आम चुनाव 2024 का परिणाम आने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के मुख्यालय में पार्टी के पदाधिकारियों की बैठक ली। मोदी ने उन्हें 400 सीटों का लक्ष्य पूरा न कर पाने के कारण हुई निराशा से उबारने की कोशिश की। हालांकि भाजपा लोकसभा में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है और उसके गठजोड़ एनडीए के पास स्पष्ट बहुमत भी है, इसलिए उसकी निराश अचंभित करने वाली है। दरअसल इस निराशा भाव के पीछे तीन कारण गिनवाए जा सकते हैं।
पहला तो पार्टी का चुनावी नारा ही है- ‘‘अबकी बार चार सौ पार।’’ पार्टी 240 सीटें लाकर अपने बल पर सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत के लक्ष्य से अभी 32 सीटें पीछे है जबकि भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) चार सौ के नारे से 106 सीटें पीछे है। अब पार्टी को यह सोचना होगा कि अपना लक्ष्य पूरा न कर पाने में उससे क्या और कहां-कहां गलतियां हुई हैं।
दूसरा कारण नरेंद्र मोदी का आक्रामक और बड़बोला चुनाव प्रचार था। पार्टी के वादों को ‘मोदी की गारंटी’ कह कर प्रचारित किया गया। सारे पोस्टरों और प्रचार सामग्री पर मोदी की ही तस्वीर थी। पूरे प्रचार का वही एक चेहरा थे। उन्होंने भीषण गर्मी में 210 से ज्यादा रैलियां, रोड शो और जनसभाएं कीं। कुल प्रचार अभियान इस एक शख्स पर टिका हुआ था, इसलिए दावेदारी और विश्वसनीयता का कुल दारोमदार भी उन्हीं के कंधों पर आकर टिक जाता है। लोगों से कहा गया कि पार्टी या उसके घोषणापत्र या फिर अगले पांच साल के लिए उसके एजेंडे के बजाय ‘ब्रांड’ मोदी के नाम पर वोट करें। अगर वाकई एनडीए 400 सीटें पार कर गया होता तो यह अकेले नरेंद्र मोदी के लिए चमकदार गौरव का क्षण होता, जो मामूली पृष्ठभूमि से उठकर प्रधानमंत्री के शीर्ष पद तक पहुंचे हैं। पार्टी मुख्यालय में छाई मुर्दनी इसी बात से है कि एनडीए 400 सीटें पार नहीं कर सका यानी दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी की निजी अपील एनडीए को उस लक्ष्य तक पहुंचाने में नाकाम रह गई।
पार्टी में हताशा की तीसरी वजह यह है कि अब जो भी सरकार बनेगी, गठबंधन की होगी जबकि पिछले दो कार्यकालों में सरकार पूरी तरह भाजपा के हिसाब से थी। यानी मोदी का अगला कार्यकाल गठबंधन की मजबूरियों के अधीन होगा, जैसा अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में एनडीए या डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में यूपीए की सरकारें हुआ करती थीं। केवल दो ऐसे कार्यकाल 2014 और 2019 में रहे जब बतौर प्रधानमंत्री मोदी को सरकार चलाने के लिए गठबंधन के आसरे नहीं रहना पड़ा।
आम चुनाव मे जीत हासिल करने और सरकार बना लेने के बाद भी भाजपा को इस गिरावट का जवाब तो देना ही होगा। भारत की राजनीति में एक कहावत चलती है कि लोकसभा का रास्ता उत्तर प्रदेश से निकलता है। यह उत्तर प्रदेश ही था जिसने लंबे समय तक गांधी परिवार को न सिर्फ केंद्र की सत्ता में कायम रखा, बल्कि कांग्रेस के ऊपर परिवार को कठोर नियंत्रण कायम रखने की सहूलियत भी दी। इसी उत्तर प्रदेश ने 2014 और 2019 में क्रमश: 71 और 62 सीटें देकर भाजपा को सत्ता थमाई। इसलिए अबकी जब भाजपा यहां 33 सीटों पर सिमट चुकी है तो नतीजतन उसका चार सौ पार वाला सपना चकनाचूर हो गया है। इसलिए उत्तर प्रदेश की भाजपा इकाई, राज्य के मुख्यमंत्री और वहां के चुनाव प्रभारियों को इसका जवाब देना बनता है, भले ही वे केंद्र में कितने ही बड़े पदों पर हों।
भाजपा ने जब 2024 के चुनाव का प्रचार शुरू किया था, उस वक्त पार्टी के बुजुर्गों और उसकी वैचारिक धारा के कुछ कद्दावर नेताओं ने कुछ जरूरी मुद्दे उठाए थे। जैसे पार्टी में बाहर के लोगों को शामिल किया जाना, दलबदलुओं को शामिल किया जाना और ऐसे लोगों को अपनाना जो वैचारिक विरोधी हैं। इस पर भाजपा का तर्क था कि ऐसे लोग अपने-अपने इलाकों में चुनाव जिताने में कारगर होते हैं, लेकिन जहां तक नीतिगत फैसलों की बात होगी, उन्हें उससे दूर ही रखा जाएगा। यह कह कर पार्टी के बुजुर्गों और मातृ संस्था के वैचारिक अगुओं को मना तो लिया गया, हालांकि पार्टी के काडर में इससे उत्साह पैदा नहीं हो सका।
जहां तक पार्टी का सवाल है, पार्टी संगठन को अब मजबूत किया जाना चाहिए और उसे सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में लगाया जाना चाहिए, बजाय इसके कि वे उन ‘अनिर्वाचित प्रशासकों’ पर निर्भर रहें, जिनका सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के बीच अंतर बरतने का प्रशिक्षण ही नहीं है।
विपक्ष भले ही एक समूह के बतौर एकजुट दिखता है, लेकिन वह भीतर से बिखरा हुआ है। उनके बीच कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी बनकर उभरी है। लिहाजा, उसे आधिकारिक विपक्ष की मान्यता मिलनी ही चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि कांग्रेस पार्टी एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाएगी और सत्ताधारी दल तथा विपक्षी दल अपने चुनाव पूर्व मनमुटावों को सदन के बाहर ही रखेंगे।
विडंबना है कि अब भाजपा को सत्ता में आने और पांच ट्रिलियन की सशक्त अर्थव्यवस्था बनाने के मोदी के एजेंडे को लागू करने के लिए बाहर से समर्थन लेना पड़ रहा है। एक कुशल प्रशासक और संगठनकर्ता के बतौर मोदी को अब साबित करना होगा कि वे अपने पिछले दो कार्यकालों की ही तरह एक गठबंधन की सरकार को भी उतने ही दमखम से चला पाने में सक्षम हैं।
(लेखक आर्गेनाइजर के पूर्व संपादक हैं और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हैं)