बात 1988 के सर्दियों की है। दूरदर्शन कश्मीर पर एस्केप फ्रॉम सोबीबोर फिल्म दिखाई जा रही थी। तब मैं 14 साल का था और कश्मीर में ही था। सोबीबोर में नाजी यातना शिविर से यहूदियों के भागने की भयानक कहानी को देखना मेरे लिए इतिहास का पहली बार सामना करने के समान था। तब एक पल के लिए भी मैंने नहीं सोचा था कि कभी हमें भी ऐसे भयावह हादसे से गुजरना पड़ेगा, हमें हमारे धर्म और हमारी पहचान के लिए उत्पीड़ित किया जाएगा, कश्मीर में हमें अपने घरों से निकाल दिया जाएगा और जम्मू तथा भारत के अन्य हिस्सों में वीभत्स शिविरों में आश्रय लेना पड़ेगा।
दिसंबर 1993 में कवि और एक्टिविस्ट डॉ. अग्निशेखर के कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर ने दिल्ली के सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की। उसका एकमात्र उद्देश्य दुनिया को यह बताना था कि हम किन हालात से गुजर रहे हैं। वहां मौजूद लोगों को संबोधित करने वाली एकमात्र जानी पहचानी शख्सियत अनुपम खेर थे। मीडियाकर्मी भी उन्हीं की वजह से आए थे। निर्वासित तिब्बत सरकार के पूर्व प्रधानमंत्री सामढोंग रिनपोचे हमारे साथ एकजुटता दिखाने के लिए आए थे।
दो महीने बाद फरवरी 1994 में कश्मीरी पंडितों के प्रतिनिधियों ने जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) को बताया कि इस्लामी आतंकियों ने उन्हें कश्मीर से खदेड़ दिया है। उन्होंने यूएनएचसीआर से इसका संज्ञान लेने और तथ्यान्वेषण के लिए कश्मीर में मिशन भेजने का आग्रह किया। विश्व समुदाय से कश्मीरी पंडितों की वह पहली अपील थी। अनेक चिट्ठियां भेजी गईं, ज्ञापन दिए गए, लेकिन किसी को उन्हें देखने की फुर्सत नहीं थी। मगर हमने भी उम्मीद नहीं छोड़ी। हमारा सवाल है, “हमारा और हमारी संतानों का क्या होगा? हमारी संतानों को कैसे पता चलेगा कि उनके पूर्वजों के साथ क्या हुआ था?”
दिन, साल और दशक बीतते गए और कश्मीरी पंडित न्याय की गुहार लगाते रहे। कुछ ने हमारी बात सुनी, कुछ ने सहानुभूति जताई तो कुछ ने सुनने तक की जहमत नहीं उठाई। नतीजाः कुछ नहीं हुआ। सत्य मौजूद था, लेकिन उसे देखने कोई मिशन नहीं आया। जरूरत सिर्फ इतनी थी कि वे किसी भी शिविर में आते और देखते कि वहां लोग किन हालात में रह रहे हैं। पूरे भारत में ऐसे 50 से अधिक शिविर थे। आज भी जम्मू में कुछ शिविर मौजूद हैं। मैं ऐसे ही एक शिविर के पास रहता था। कैंप स्कूल में ही पढ़ता था। मैंने भय को अनुभव किया है। हमें लंबे निर्वासन में धकेल दिया गया और शिविरों में अमानवीय परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया गया।
उधमपुर कैंप कॉलेज में पढ़ाने वाले मेरे पिता ने कहा था, “तुम्हारा संघर्ष काफी लंबा होने वाला है। भाषा की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होगी। अपनी बात ठीक तरीके से कहना मत भूलना। किसी को सच को छीनने की इजाजत मत देना। हमारे पास अब कुल जमा सच ही तो रह गया है। अगर तुम खामोश रहना चाहते हो तब भी यह देखो कि तुम्हारी खामोशी अनसुनी न रह जाए, उसकी आवाज दूर-दूर तक पहुंचे।”
पहचान, विस्थापन, निष्कासन, निर्वासन, जनसंहार, शिविर, रिफ्यूजी, माइग्रेंट जैसे शब्द हमारे लिए पहली बार सही अर्थ बता रहे थे। एस्केप फ्रॉम सोबीबोर के दृश्य अब सिर्फ सिनेमा के दृश्य नहीं रह गए थे, हम खुद को वैसे ही हालात में पा रहे थे। यातना और मौत से बचने के लिए पलायन कर रहे थे। अगर हम कश्मीर छोड़कर नहीं जाते तो हमारी भी उसी तरह हत्या कर दी जाती जिस तरह द कश्मीर फाइल्स में शारदा पंडित के पति की आतंकियों से बचने की कोशिश करते समय होती है। सिनेमा के पर्दे पर हम जो देख रहे हैं वह हत्या और निर्ममता की भयानक तस्वीर मात्र नहीं, लोगों ने उस तस्वीर को जिया है। उस भयावहता के साक्षी आज भी जीवित हैं।
वहां से लोग भागे तो उन शिविरों में पहुंचे। वहां लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही थी। वहां हर चीज का अभाव था, बीमारी थी और थी सत्ता में बैठे लोगों की उदासीनता। शिविरों में कुछ भी नहीं था। केंद्र और राज्य सरकारों ने हमारे लिए कुछ करना तो दूर, हमारी हालत तक को स्वीकार नहीं किया।
नोबेल पुरस्कार प्राप्त इमरे कर्तेस्ज अपने लेख द एक्जाइल्ड टंग (2001) में बताते हैं कि यहूदी सर्वनाश के बारे में लिखना कितना असंभव है। लेकिन वे यह भी लिखते हैं कि इस सर्वनाश के बारे में न लिखना भी असंभव है। उनके उपन्यास फिआस्को के नायक की यही नैतिक दुविधा रहती है। द कश्मीर फाइल्स में भी ऐसी ही दुविधा से घिरे लोगों से पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) कहते हैं, मैं आपकी अंतरात्मा की अदालत का दरवाजा खटखटाने आया हूं।
जहां तक कश्मीरी पंडितों के खिलाफ जघन्य अपराध को दोबारा कहने की बात है, तो फिल्म आपको आश्चर्यचकित कर देगी। आपको इसमें अविश्वसनीय दहशत का आलम दिखेगा। फिल्म भ्रामक, विरोधाभासी और झूठी कहानियों में उलझे लोगों की चेतना को भी नया आकार देती है। यातनाओं को चुपचाप सहन करना और विपरीत परिस्थितियों से लड़ते हुए उम्मीद न छोड़ना भी कम मानवता नहीं। खासकर तब जब आप ऐसे लोगों से खुद को घिरा पाते हैं जो आपके अतीत को ही स्वीकार नहीं करते। फिर ऐसा समय आता है जब इन यातनाओं को चुपचाप सहते हुए अपने आप को सिनेमा हॉल में बैठा पाते हैं और अपने निर्मम अतीत से रूबरू होते हैं। आपके सामने आपके ही इतिहास के पन्ने एक-एक कर खुलते जाते हैं। फिल्म में दरअसल हम अपने आपको ही दोबारा देखते हैं। असहाय, अकेला, दया की भीख मांगते और मौत के करीब। न्याय की गुहार लगाते लोगों की आंखों में आंसू का कारण यही है। तीन दशकों में इनकी गुहार न किसी ने सुनी, न किसी ने उस पर ध्यान दिया। एक पूरी पीढ़ी अपने पूर्वजों पर हुए संत्रास के साए में बड़ी हुई है।
मृत्यु शैया पर लेटे पुष्कर नाथ पोते कृष्णा से कश्मीर, अपने घर ले जाने को कहते हैं। हालांकि वे भी जानते हैं कि उस दिन को देखने के लिए जिंदा नहीं रहेंगे। इसलिए वे पोते से राख वहां ले जाने को कहते हैं। जब एकांत में उनकी मौत होती है तो उन्हें घर लौटने का एक खुशहाल सपना तक नसीब नहीं होता। इस तरह द कश्मीर फाइल्स एक व्यक्ति की आस्था और आस्थाहीन दुनिया की कहानी बन जाती है।
1990 के दशक में कश्मीर में रहे अफसर ब्रह्म दत्त (मिथुन चक्रवर्ती) कहते हैं, “टूटे दिल बोल नहीं सकते।” कश्मीरी पंडितों पर आसन्न संकट के बारे में उनके बार-बार कहने के बावजूद मुख्यमंत्री, गृहमंत्री या प्रधानमंत्री किसी ने ध्यान नहीं दिया। जो कुछ होने जा रहा था वह दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ था- कश्मीरी पंडितों को बाहर करो और कश्मीर का इस्लामीकरण करो, अगर वे विरोध करें तो उन्हें आतंकित करो। दत्त कहते हैं, “यहूदियों के साथ जो कुछ हुआ, उसे उन्होंने किसी को भूलने नहीं दिया। लेकिन कश्मीरियों की बात तो कोई सुनना ही नहीं चाहता।” वे सिर्फ इतना चाहते थे कि लोग उनकी बात सुनें, उनकी दुर्दशा देखें।
द कश्मीर फाइल्स में वास्तविक घटनाओं का चित्रण किया गया है। पंडितों पर जुल्म, धर्म और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर सामूहिक हत्याएं, जैसे 23 मार्च 2003 को नदीमर्ग में की गई सामूहिक हत्या जिसमें इस्लामी आतंकवादियों ने 24 कश्मीरी पंडितों को मार दिया था। लेकिन क्या यह फिल्म जबरन विस्थापित किए जाने के दर्द और लंबे समय तक निर्वासन में रहने की मानवीय परिस्थितियों को भी सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक स्तर पर दर्शाती है? क्या यह निर्वासन की मानवीय परिस्थितियों की बेहतर समझ पैदा करती है? इस पैमाने पर फिल्म अधूरी जान पड़ती है। इसमें जटिल मानवीय हालात को अति साधारण बना दिया गया है।
क्या कश्मीर फाइल्स कश्मीरी पंडितों का पूरा सच और उनके साथ क्या हुआ, यह बताती है? कुछ हद तक। तो पूरा सच बताने के लिए क्या करना पड़ेगा? दरअसल द कश्मीर फाइल्स जैसी किसी एक फिल्म में जो सच्चाई दिखाई गई है कश्मीरी पंडितों के अस्तित्व की सच्चाई उससे कई गुना अधिक है। सारी बातें कहने के लिए अनेक फिल्में बनाने और किताबें लिखने की दरकार होगी।
फिल्म का आखिरी दृश्य इसका गवाह है। आतंकवादी शारदा पंडित (भाषा संबली) के कपड़े फाड़ कर उसे अपमानित करते हैं, ताकि दूसरे लोग हिमाकत न कर सकें। लेकिन शारदा चीख भी नहीं सकती, उसकी चीख खामोश है। बल्कि वह तो चीखना भी नहीं चाहती, क्योंकि वह जानती है कि मदद के लिए कोई नहीं आएगा। कश्मीर में उनके पति को जब पंडितों से नफरत करने वाले आतंकियों ने मौत के घाट उतार दिया था तब भी उनके घर कोई नहीं आया था। डॉक्टर भी नहीं। वह खामोश चीख दर्शकों को ताउम्र याद आती रहेगी। यह सिर्फ शारदा की नहीं, उन हजारों कश्मीरी पंडित महिलाओं की चीख है जिनका जीवन बर्बाद हो गया।
( सिद्धार्थ गीगू कॉमनवेल्थ पुरस्कार विजेता लेखक हैं, विचार निजी हैं)