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एनआरसी नहीं, बेरोजगार रजिस्टर की जरूरत

सरकार बार-बार बंटवारे की गलतियां दुरुस्त करने की बात कर उसके जख्मों को कुरेदकर ताजा कर रही है
मुद्दा 2019  नागरिक प्रश्न, किसी को नहीं बख्शाः बंगलुरू में प्रसद्धि लेखक रामचंद्र गुहा को गिरफ्तार कर ले जाती पुलिस

संशोधित नागरिकता कानून को लेकर जो चिंताएं हैं, वे काल्पनिक कतई नहीं हैं। यह सच है कि भारत के पड़ोसी देशों में कई समुदाय के लोगों को अलग-अलग तरीके से प्रताड़ित किया गया है। पाकिस्तान में हिंदू, सिख, ईसाइयों के साथ उत्पीड़न हुआ है। पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश में भी हिंदू और बौद्धों के साथ अन्याय हुआ है। श्रीलंका में तमिलों के साथ लगातार हिंसा हुई है। चीन के तिब्बत में बौद्धों के साथ कम्युनिस्ट राज में धार्मिक, सांस्कृतिक और क्षेत्रीय आधार पर अत्याचार किया गया। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों और नेपाल में मधेशियों के साथ भी अन्याय हुआ है। इनमें से अधिकांश देशों के लोग भारत की ओर शरण के लिए देखते हैं। बड़ा, लोकतांत्रिक और स्थिर देश होने के नाते भारत की जिम्मेदारी बनती है कि इन देशों के शरणार्थियों के लिए अपना दिल और दरवाजे Kखोले। इसका अर्थ यह है कि कोई भी, कभी भी भारत आए इसके लिए सुसंगत शरणार्थी नीति होनी चाहिए।

भारत की सरकारें ऐसी नीति बनाने से कतराती रही हैं। पहला कदम यह होगा कि सरकार सबसे पहले संयुक्त राष्ट्र संघ के शरणार्थी संधि पर हस्ताक्षर करे। इसके तहत शरण मांगने वालों के प्रति सरकार की कुछ जिम्मेदारी बनती है। अगर नागरिकता कानून में संशोधन करना है, तो केवल तीन देशों का नाम और कुछ धार्मिक समुदायों का नाम लिखने के बजाय उसमें यह शामिल किया जाए कि पड़ोसी देशों के लोगों का धार्मिक, सांस्कृतिक या किसी अन्य आधार पर उत्पीड़न होता है तो इसकी जांच और प्रामाणिकता साबित होने के बाद ऐसे लोगों को रियायत दी जाएगी। ऐसा करना भारत के सिद्धांतों और ऐतिहासिक मूल्यों के अनुरूप होगा। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने अपनी शिकागो यात्रा के दौरान उल्लेख किया था। अगर ऐसा करना संभव नहीं है, तो 1955 के नागरिकता कानून को जस का तस छोड़ देना चाहिए। इसमें भी लंबी प्रक्रिया के तहत नागरिकता देने का प्रावधान है। फिर भी यह कानून संशोधित नए कानून से बेहतर है।

जहां तक राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की बात है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। कई देशों में इस तरह का रजिस्टर बनाया गया है। दिक्कत इसे बनाने की प्रक्रिया में है। हमारे पास मतदाता सूची है जिसमें 18 साल से ज्यादा उम्र के नागरिक शामिल हैं। मतदाता सूची में कई बार दोहराव और कुछ नाम छूटने की समस्या आ सकती है। इसके अलावा हमारे पास आधार, राशन कार्ड और जनगणना सूची है। इनके आधार पर एनआरसी का ड्राफ्ट बनाया जा सकता है। 130 करोड़ लोगों की नई सूची बनाने के बजाय इन दस्तावेजों के आधार पर एनआरसी का ड्राफ्ट तैयार किया जाए। उसके बाद लोगों की आपत्तियां मांगी जाएं ताकि अगर किसी का नाम छूट गया है तो उसे शामिल कर लिया जाए। करोड़ों लोग परेशानी और चिंता से बच जाएंगे और दोबारा सूची बनाने में होने वाला हजारों करोड़ रुपये का खर्च बच जाएगा। सिर्फ असम में एनआरसी तैयार करने में 1,600 करोड़ रुपये खर्च हुए हैं। पूरे देश का एनआरसी तैयार करने में करीब 50,000 करोड़ रुपये खर्च हो सकते हैं। अगर सरकार इरादा बदलती है तो आज देश में हो रही बहस और आम लोगों, खासकर मुसलमानों के मन में भय और आशंका खत्म हो जाएगी। वैसे अगर सरकार का इरादा ही भय पैदा करने का है तो बात अलग है।

एक अहम बात मैं यह कहना चाहता हूं कि किसी भी सभ्य समाज में कई तरह की सूचियां होती हैं। हमारे यहां विकलांगों की अभी तक कोई सूची तैयार नहीं हुई है। किसानों की भी कोई सूची सरकार के पास नहीं है। इसी वजह से प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना ठीक से लागू नहीं हो पा रही है। इसी तरह देश में सबसे ज्यादा जरूरत बेरोजगारों का रजिस्टर बनाने की है। यह नीतिगत दस्तावेज होगा। बेरोजगारों के रजिस्टर का अर्थ सिर्फ सूची बनाना नहीं है। सबसे पहले आपको बेरोजगारी की परिभाषा तय करनी होगी। इसके लिए हम नेशनल सेंपल सर्वे की परिभाषा को अपना सकते हैं, जिसके अनुसार 15 से 60 साल की आयु के लोग अगर काम करना चाहते हैं और इसके लिए प्रयास कर रहे हैं, फिर भी रोजगार नहीं मिल रहा है तो वे बेरोजगार हैं। परिभाषा अपनाने के साथ बेरोजगारों की श्रेणियां-जैसे अंशकालिक या पूर्णकालिक बेरोजगार, तय करनी होंगी। कई बार लोग योग्यता और क्षमता के अनुरूप रोजगार प्राप्त नहीं कर पाते हैं या फिर अनुबंधित रोजगार में हैं, ऐसे सभी लोगों को श्रेणीबद्ध करना होगा। यह सिर्फ रोजगार कार्यालय की सूची नहीं होगी, बल्कि इसके आधार पर बेरोजगारों को कम से कम मनरेगा के अनुसार काम देने का प्रावधान होगा। उसे राष्ट्रीय रोजगार रजिस्टर कहा जा सकता है। किसी भी सरकार का लक्ष्य होना चाहिए कि इस रजिस्टर से सभी का नाम तय समय में हटाया जाए यानी सभी को रोजगार मुहैया कराया जाए।

ऐसा रजिस्टर वास्तव में महत्वपूर्ण दस्तावेज होगा। देश में इस समय करीब साढ़े चार करोड़ लोग बेरोजगार हैं। ऐसा रजिस्टर बनेगा तो सरकार की नीतियों की दिशा ही बदल जाएगी, क्योंकि सरकार पर बेरोजगारों की संख्या घटाने का लक्ष्य होगा। यह सरकार के लिए सकारात्मक पहल होगी। इसलिए सरकार को अपने संसाधन नागरिकता रजिस्टर बनाने के बजाय बेरोजगार रजिस्टर बनाने पर लगाने चाहिए।

वैसे भी देश में इस समय एनआरसी की कोई आवश्यकता नहीं है। इसकी जरूरत तब हो सकती है जब पूरे देश में अवैध प्रवासियों की संख्या बहुत ज्यादा होने का अनुमान हो। देश में अवैध प्रवासियों की समस्या दो देशों नेपाल और बांग्लादेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में ही हो सकती है। संधि के चलते नेपाल के साथ भारत की सीमा खुली है। वहां से लोग भारत में आसानी से आ सकते हैं। बांग्लादेश की सीमा हमारे कई राज्यों से लगती है। उधर से त्रिपुरा और असम में बांग्लादेशियों के आने की समस्या रही है। मेघालय में यह समस्या सीमित है। पश्चिम बंगाल में भी बांग्लादेशी आए। इन राज्यों में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी आए हैं। स्थानीय लोगों में इस बात को लेकर चिंता है। त्रिपुरा की तो आबादी का स्वरूप ही बदल गया है। असम में बाहरी लोगों की गिनती की जानी चाहिए। लेकिन एनआरसी लागू करके उन्हें बाहर निकालने की बात करना ठीक नहीं है। चिह्नित लोगों को मतदाता सूची से हटा देना चाहिए और उन्हें ग्रीन कार्ड देकर यहां रहने और काम करने की इजाजत दे देनी चाहिए। ऐसे चिह्नित लोगों को बांग्लादेश वापस भेजना कोई आसान नहीं है क्योंकि वह उनके बांग्लादेशी नागरिक होने का सबूत मांगेगा, जो देना संभव नहीं होगा। पूरे देश में तो एनआरसी के बारे में सोचना भी ठीक नहीं है। एनआरसी और सीएए समाज में वैसा ही असर डालेगा, जैसा नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था पर डाला था। बेवजह की कवायद में पैसा बर्बाद करने और उथल-पुथल मचाने की कोई आवश्यकता नहीं है। हां, इससे कोई पार्टी अगला चुनाव अवश्य जीत सकती है। 

अब देश में इस समय चल रहे प्रदर्शनों की बात करते हैं। देश में नागरिकता कानून को लेकर जो विरोध हो रहा है, उसकी अलग-अलग धाराएं हैं। पूर्वोत्तर में जो विरोध और आंदोलन हो रहा है, वह पिछले दरवाजे से कुछ समुदायों के लोगों को बसाने के प्रयास के कारण शुरू हुआ है। बाकी देश में मुसलमान आंदोलित हैं। उनका विरोध अप्रवासियों के खिलाफ नहीं बल्कि अप्रवासी बताकर परेशान किए जाने और निकाले जाने की आशंका को लेकर है। इसके अलावा वे लोग विरोध कर रहे हैं जो सीधे तौर पर इससे प्रभावित नहीं हैं, बल्कि वे सैद्धांतिक रूप से इसके खिलाफ हैं। शुरू में पहली दो धाराओं के लोगों की संख्या ज्यादा थी जो विरोध कर रहे थे। लेकिन पिछले कुछ दिनों से तीसरी धारा बहुत महत्वपूर्ण बन गई है। इसमें युवाओं की संख्या और उत्साह काफी बड़ा है। युवाओं के जुड़ने के कारण यह राष्ट्रीय आंदोलन की शक्ल ले सकता है। जब तक तीसरी धारा और मजबूती से आगे नहीं आएगी, तब तक यह समुदाय विशेष का ही आंदोलन ज्यादा रहेगा। इस आंदोलन की जो खूबसूरती है, वही इसकी कमजोरी बन सकती है। असम में जब असम गण परिषद भाजपा के हाथों बिक गई, तो वहां युवाओं ने उसे दरकिनार करके आंदोलन की कमान अपने हाथों में ले ली। मुस्लिम समाज के बड़े धार्मिक नेता इस आंदोलन में नकारा साबित हुए हैं। मुस्लिम समाज से स्वतःस्फूर्त आंदोलन उभरकर सामने आया है। जामिया के बाद छात्रों का आंदोलन तेज हुआ है, उसमें भी किसी बड़े छात्र संगठन की भूमिका बहुत सीमित रही है। स्वतः ही खड़े हुए इस आंदोलन की यही कमजोरी बन सकती है। इस आंदोलन में दिशा और नेतृत्व की कमी दिखाई देती है। जब तक इस आंदोलन को संगठन का स्वरूप नहीं मिलता है, तब तक यह आंदोलन अपनी ऊर्जा को सही दिशा में नहीं लगा पाएगा।

निश्चित ही इस आंदोलन में हिंसा भड़की है। हिंसा पुलिस की ओर से की गई और आंदोलनकारियों की ओर से भी हुई है। सवाल है कि क्या इस आंदोलन की धारा हिंसक हो गई है। आंदोलन में हिंसा हुई इस वजह से यह मीडिया में प्रमुखता से आ गया। लेकिन कई जगहों पर बिना हिंसा के भी प्रदर्शन हुए। हरियाणा के मेवात में एक लाख लोगों ने आठ किलोमीटर चलकर प्रदर्शन किया। लेकिन यह सुर्खियों में नहीं आ पाया। इस आंदोलन में अपवाद स्वरूप हिंसा हुई है। हिंसा इसके स्वरूप में नहीं है। यद्यपि अभी तक हुई हिंसा की भी निंदा की जानी चाहिए और पुलिस की समुचित कार्रवाई पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। मोदी सरकार बार-बार बंटवारे की गलतियां दुरुस्त करने की बात करती है। इस तरह वह जख्मों को कुरेदकर ताजा कर रही है। वह कभी 1947 के जख्म कुरेदती है तो कभी 600 साल पुराने जख्म हरे करने लगती है। देश को तय करना होगा कि उसे अतीत दुरुस्त करना है या फिर वर्तमान और भविष्य सुधारना है।

(लेखक स्वराज अभियान के प्रमुख हैं, यह लेख प्रशांत श्रीवास्तव से बातचीत पर आधारित है)

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देश को तय करना होगा कि उसे अपना अतीत दुरुस्त करना है या फिर वर्तमान और भविष्य सुधारना है

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