बांग्लादेश की फौज के मुखिया जनरल वकारुज्जमां ने 5 अगस्त, 2024 को प्रधानमंत्री शेख हसीना के इस्तीफे की घोषणा करते हुए कहा था, अब सेना देश में एक अंतरिम सरकार का गठन करेगी। इस संदर्भ में उन्होंने कार्यवाहक सरकार बनाने में राष्ट्रपति से परामर्श लेने की अपनी योजना का ऐलान किया था। इसके तीन दिन के भीतर 8 अगस्त को मुहम्मद यूनुस ने देश की अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार की शपथ ले ली।
पिछले महीने बांग्लादेश में सरकारी नौकरियों के कोटे पर जो प्रदर्शन शुरू हुए थे, वे बहुत तेजी से एक राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गए। उनकी मांग थी कि प्रधानमंत्री शेख हसीना अपने पद से इस्तीफा दें। इस सिलसिले में हुई हिंसा में अब तक 400 से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। इस हिंसा की सबसे ज्यादा मार हिंदू आबादी पर पड़ी है, जिसकी संख्या आठ प्रतिशत तक सिमट कर रह गई है। पहले भी बांग्लादेश की राजनीतिक उथल-पुथल का शिकार अल्पयसंख्यक हिंदू होते रहे हैं। जानमाल के नुकसान के अलावा जो सबसे चौंकाने वाला दृश्य देखने में आया, वह शेख मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा के ऊपर चढ़े प्रदर्शनकारियों का था। बांग्लादेश की मुक्ति के नायक की प्रतिमा पर वे हथौड़े चला रहे थे। यह इत्तेफाक नहीं है कि शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या बांग्लादेशी फौज के कुछ असंतुष्ट अधिकारियों ने 15 अगस्त, 1975 में की थी। उनके ज्यादातर परिवार का सफाया कर दिया गया था, सिवाय दो बेटियों के, जिनमें एक शेख हसीना हैं।
बांग्लादेश के 1971 में मुक्ति होने तक करीब तीस लाख लोग फौजी दमन में मारे गए थे। पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल याहया खान ने ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’, के तहत बंगालियों के राष्ट्रवादी आंदोलन को कुचला था। पाकिस्तान की सरकार के खास निशाने पर शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग और हिंदू थे। इस नीति के तहत जनता का इस्लामीकरण किया जाना था।
द संडे गार्डियन के अनुसार मारे गए हिंदुओं की संख्या 12 लाख से 24 लाख के बीच थी। शर्मिला बोस अपनी पुस्तक ‘अनालिसिस ऑफ सिविल वॉर इन ईस्ट पाकिस्तान इन 1971’ में लिखती हैं, सरकार, फौज और बहुसंख्य आबादी के बीच अल्पसंख्यक हिंदुओं को भारत समर्थक और गद्दार के रूप में देखा जाता था। इसलिए गृहयुद्ध के दौरान वे खास तौर से बहुत नाजुक स्थिति में थे।
पूर्वी पाकिस्तान में 1971 में चले नस्ली सफाये में 15 लाख से ज्यादा मकानों को नष्ट किया गया, तीन करोड़ लोग देश के भीतर ही विस्थापित हो गए और एक करोड़ भाग कर भारत चले आए। भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों की आमद इतनी ज्यादा रही कि जून 1971 तक सरहद पर बनाए गए 509 शरणार्थी शिविर भी कम पड़ने लगे थे। इस वजह से देश के आठ राज्यों में भारतीय सेना को बड़े-बड़े शिविर लगाने पड़े, जिनका संचालन पूर्व सैनिकों के जिम्मेे था। अगस्त 1971 में पाकिस्तान ने शरणार्थियों की एक जिलावार सूची भारत को सौंपी। इसमें पूर्वी पाकिस्तान छोड़ कर भागे लोगों की केवल एक-चौथाई संख्या दर्ज थी। ज्यादातर विश्लेषकों के मुताबिक उस सूची में केवल मुसलमान शरणार्थी दर्ज थे, जिसका सीधा मतलब निकलता था कि हिंदू शरणार्थियों को अब वापस जाने की अनुमति नहीं होगी।
भूराजनीति के बड़े फलक पर देखें, तो उस वक्त जो कुछ हुआ उसके पीछे दुनिया की बड़ी ताकतों का खेल था। दरअसल, 1969 तक पाकिस्तान ने खुद को अमेरिका के लिए पहले से कहीं ज्यादा उपयोगी साबित कर दिया था। उसने चीन के साथ संवाद के गोपनीय चैनल अमेरिका को मुहैया करवाए थे। निक्सन-किसिंजर के नेतृत्व वाली अमेरिकी सत्ता मानती थी कि चीन और रूस के बीच के तनाव का दोहन अमेरिकी हित में किया जा सकता है। चीन के आकार और बढ़ती अहमियत के मद्देनजर अमेरिका उसके साथ संबंध कायम कर के तीसरी दुनिया में रूस की संलग्नता को साधने की कोशिश में था ताकि वियतनाम से उसकी इज्जतदार वापसी हो सके। इसी चक्कर में अमेरिका का झुकाव पाकिस्तान की ओर बढ़ा। इसके दो तात्कालिक प्रभाव हुए थे। पहला, राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने पिछली जॉनसन सरकार में अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति के संबंध में पाकिस्तान के ऊपर लगाए प्रतिबंध की समीक्षा करने का आदेश दे दिया, तो दूसरा आदेश यह दिया कि याहया खान पर ज्यादा दबाव न डाला जाए। अमेरिका का यह सोचना था कि अगर कोई संकट पैदा हुआ, तो वह पाकिस्तान के कुकृत्य से मुंह फेर लेगा। अमेरिकी रणनीति का लाभ उसे यह मिला कि पाकिस्तान की मार्फत हेनरी किसिंजर की चीन यात्रा जुलाई 1971 में हुई, जिसके बाद अमेरिका ने भारत को स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान के साथ उसके टकराव की सूरत में वह दखल नहीं देगा, भले ही चीन ऐसा करता हो।
चीन ने अपने तईं सतर्कतापूर्ण नीति अपनाई। उसकी नजर कई चीजों पर एक साथ थी। पहला, पाकिस्तान का टूटना चीन के फायदे वाली बात नहीं थी क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान मुक्त होने के बाद स्वाभाविक रूप से भारत की ओर झुकेगा। दूसरे, चीन को अपना समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों के ऊपर अपना प्रभाव भी कायम रखना था। इन दलों ने दिसंबर 1970 के चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था और अब बंगालियों पर पाकिस्तानी फौज के दमन की सूरत में उनका बचा-खुचा प्रभाव भी मिट जाना था।
पाकिस्तानी फौज के रास्ते से चीन की सहमति नहीं थी, लेकिन पाकिस्तान को सहयोग जारी रखना उसकी जरूरत थी। 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद से ही चीन और पाकिस्तान के रिश्ते बढ़ रहे थे। 1963 में पाकिस्तान ने रणनीतिक रूप से अहम लद्दाख की शक्सगाम घाटी की 5180 वर्ग किलोमीटर जमीन कथित रूप से चीन को सौंप दी थी। जॉनसन सरकार में पाकिस्तान को हथियारों की आपूर्ति पर लगाए गए प्रतिबंध के बाद पाकिस्तान की निर्भरता सैन्य-आर्थिक मामलों में चीन पर बढ़ गई थी। वह रूस के साथ भी संभावनाएं तलाश रहा था।
1969 की शुरुआत में चीन की उसुरी नदी के पास चीन और रूस की सेनाओं का टकराव हुआ। इसमें चीन को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। उधर, वियतनाम के मोर्चे पर अमेरिका के खिलाफ हो ची मिन्ह को चीन का समर्थन बढ़ रहा था। इस तरह चीन एक साथ दो मोर्चों पर सक्रिय था। दोनों मोर्चों पर दो महाशक्तियां उसके खिलाफ थीं। इन हालात में चीन और अमेरिका के बीच संवाद कायम करवाने में पाकिस्तान की भूमिका अहम हो गई थी। इस समीकरण का नतीजा यह हुआ कि पूर्वी पाकिस्तान में चले नरसंहार की तरफ से चीन ने आंखें मूंद लीं और उसे पाकिस्तान की आंतरिक समस्या करार दिया जबकि पीछे से वह पाकिस्तान को हथियार भेजता रहा। जब भारत ने बांग्लादेश की प्रवासी सरकार को पनाह दी, तब चीन ने भारत की आलोचना की और उस पर विस्तारवाद का आरोप लगाया। चीन को भारत में आ रहे बांग्लादेशी शरणार्थियों से कोई सरोकार नहीं था।
अतीत की रोशनी में देखें, तो आज बांग्लादेश में जो कुछ चल रहा है वह भी महाशक्तियों का एक सोचा-समझा खेल ही लगता है। कोटा में सुधार की प्रदर्शनकारियों की मांग तो मान ही ली गई थी, फिर बांग्लादेशी फौज द्वारा प्रधानमंत्री को अपदस्थ किए जाने की मांग और आनन-फानन में अंतरिम सरकार के सलाहकार के रूप में अमेरिका से करीबी रिश्ते रखने वाले यूनुस को बैठा देना तथा बदले में अमेरिका का अंतरिम सरकार को समर्थन और मान्यता कुछ स्वाभाविक सवाल खड़े करते हैं। यूनुस को बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के कार्यवाहक अध्यक्ष तारिक रहमान का समर्थन प्राप्त है, जो ब्रिटेन में रहते हैं। तारिक को 2023 में सजा हुई थी। उन पर 2004 में हसीना की हत्या की साजिश रचने में भूमिका निभाने का आरोप था। बीएनपी ने इस साल की शुरुआत में ‘इंडिया आउट’ नाम का अभियान चुनाव जीतने के मद्देनजर शुरू किया था। बीएनपी अपने इस अभियान को दोबारा खड़ा कर रहा है। भारत के लिए इस परिदृश्य में एकाधिक चुनौतियां खड़ी हो रही हैं।
पहली, पड़ोस- मालदीव, बांग्लादेश और संभवत: नेपाल- में ‘इंडिया आउट’ अभियान की बढ़ती हुई लोकप्रियता, जो भारत की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ वाली नीति को टक्कर देता है और चीन के बरअक्स भारत को कमजोर करता है। दूसरे, बांग्लादेशी फौज की बढ़ती राजनीतिक सक्रियता के आलोक में बांग्लादेश का उभार दूसरे पाकिस्तान के जैसा हो सकता है जो एक साथ अमेरिका और चीन से लाभ लेने के चक्कर में हो। तीसरे, ऐसा लगता है कि भारत की रणनीतिक स्वायत्तता के प्रति अमेरिका असहिष्णु होता जा रहा है। चौथे, 1971 से उलट अब भारत में घरेलू जनमत शरणार्थियों को पनाह देने के पक्ष में नहीं रह गया है। अंतिम बात, बीएनपी और जमात-ए-इस्लामी का मिलाजुला राज 1971 से पहले की स्थिति में पलटाव के संकेत दे रहा है जब भारत में उत्तर-पूर्व के उग्रवादी समूहों को बांग्लादेश पनाह देता था।
अब हम मोर्चे पर एक और दुश्मन को गवारा नहीं कर सकते। इसलिए भारत को अपने दोस्तों के साथ सक्रियता के साथ खड़ा होना चाहिए और मिलजुल कर पूर्वी पाकिस्तान वाले दौर में बांग्लादेश के वापस फिसलने की आशंकाओं को रोकना चाहिए।
(लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) लेखक पूर्व सेना उप-प्रमुख हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य हैं। विचार निजी हैं)