इस समय कांग्रेस के भविष्य को लेकर अनेक प्रकार की अटकलें लगाई जा रही हैं। अटकलें लगाने वालों में कांग्रेस के धुर विरोधी, आलोचक, समर्थक, कार्यकर्ता और नेता सभी शामिल हैं। वे न सिर्फ अटकलें लगा रहे हैं, बल्कि कांग्रेस को बिन मांगी सलाह भी दे रहे हैं कि वह किसे अपना अध्यक्ष बनाए और किसे पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाए। कन्हैया कुमार जैसे अनेक वामपंथी और प्रगतिशील सोच वाले युवा नेता भी कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया और जितिन प्रसाद जैसे युवा नेता कांग्रेस छोड़ कर भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे हैं। कांग्रेस राज्यों में मुख्यमंत्री बदल रही है और कभी इसी काम के लिए उसकी आलोचना करने वाली भाजपा भी यही कर रही है। उत्तर प्रदेश में चुनाव नजदीक आ गए हैं। वहां कांग्रेस 1990 के बाद से सत्ता से बाहर है लेकिन वहां के संदर्भ में भी सत्ताधारी दल भाजपा के बाद सबसे अधिक चर्चा उसी की हो रही है, समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी की नहीं। प्रियंका गांधी वाड्रा की वाराणसी यात्रा इस चर्चा को और अधिक धार दे दी है।
जो लोग कांग्रेस पार्टी के लिए गांधी परिवार को बोझ समझते हैं और मानते हैं कि इस बोझ को उतार फेंकते ही उसका कायाकल्प हो जाएगा, वे बड़े भ्रम का शिकार हैं। समस्या गांधी परिवार नहीं, कांग्रेस में मजबूती से जड़ जमा कर बैठी वह लोकतंत्र-विरोधी संस्कृति है जिसकी तार्किक परिणति व्यक्तिपूजा या एक परिवार की पूजा में होती है। कभी भाजपा अपने सामूहिक नेतृत्व पर नाज किया करती थी। लेकिन आज उसमें व्यक्तिपूजा कांग्रेस से भी अधिक है। भाजपा ने कांग्रेस संस्कृति को अपनाया है, तो अब समय आ गया है कि कांग्रेस स्वयं को उस संस्कृति से मुक्त करे और सच्चे अर्थों में भाजपा का विकल्प बनकर देश के सामने आए। इसके लिए उसे अपने इतिहास से सबक सीखने होंगे।
महात्मा गांधी के भारी विरोध के बावजूद सुभाष चंद्र बोस 1939 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गए। महात्मा गांधी के बाद जवाहरलाल नेहरू ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ चले स्वाधीनता आंदोलन के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे। लेकिन कांग्रेस के भीतर वे कभी निर्विवाद नेता नहीं रहे। 1951 में तो वे प्रधानमंत्री भी थे, लेकिन उनके सख्त विरोध को नजरअंदाज करके पार्टी ने पुरुषोत्तम दास टंडन को अध्यक्ष चुना। बोस और टंडन को क्रमशः महात्मा गांधी और नेहरू के असहयोग के कारण चुने जाने के थोड़े-से समय के भीतर ही इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि गांधी और नेहरू जैसे नेताओं के कड़े विरोध के बाद भी वे पार्टी का अंदरूनी चुनाव जीतने में सफल रहे। 1972 में चंद्रशेखर भी इंदिरा गांधी के विरोध के बावजूद कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति के लिए चुने गए थे। ऐसा तभी संभव है जब पार्टी के भीतर खुलकर बोलने की आजादी हो, नेताओं की खुशामद और चमचागीरी कम हो और किसी एक व्यक्ति या समूह का पार्टी पर कब्जा न हो। क्या आज की कांग्रेस पार्टी ऐसी है?
जैसे ही कांग्रेस आंदोलनकारी पार्टी से सत्ताधारी पार्टी बनी, उसके भीतर गुटबाजी और भ्रष्टाचार और अधिक तेजी से पनपने लगे। 12 जनवरी, 1948 को महात्मा गांधी ने प्रार्थना सभा में घोषणा की कि अगले दिन से वे अनशन पर बैठने जा रहे हैं। घोषणा करने से पहले उन्होंने आंध्र के अत्यंत वरिष्ठ कांग्रेस नेता देशभक्त कोंडा वेंकटपैया का एक पत्र भी पढ़ा, जिसमें उन्होंने कांग्रेस के भीतर पनप रहे इन रुझानों का जिक्र करते हुए कहा था कि अब तो लोग कहने लगे हैं कि अंग्रेजों की हुकूमत इससे बेहतर थी।
गांधी-बोस, नेहरू-पटेल और नेहरू-टंडन के बीच का टकराव व्यक्तियों के बीच का टकराव नहीं था, जैसा कि आजकल हिंदुत्व के प्रचारक आरोप लगाते हैं। वह नीतियों का टकराव था। 1969 में जब इंदिरा गांधी ने कांग्रेस का विभाजन किया, तब भी उनका वामपंथी नीतियों की ओर झुकाव दक्षिणपंथी सोच के मोरारजी देसाई जैसे नेताओं को हजम नहीं हो रहा था। लेकिन बाद में जिस तरह से उन्होंने पार्टी और सरकार में सत्ता का केंद्रीकरण किया, अपने सलाहकारों के छोटे से गुट के प्रभाव में राज्यों में मनमाने ढंग से मुख्यमंत्री बदले और उनके चयन का अधिकार अपने हाथ में लिया, यह आश्वस्त करने के लिए राज्यों में गुटबाजी को बढ़ावा दिया कि कोई भी नेता कद्दावर न बन सके, और अंततः देवकांत बरुआ जैसे व्यक्ति को पार्टी अध्यक्ष बनाया जिन्होंने “भारत इंदिरा है और इंदिरा भारत है” जैसे सूत्र-वाक्यों का सृजन किया, उसने कांग्रेस को अंदर से खोखला कर दिया।
हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हैं कि उन्होंने आज तक एक भी संवाददाता सम्मेलन को संबोधित नहीं किया। लेकिन क्या हमने कभी सोचा कि सोनिया गांधी ने सत्ताधारी दल और विपक्षी दल की अध्यक्ष के रूप में कितनी बार संवाददाता सम्मेलनों को संबोधित किया या मीडियाकर्मियों को इंटरव्यू दिया? उनका जनता या अपनी ही पार्टी के सदस्यों, कार्यकर्ताओं और नेताओं के साथ कितना और कैसा संवाद है? दरबारी संस्कृति को उन्होंने बढ़ाया है या घटाया है? हाल ही पंजाब के मुख्यमंत्री को बदल कर उन्होंने पार्टी और जनता को क्या संदेश दिया है?
यही बात राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा पर लागू होती है। नेहरू की राजनीतिक विरासत का लाभ लेने के साथ उन्हें नेहरू की वैचारिक विरासत को भी स्वीकार करना चाहिए। नेहरू तो शुद्ध ब्राह्मण थे और दुनिया उन्हें पंडित नेहरू कहती भी थी। उन्हें तो कभी यह कहने की जरूरत नहीं पड़ी कि वे ब्राह्मण हैं और जनेऊधारी हैं। बल्कि अगर कोई उनके परिचय में ऐसा कहता तो उसे उनके विख्यात क्रोध का ही शिकार होना पड़ता। लेकिन राहुल के सिपहसालार उन्हें “जनेऊधारी शिवभक्त” बताते हैं। हल्के भगवा रंग से गाढ़े भगवा रंग का मुकाबला करने की राजनीति के सहारे कांग्रेस आगे नहीं बढ़ सकती।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)