भारत का संविधान यहां रहने वाले हर व्यक्ति को समान अधिकार देता है। इस लिहाज से नागरिकता संशोधन कानून 2019 भेदभावपूर्ण है और संविधान का उल्लंघन करता है। नए कानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से 31 दिसंबर 2014 तक अवैध रूप से आने वाले और धर्म के आधार पर प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और ईसाई को भारत की नागरिकता देने की बात है। इन्हें नेचुरलाइजेशन (भारत में रहने) के आधार पर नागरिकता देने के लिए न्यूनतम समय सीमा 11 साल से घटाकर पांच साल कर दी गई है। इस तरह यह दूसरे देशों के अवैध शरणार्थियों और मुसलमानों, यहूदियों और अहमदियों जैसे अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव करता है। इससे पहले भी सरकार ने 7 सितंबर 2015 और 18 जुलाई 2016 को अध्यादेश जारी किए थे। इनके जरिए 31 दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से अवैध रूप से आने वाले और धर्म के आधार पर प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और ईसाई को पासपोर्ट कानून 1920 और विदेशी कानून 1946 के प्रावधानों से छूट दी गई थी। ये दोनों अध्यादेश भी संविधान का उल्लंघन करते हैं।
धर्म, देश, प्रताड़ना के प्रकार, भारत आने की तारीख या रहने की जगह के आधार पर लोगों का वर्गीकरण अविवेकी और भेदभाव वाला है। संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। म्यांमार और श्रीलंका जैसे देशों से भी अल्पसंख्यक भारत आए हैं। वे नस्ली और भाषाई हिंसा के शिकार हैं। अगर संशोधित कानून का उद्देश्य धर्म के आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना है, तो धर्म और देश के आधार पर उनमें अंतर करना अतार्किक और अन्यायपूर्ण है। संविधान का अनुच्छेद 11 संसद को नागरिकता के नियमन का अधिकार जरूर देता है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक साधारण कानून के जरिए संसद संविधान के बुनियादी मूल्यों और ढांचे को नष्ट कर सकती है। अपने पुराने फैसलों में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि धर्मनिरपेक्षता संविधान का बुनियादी ढांचा है, इसमें संशोधन का अधिकार संसद के पास नहीं है। धर्म के आधार पर भेदभाव मानवीय गरिमा के भी खिलाफ है, और यहां तो राज्य ही यह भेदभाव कर रहा है। आर.के. गर्ग बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कानून बनाने के लिए वर्गीकरण भेदभावपूर्ण नहीं हो सकता। वर्गीकरण के आधार और कानून के उद्देश्य के बीच तार्किक संबंध होना चाहिए। वर्गीकरण अनुच्छेद 14 पर खरा उतरे, इसके लिए जरूरी है कि यह भेदभावपूर्ण न हो। संशोधित कानून के उद्देश्य और कारण में अविभाजित भारत को एक कसौटी बताया गया है। इस आधार पर अफगानिस्तान शामिल नहीं होना चाहिए था। अगर कसौटी पड़ोसी देश है, तो म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों और श्रीलंका में तमिलों पर भी हमले हो रहे हैं। उन्हें क्यों बाहर रखा गया? अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश घोषित रूप से इस्लामी देश हैं, तो श्रीलंका भी घोषित रूप से बौद्ध है।
अनुच्छेद 14 कहता है कि समान परिस्थितियों में रहने वालों के साथ एक समान व्यवहार किया जाएगा, उनमें व्यक्ति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। संशोधित कानून के अनुसार, संविधान की छठी अनुसूची में शामिल असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के आदिवासी इलाकों और इनर लाइन परमिट वाले इलाकों में रहने वाले अवैध शरणार्थियों को नागरिकता नहीं मिल सकेगी। इसका मतलब है कि बिना वैध कागजात वाले उपरोक्त तीन देशों के छह धर्मों के शरणार्थियों को देश से निकाला नहीं जाएगा या जेल में नहीं डाला जाएगा, जबकि दूसरे देशों और शरणार्थियों के साथ ऐसा हो सकता है। 1987 तक भारत में जन्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान था। 2003 में कानून में संशोधन हुआ कि नागरिकता का आवेदन करने वाले व्यक्ति के माता-पिता में से किसी एक का भारतीय होना जरूरी है। 2004 में हुए संशोधन में अवैध शरणार्थी शब्द जोड़ा गया। यह संशोधन भी हुआ कि किसी अवैध शरणार्थी का बच्चा 2004 या इसके बाद भारत में जन्म लेता है तो उसे नागरिकता नहीं मिलेगी, भले ही माता-पिता में से कोई एक भारतीय हो। नागरिकता संशोधन कानून के मुताबिक, तीन देशों के छह धर्मों के अल्पसंख्यक अवैध शरणार्थी होने के बावजूद नागरिकता के पात्र होंगे, लेकिन दूसरे धर्मों के अवैध शरणार्थियों के बच्चे नागरिकता हासिल नहीं कर सकेंगे। सुप्रीम कोर्ट पहले कह चुका है कि समान परिस्थितियों में कानून भी एक समान लागू होंगे। इस तरह नए कानून में अवैध शरणार्थियों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता है।
यह शरणार्थी नीति का भी उल्लंघन है। 2011 में सरकार ने दीर्घकालिक वीसा नीति लागू की थी। यह वीसा सरकार या संयुक्त राष्ट्र द्वारा शरणार्थी घोषित लोगों को मिलता है। भारत ने शरणार्थी समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके मुताबिक धर्म, देश, प्रवेश की तारीख के आधार पर शरणार्थियों में भेदभाव नहीं किया जा सकता।
समानता कभी संकीर्ण नहीं हो सकती। समानता और भेदभाव एक दूसरे के विरोधी हैं। समानता गणराज्य का कानून है, जबकि भेदभाव बादशाही सनक का नतीजा। भेदभाव वाला कोई भी कदम राजनीतिक तर्क और संवैधानिक कानून, दोनों लिहाज से गलत है। संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 सरकार के कामकाज में भेदभाव को रोकते हैं। ये बताते हैं कि सरकार के कदम सबके लिए एक समान होने चाहिए। अगर सरकार कोई भेदभावपूर्ण कदम उठाती है, तो अनुच्छेद 14 स्वतः लागू हो जाता है और सरकार के उस कदम को खारिज कर देता है। दरअसल, तार्किकता और समानता हमारे संविधान की मूल अवधारणाएं हैं, और संविधान का तानाबाना सोने के इसी धागे से बुना है।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं, लेखक द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका पर आधारित)
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धर्मनिरपेक्षता संविधान का बुनियादी ढांचा है, इसमें संशोधन का अधिकार संसद के पास भी नहीं है