट की हद तक पहुंच गया था। राज्य विधानसभा ने असमी को सरकारी भाषा का दर्जा देने के लिए 1960 में असम सरकारी भाषा कानून पारित किया। लेकिन जब विरोध-प्रदर्शन हुए, तो कछार क्षेत्र में प्रशासनिक और दूसरे सरकारी कामों के लिए बांग्ला भाषा के प्रावधान किए गए। कानून में इस बात का उल्लेख है कि कछार के निवासी असमी को सरकारी भाषा के तौर पर स्वीकार कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि महकमा परिषद और नगर परिषद के कम से कम दो-तिहाई सदस्य इसके पक्ष में हों। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ और असमी सरकारी भाषा नहीं बन सकी। इस तरह घृणा बढ़ती चली गई।
असम के संसाधनों और आबादी के संतुलन पर 1971 के बाद दबाव तब और बढ़ गया जब बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के समय बड़ी संख्या में वहां से लोग भागकर यहां आ गए। असम के लोगों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई और 1979 से छह साल तक अवैध अप्रवासियों के खिलाफ जोरदार आंदोलन चला। इस आंदोलन में पुलिस कार्रवाई के कारण 855 लोगों की मौत हो गई। 15 अगस्त 1985 को असम समझौते के बाद यह आंदोलन खत्म हुआ। समझौते में तय किया गया कि 25 मार्च 1971 के बाद असम में आए विदेशियों की पहचान की जाएगी और बाहर निकाला जाएगा। इसके अतिरिक्त, समझौते की उपधारा 6 में कहा गया है, “असम के लोगों की संस्कृति, सामाजिक और भाषाई पहचान और विरासत को बचाने और प्रोत्साहित करने के लिए संवैधानिक, विधायी और प्रशासनिक प्रावधान किए जाएंगे।”
सवाल उठता है कि विदेशियों की पहचान तो हो जाएगी, लेकिन प्रत्यर्पण कैसे होगा? प्रत्यर्पण की बात कहना आसान है, लेकिन करना मुश्किल। स्तंभकार और असम के शिवसागर जिले में गरगांव कॉलेज के प्रिंसिपल सब्यसाची महंत कहते हैं, “भारत ने शरणार्थियों से जुड़ी 1951 की जिनेवा संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। बांग्लादेश के साथ हमारी प्रत्यर्पण संधि भी नहीं है। बांग्लादेशी सरकार ने अपने लोगों के बारे में हमेशा कन्नी काटने की नीति अपनाई है। वह अपने नागरिक को वापस लेने की बात बार-बार कहता है, लेकिन शर्त यह है कि भारत उन लोगों की नागरिकता साबित करे।”
1950 के निष्कासन कानून से लेकर 1983 के अवैध अप्रवासी (ट्रिब्यूनल द्वारा निर्धारण) कानून तक, हर बार अवैध विदेशी नागरिकों को निकालने के प्रावधान किए गए, लेकिन खामियों के कारण ये प्रावधान कभी प्रभावी नहीं हो सके। 1983 के कानून में कहा गया था कि अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि आरोपी व्यक्ति विदेशी है और अवैध तरीके से देश में रह रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को रद्द कर दिया था। अवैध विदेशियों को पहचानने के तरीके की खामियों को कैसे दूर किया जाए? इस समस्या का समाधान निकालने के लिए असम में राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का प्रस्ताव लाया गया। एनआरसी बनाने का सबसे पहला प्रस्ताव 1951 की जगणना के आधार पर लाया गया था। लेकिन दशकों तक ध्यान नहीं दिए जाने के कारण इसे भुला दिया गया था। असम में एनआरसी लागू होने के बाद जब इस साल गर्मियों में अंतिम सूची जारी हुई, तो 19 लाख लोग बाहर रह गए। इनमें ज्यादातर हिंदू (बंगाली, रभा, तिवा, मारवाड़ी, बिहारी, गोरखा और असमी बोलने वाले भी) हैं।
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी ने एक और गलती की और एनआरसी को सिरे से खारिज कर दिया। एनआरसी की गलतियों को दूर करने के लिए नागरिकता कानून 1955 में संशोधन कर दिया गया। नए नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के मुताबिक, 31 दिसंबर 2014 तक अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को बिना किसी सवाल-जवाब के वैध नागरिक मान लिया जाएगा। मुसलमानों को इससे बाहर रखा गया है।
नागरिकता संशोधन कानून, 2019 के विरोध में प्रदर्शन शुरू हो गए। शुरुआत असम से हुई। बाकी देश में मुसलमानों को बाहर रखने का विरोध हो रहा है, लेकिन असम में मुद्दा यह नहीं है। वहां बांग्लादेश से आने वाले सभी अप्रवासियों का िवरोध हो रहा है, भले ही वे किसी भी धर्म के हों। सब्यसाची इस कानून का विरोध करने वाले लाखों लोगों में से एक हैं। वे कहते हैं, “दूसरे कानूनों की तरह नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) भी असम समझौते के प्रावधानों का उल्लंघन करता है। सबसे पहले 1951 की जनगणना के आधार पर भारतीय नागरिकता का निर्धारण किया गया। इसके बाद अगले 20 साल के दौरान (1971 तक) आए बांग्लादेशी अप्रवासियों का अतिरिक्त भार उठाने को भी असम राजी हो गया। अब सीएए के तहत नागरिकता के लिए तारीख 31 दिसंबर 2014 तक बढ़ा दी गई है, इससे असम पर फिर दबाव बढ़ गया है। हमारे ऊपर, खासकर ब्रह्मपुत्र घाटी पर अतिरिक्त भार क्यों डाला जा रहा है? बराक वैली पहले ही बंगाली बहुल है और आदिवासी स्वायत्त क्षेत्र संविधान की छठी अनुसूची के तहत संरक्षित होने के कारण नागरिकता संशोधन कानून के दायरे से बाहर हैं।”
स्तंभकार द्विपेन काकोती कहते हैं कि असमी अपने ही राज्य में अल्पसंख्यक होने के भय से आशंकित हैं। यहां सिर्फ 48 फीसदी आबादी के लिए असमी पहली भाषा है। उन्हें आशंका है कि अगर बांग्लादेश से आने वाले बांग्लाभाषी लोगों को असम में भारतीय नागरिक के तौर पर बसाया जाता है, तो बांग्लाभाषी ज्यादा हो जाएंगे और राज्य का स्वरूप ही बदल जाएगा। 2001 की जनगणना के अनुसार बांग्लादेश में 113.7 लाख हिंदू हैं और नागरिकता संशोधन कानून ने उनके लिए भारतीय नागरिकता हासिल करना आसान बना दिया है।
अब आगे क्या? सब्यसाची असमी मूल के लोगों के लिए संवैधानिक उपायों की मांग करते हैं। उनका कहना है, “मूल लोगों के अधिकारों से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के घोषणा-पत्र पर भारत ने 2007 में हस्ताक्षर किए थे। असम समझौते की उपधारा-4 में भी संवैधानिक प्रावधान और अंतरराष्ट्रीय समझौतों का जिक्र है। इसलिए सरकार को असमियों को उसी तरह सुरक्षा देनी चाहिए, जैसी वह छठी अनुसूची में शामिल लोगों को देती है।” हालांकि, असम निवासियों की औपचारिक परिभाषा तय करने की भी आवश्यकता है। उम्मीद है कि जब केंद्रीय गृह मंत्रालय की उच्चस्तरीय कमेटी बनेगी तो वह इस भ्रम को दूर करेगी और असमी अथवा मूल निवासी की परिभाषा स्पष्ट करने के लिए सिफारिशें देगी। सब्यसाची का सुझाव है कि 1951 की जनगणना के समय शामिल बंगालियों को इसके दायरे में रखना चाहिए।
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भारत ने शरणार्थियों से जुड़ी जिनेवा संधि पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। बांग्लादेश के साथ प्रत्यर्पण संधि भी नहीं है। तो विदेशियों का प्रत्यर्पण कैसे होगा?