बात उन दिनों की है जब 2012 में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह जिंदा थे और कौल सिंह हुआ करते थे कांग्रेस अध्यक्ष। आज कुछ वर्षों पुरानी यह बातें जेहन में अचानक कौंध गई, जब टीवी और सोशल मीडिया में हिमाचल के राजनीतिक घटनाक्रम को देश देख रहा था। हिमाचल कांग्रेस में आंख दिखाने का घटनाक्रम कोई नया नहीं है। दबाव की राजनीति भी कोई नई नहीं है। हां, इतना जरूर है कि वीरभद्र परिवार को कभी किसी ‘कांधे’ की जरूरत नहीं पड़ी लेकिन इस बार कांधा भाजपा का मिला है।
उन दिनों हरियाणा के वीरेंद्र चौधरी कांग्रेस के प्रभारी हुआ करते थे। प्रदेश में धूमल की भाजपा सरकार थी और वीरभद्र विधानसभा में विपक्ष के नेता थे। विधानसभा चुनाव होने जा रहे थे और संगठन में पकड़ कौल सिंह की थी। लेकिन वीरभद्र सिंह ठहरे ‘राजा।’ कहां किसी की बात मानने वाले? अब होना था टिकटों का बंटवारा। ठाकुर कौल सिंह के अध्यक्ष रहते राजा टिकटों के मामले में कोई मात खाना नहीं चाहते थे। उस वक्त यह ‘शाही खानदान’ कई कांग्रेसियों को खटकता था, अतः संगठन के जरिए राजा पर शिकंजा बढ़ता जा रहा था। लेकिन वीरभद्र ने अपने ही अंदाज में अपने लोगों को साथ रखा और टीम बनाकर चले। आज के उप-मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री उनके खास सिपहसलारों में से थे।
टिक्का यानी विक्रमादित्य ने अपने पिता राजा से जितनी न सीखी होगी, उससे कई गुना मुकेश ने चाणक्य राजा से राजनीति के महीन गुर सीख लिए थे। वीरेंद्र चौधरी लगातार वीरभद्र के पर कतरने में लगे थे। उनका साथ दे रहा था कौल खेमा। अब सभी जानते हैं कि कौल खेमे में तब कौन-कौन था। वीरभद्र भी ठहरे निडर। दिल्ली में वे वीरेंद्र चौधरी से मिले और वहां पार्लियामेंट की सीढ़ियों पर खड़े होकर चौधरी को जमकर सुनाई और कह दिया दो टूक, “मिस्टर चौधरी, आई एम पीपुल्स किंग, इफ यू विल कन्टीन्यू आल दिस, वी आर विद राकांपा।” यानी शरद पवार वाली राकांपा में वे चले जाएंगे। हू-ब-हू यह खबर दैनिक जागरण में छप गई। मैं यह नहीं बताऊंगी कि सूत्र कौन थे, जिन्होंने सार्वजनिक स्थल पर वीरभद्र का यह रौद्र रूप देखा था।
सुबह साढ़े नौ बजे मुझे फोन आया, यह क्या छाप दिया? सब गड़बड़ हो गया। मैने सोचा, मामला कुछ ज्यादा बढ़ गया है। या तो राजा राकांपा में चले जाएंगे या फिर वीरेंद्र चौधरी और बौखला जाएंगे।
दरअसल उस समय हिमाचल में कांग्रेस का मतलब ‘राजा’, वाली बात कुंद पड़ती जा रही थी। उम्रदराज हो रहे वीरभद्र को पार्टी अब ज्यादा तवज्जे देना नहीं चाहती थी। पर राकांपा का दांव काम कर गया। वीरेंद्र चौधरी को यह समझाया गया कि यह कोई प्रेशर टैक्निक नहीं है बल्कि हिमाचल कांग्रेस का मतलब ‘राजा’ है, यह समझना होगा। दबाव रंग लाया, कौल को हटना पड़ा। राजा फिर 2013 में सत्ता में आए।
मुख्यमंत्री बने। ईडी और सीबीआइ के भयंकर दबाव को झेला, फिर भी पूरे पांच साल सत्ता चलाई। तब केंद्र में (2014) में भाजपा की मोदी सरकार बन गई थी।
अब राजा तो नहीं रहे परंतु उनकी अगली पीढ़ी यानी बेटा विक्रमादित्य और सांसद पत्नी प्रतिभा सिंह उनकी राजनीतिक विरासत को बढ़ा रहे हैं।
कैबिनेट पद से बेटे के इस्तीफे की पेशकश और पार्टी अध्यक्ष ‘माता’ प्रतिभा की पीड़ा गाहे बगाहे बयानों से सामने आती रहती है। इस बार का मजबूत कांधा भाजपा का भी दिखता है, तो वीरभद्र की छवि का भी। दबाव में न आने वाले इस राजसी परिवार की जड़ें बुशहर रियासत से जुड़ी हैं। जिनको बरसों तक वीरभद्र ने सींचा है और मंड़ी, अर्की, शिमला तक फैलाया भी है। तब के वीरेंद्र चौधरी भी कांग्रेस से भाजपा में दौड़ गए लेकिन शाही परिवार अब भी हिमाचल की कांग्रेस है। उनके बेटे, पिता के नक्शे कदम पर चलते रहेंगे या किसी कांधे का सहारा लेंगे, देखना दिलचस्प होगा।
(हाल में छपी पुस्तक शिमला की लेखक और टिप्पणीकार)