भारतीय जनता पार्टी जब से सत्ता में आई है, उसकी नजर सिर्फ एक ही समुदाय पर है। कभी उस समुदाय की महिलाओं के साथ उन्हें न्याय करना है तो कभी इसी समुदाय से जुड़ा कोई दूसरा मुद्दा हाथ में लेना है। 2014 से आज तक यह सिलसिला चलता जा रहा है। ‘तीन तलाक’ की बात होती है, कश्मीर को अलग-थलग कर दिया जाता है। जब भी वह कोई कदम उठाती है, वह भेदभावपूर्ण होता है। ऐसे में स्वाभाविक शंकाएं उभरती हैं। शंकाओं पर सफाई का नहीं आना इस सरकार की सबसे बड़ी समस्या है। नागरिकता संशोधन कानून पर हमारे जैसे लोगों की बुनियादी शिकायत इसका संविधान के अनुच्छेद-14 के खिलाफ होना है। इस अनुच्छेद में अवसरों की समानता की बात कही गई है। यह धार्मिक, लैंगिक, क्षेत्रीय, जातिगत और किसी भी तरह के भेदभाव के बिना बराबरी की बात करता है। यह अनुच्छेद सभी को बराबरी के साथ कानून के संरक्षण का भी अधिकार देता है। इससे साफ है कि कानून की नजर में सब बराबर रहेंगे। लेकिन नया कानून बराबरी की बात नहीं करता है। इस कानून में मुस्लिम बहुल देशों के अल्पसंख्यक समुदाय के नाम गिनाए गए हैं, जो वहां प्रताड़ित हैं। इन अल्पसंख्यकों को भारत में उदारता के साथ शरण देने की व्यवस्था है। यहां शंका है कि मुस्लिमों को अलग करने की कोशिश क्यों की गई है? जबकि इन देशों में मुसलमान भी प्रताड़ित हो सकते हैं। मसलन, पाकिस्तान में हजारा इलाके में शिया समुदाय से ज्यादती हो रही है। अहमदिया भी प्रताड़ना के शिकार हैं। इन समुदायों के लिए उदारता होनी चाहिए। बलूचिस्तान के लोगों का वहां की हर फौजी सरकार उत्पीड़न करती है। उन्हें भारत में शरण की अनुमति मिल ही नहीं सकती है, क्योंकि वे मुसलमान हैं!
हमारे देश में जो संविधान है, वह धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक है। संविधान के सिद्धांतों के आधार पर यह कानून कहां टिकेगा, ये बड़ा सवाल है। यही सवाल पूछा जा रहा कि यह संविधान के अनुच्छेद-14 और उसकी प्रस्तावना के खिलाफ क्यों है? सिर्फ मुस्लिमों को इस कानून में संरक्षण नहीं मिलना सबसे बड़ा सवाल है? इस कानून की यही कमजोरी इसकी बुनियाद पर सवाल उठा रही है।
यूरोपीय यूनियन के देश बिना किसी भेदभाव के अपने देश में प्रताड़ित नागरिकों को शरण देते हैं। उन्होंने सीरिया या टर्की अथवा किसी अन्य देश में अपने शासकों की प्रताड़ना झेल रहे लोगों के लिए अपने दरवाजे खोल रखे हैं। मानवाधिकार का तकाजा है, बिना किसी भेदभाव के दूसरे देशों के प्रताड़ित लोगों को शरण दी जाए और बाद में परिस्थितियां सामान्य होने पर वैकल्पिक व्यवस्था की जाए। वे अपने देश लौट जाएं या फिर वहीं के नागरिक बन जाएं। नए कानून में इसका भी जवाब नहीं है कि म्यांमार को क्यों नहीं शामिल किया गया। वहां की सरकार से रोहिंग्या लगातार परेशान हैं। भारत आ चुके रोहिंग्या समुदाय के लोगों के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं है। श्रीलंका के तमिलों के लिए भी कोई राहत नहीं है। भारतीय संविधान सरकार को यह अधिकार नहीं देता है कि वह कोई भेदभाव करे।
नया नागरिकता संशोधन कानून तो एक शुरुआत है। उनकी नजर राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) पर है। नियम कहता है कि भारतीय दंपती से और देश में ही पैदा व्यक्ति यहां का नागरिक है। यह नियम इस वजह से परेशानी पैदा करता है कि देश का कोई भी नागरिक उचित प्रमाण-पत्र पेश नहीं कर पाएगा। इससे सभी की परेशानी बढ़ने वाली है। सबसे ज्यादा परेशानी दलित समुदाय को हो सकती है, क्योंकि उनमें से अधिकतर के पास जमीन नहीं है। ऐसे में देश के सारे नागरिक पुलिस के रहमोकरम पर हो जाएंगे। किसी को भी परेशान करने का हथियार पुलिस के हाथ में आ जाएगा। पुलिस वसूली कर सकती है। एनआरसी से संबंधित कोई भी नियम हर भारतीय के अधिकारों की धज्जियां उड़ाने का काम करेगा। इस नियम के बनने से मुसलमान तो परेशान होंगे ही, सबसे बड़ी पीड़ा उनको होगी, जिनके पास कोई जमीन नहीं है, रोजगार नहीं है, कोई स्थायी ठिकाना नहीं है।
हमारे जितने भी मूलभूत अधिकार हैं, उनपर किसी न किसी तरह की शर्तें लागू हैं। नया कानून बनाने के पीछे ऐसा कोई तर्क नहीं दिखता कि यह किसी बड़े उद्देश्य के लिए बनाया गया है। समानता के अधिकार के साथ संविधान पिछड़े होने की वजह से (उनके उत्थान के बड़े उद्देश्य के लिए) किसी वर्ग को आरक्षण की इजाजत तो देता है लेकिन नए कानून में एक समुदाय विशेष को बाहर रखने की साजिश साफ दिखती है, जो मानवता विरोधी भी है। सरकार इसके लिए जो तर्क दे रही है वे सिर्फ छलावा हैं।
ऐसी स्थिति में सुप्रीम कोर्ट ही आखिरी उम्मीद थी। मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कहना चाहता हूं कि पिछले कुछ समय से सरकार के फैसलों को संविधान और कानून की कसौटी पर कसे जाने की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट को यह देखना चाहिए कि क्या कानून में एक समुदाय को अलग रखकर संविधान के अनुच्छेद-14 अथवा प्रस्तावना की मूल भावना का ख्याल रखा गया है या नहीं।
इस कानून के बाद एनआरसी लागू होने पर असंतोष और बढ़ेगा। जब तक देश का धर्मनिरपेक्ष ढांचा सुरक्षित है, यहां का नागरिक सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। इससे छेड़छाड़ होने पर असुरक्षा की भावना बढ़ेगी। इससे केवल मुस्लिम समुदाय ही नहीं, दूसरे समुदायों में भी असुरक्षा और असंतोष बढ़ेगा। किसी भी असुरक्षित समाज में लोकतंत्र सुरक्षित नहीं रहता है। अमेरिका में भारतीयों को ग्रीन कार्ड मिलने पर हम खुश होते हैं, जबकि हमारे यहां भेदभाव किया जा रहा है।
(लेखक लखनऊ विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं, कुमार भवेश चंद्र से बातचीत पर आधारित)
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नया कानून बनाने के पीछे ऐसा कोई तर्क नहीं दिखता कि यह किसी बड़े उद्देश्य के लिए बनाया गया है