नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) 2019 को मुस्लिम विरोधी बताकर गलत तरीके से पेश किया जा रहा है। वास्तविकता यह है कि ज्यादातर मामलों में गलत सूचना या जानकारी है अथवा निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा अफवाहें फैलाई जा रही हैं। इसलिए सीएए को लेकर विभिन्न मंचों पर उठाए जा रहे सवालों के जवाब तलाशने का हमें प्रयास करना चाहिए।
पहला सवाल उठाया जा रहा है कि सीएए भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ है। उन्हें देश में रहने के लिए अपने कागजात तैयार रखने होंगे। यह सबसे बड़े झूठों में से एक है। यह जानबूझकर फैलाया जा रहा है कि नया कानून पारित होने से भारतीय मुस्लिमों की परेशानियां बढ़ जाएंगी। जबकि हकीकत यह है कि नए कानून से भारतीय नागरिकों का कोई लेना-देना नहीं है। नया कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के धार्मिक अल्पसंख्यकों को नागरिकता देने के संबंध में है।
दूसरा सवाल उठाया जा रहा है कि अगर सीएए धार्मिक उत्पीड़न के शिकार लोगों के लिए है, तो शिया, अहमदिया, बलूच और रोहिंग्या समुदाय के लोगों को शामिल क्यों नहीं किया गया? अब इसका जवाब है कि जिन समुदायों के लिए सवाल उठाए जा रहे हैं, वह सभी समूह मुस्लिम धर्म के तहत आते हैं। दुनिया में कहीं भी उन्हें अलग धर्म नहीं माना गया है। मुस्लिम होने के नाते वे पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यक नहीं हैं। ये देश या तो इस्लामिक हैं या फिर यहां पर मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी है।
तीसरा सवाल पूछा जा रहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के मुस्लिम भारत में नागरिकता या शरण के लिए आवेदन नहीं कर सकते हैं? मुस्लिमों को सीएए से बाहर रखा गया है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि उनके भारतीय नागरिक बनने के लिए दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गए हैं। बीते 19 दिसंबर को पाकिस्तान की हसीना बेन को नागरिकता दी गई।
चौथा सवाल ये खड़ा हो रहा है कि सीएए लागू होने बाद अन्य देशों के मुस्लिम भारतीय नागरिक नहीं बन सकते हैं। सच्चाई यह नही है। नए संशोधन ने नागरिकता पाने के मौजूदा कानूनों को रद्द नहीं किया है। किसी भी देश का व्यक्ति इन कानूनों के तहत भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है। इनके तहत दुनिया के किसी भी मुस्लिम को नागरिकता लेने से नहीं रोका जा सकता है। साथ ही सीएए भी इसमें कोई बाधा नहीं डालता है।
एक अन्य प्रश्न है कि क्या इन तीन देशों के नागरिक भारतीय नागरिकता ले सकेंगे। तो उसका जवाब भी हां है। इन देशों के नागरिक पहले की तरह भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं। अब बात नागरिकता संशोधन विधेयक, 2019 की करते हैं। विधेयक को बीते 4 नवंबर को केंद्रीय कैबिनेट ने मंजूरी दी थी। इसके बाद संसद के दोनों सदनों ने इसे मंजूरी दी। विपक्षी दलों ने इसकी कड़ी आलोचना की और उसे संविधान के सिद्धांतों के खिलाफ बताया। उग्र वामपंथी और इस्लामिक जेहादियों जैसे कुछ स्वार्थी तत्व विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के छात्रों को दंगों के लिए उकसा रहे हैं।
मीडिया का एक वर्ग असंतोष के लिए दंगे के नाम पर दंगों के अधिकार को समर्थन दे रहा है। जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पुलिस कार्रवाई के संबंध में याचिका पर सुनवाई के दौरान देश के प्रधान न्यायाधीश ने भी जोर देकर कहा, “छात्रों को हिंसा से दूर रहना चाहिए।” भय फैला रहे लोग सीएए को एनआरसी से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं और मुस्लिमों के मन में भय का माहौल बना रहे हैं। सबसे बड़ा झूठ फैलाया जा रहा है कि यह कानून भारतीय मुस्लिमों के लिए चिंता पैदा करने वाला है। जबकि नए कानून से भारतीय नागरिकों या मुस्लिमों का कोई लेना-देना नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने मुस्लिमों की नागरिकता छिनने की आशंकाएं दूर करने के लिए भी कई बार प्रयास किए हैं।
सीएए के विरोधियों के अलावा एक अहम पक्ष यह भी है कि ऐसे तमाम लोग खासकर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से आए शरणार्थी इसका स्वागत कर रहे हैं। वह इसे बहुप्रतीक्षित बता रहे हैं। उनके लिए यह सही कदम है। क्योंकि ये तीनों देश अपनी आजादी या उनके गठन के बाद लंबे दौर में धर्मनिरपेक्ष से इस्लामिक रिपब्लिक बन गए। अफगानिस्तान के संविधान के चैप्टर-1 के आर्टिकल-2 में कहा गया है कि अन्य धर्मों के अनुयायी कानून की सीमा में रहते हुए अपनी आस्था और धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए स्वतंत्र हैं। हालांकि उसके संविधान में इसके उलट एक उपधारा भी है जिसके अनुसार इस्लाम के सिद्धांत के विपरीत कोई भी कानून नहीं हो सकता है। उनकी दंड संहिता अदालतों को ऐसे मामललों में शरिया (इस्लामिक कानून) को मानने की अनुमति देती है जो सीधे तौर पर दंड संहिता या संविधान के अधीन नहीं आते हैं। इस प्रावधान से सरकार को धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपनी मर्जी से शरिया के नियम लागू करने की छूट मिल जाती है।
इसी तरह पाकिस्तान के संस्थापक और पहले गवर्नर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना ने 11 अगस्त 1947 को अपने प्रसिद्ध भाषण में जोर देकर कहा था कि नया देश धार्मिक सहिष्णुता के सिद्धांत पर बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा था, “आप पाकिस्तान में पूजा के लिए अपने मंदिरों में जाने को आजाद हैं, आप अपनी मस्जिदों या किसी अन्य धार्मिक स्थल पर जाने को स्वतंत्र हैं।”
लेकिन इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं और सिखों के साथ अत्याचार और उनके वजूद को खत्म करने के लिए जबरन धर्म परिवर्तन कराना मुख्य तरीका बन गया है। गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) साउथ एशिया पार्टनरशिप पाकिस्तान के अनुसार, पाकिस्तान में जबरन मुस्लिम बनाने के लिए कम से कम 1,000 लड़कियों, जिनमें अधिकांश धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय की होती हैं, का हर साल अपहरण किया जाता है। इसी तरह बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी 1951 की 22 फीसदी से घटकर अब 8.5 फीसदी रह गई है। यह आश्चर्यजनक है कि वहां अल्पसंख्यकों की संख्या में आई कुल गिरावट में से 54 फीसदी गिरावट 1989 से 2016 के बीच दर्ज की गई। बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न और भेदभाव के कारण 1.13 करोड़ हिंदू वहां से चले गए।
पहले पाकिस्तान की तत्कालीन सरकार ने हिंदुओं की संपत्ति पर दुश्मन संपत्ति बताकर कब्जा कर लिया। इसके बाद स्वतंत्र बांग्लादेश की सरकार ने इस संपत्ति पर अपना कब्जा बनाए रखा। इन फैसलों से वहां 60 फीसदी हिंदू भूमिहीन हो गए। 1940 में अफगानिस्तान में दो लाख सिख होते थे। एक दशक पहले उनकी संख्या घटकर महज 3,000 रह गई। अनुमान है कि अब वहां सिर्फ 300 परिवार और चालू हालत में दो गुरुद्वारे रह गए हैं। भले ही तालिबान का पतन हो गया है, फिर भी अफगानिस्तान में शासन चलाने के लिए इस्लामिक दायरे में रहना जरूरी है। अलग से पहचाने जाने लायक होने के कारण सिख का सबसे ज्यादा उत्पीड़न होता है और सार्वजनिक स्थानों पर मौजूद होने के समय धर्म परिवर्तन के लिए दबाव झेलना पड़ता है।
इंदिरा गांधी के समय से लेकर भारतीय सरकारें अपने लोगों से यह कड़ी सच्चाई छिपाने में सफल रहीं। एक सरकारी अनुमान के अनुसार हास्कर पेपर्स में उल्लिखित शरणार्थियों में से 90 फीसदी हिंदू थे। विदेश राज्य मंत्री एडवार्डो फलेरियो ने 28 जुलाई 1987 को राज्य सभा में बताया था कि मई-जून 1987 के दौरान पाकिस्तान से मिली रिपोर्ट से संकेत मिलते हैं कि सिंध में हिंदू मंदिरों के अलावा हिंदुओं की दुकानों और संपत्तियों पर हमले हुए। तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी 6 दिसंबर 2007 में राजयसभा में बताया था, बांग्लादेश में हिंदुओं सहित अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा और अत्याचार की रिपोर्ट समय-समय पर मिलती रही हैं। इन तीन देशों में हिंदुओं और अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ हिंसा और अत्याचार लगातार होते रहे। विदेश राज्य मंत्री ई. अहमद ने 22 मार्च 2012 को राज्यसभा में बताया, सरकार को 7 नवंबर 2011 को हिंदू डॉक्टरों की हत्या किए जाने की मीडिया रिपोर्ट मिली है। पाकिस्तान के शिकारपुर जिले में चक तालुका में उनके गांव में हमला किया गया था जिसमें तीन डॉक्टरों की हत्या कर दी गई और एक अन्य घायल कर दिया गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा, 1964 के बाद से पाकिस्तान और बाद में बांग्लादेश में अत्याचार झेल रहे अल्पसंख्यकों की दयनीय स्थिति और उनके पुनर्वास के लिए लगातार प्रस्ताव पारित करती रही है। इस तरह के प्रस्ताव 1964, 1978, 1993, 1994, 2002 और 2013 में पारित किए गए।
पाकिस्तान, खासकर सिंध में हिंदू और सिख समुदाय की कम उम्र लड़कियों के अपहरण और जबरन धर्म परिवर्तन की घटनाएं इतनी आम बात है कि वे अब समाचार भी नहीं रह गई हैं। अत्याचार झेल रहे इन अल्पसंख्यकों की शरण के लिए भारत के अलावा दूसरा कोई स्थान नहीं है। वे अविभाजित भारत के नागरिक थे और विभाजन की रेखा खींचने के कारण उन्हें बताए बगैर पराए देश में रहने को मजबूर कर दिया गया। इसलिए भारत उनके लिए स्वाभाविक निवास स्थान है। अगर उनके साथ अत्याचार होता है तो वे कहीं और नहीं जा सकते हैं। करीब 1.5 करोड़ ऐसे उत्पीड़ित शरणार्थी पहले ही यहां रह रहे हैं। यह समय है जब उन्हें वह दिया जाए जो उन्हें काफी पहले मिलना चाहिए था। सीएए इतिहास की गलतियां सुधारकर इन शरणार्थियों को मानवीय सहायता देगा।
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(लेखक आरएसएस की दिल्ली कार्यकारिणी के सदस्य हैं)
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सीएए को लेकर गलत सूचना और जानकारी के अभाव में निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा अफवाहें फैलाई जा रही हैं