साल भर से ज्यादा हुए। मन बेतरह घायल है। कान यूक्रेन की चीख से गूंजते रहते हैं। अपनी असहायता का तीखा बोध लगातार चुभता रहता है। यह शर्म भी कम नहीं चुभती है कि हमारा देश भी नागरिकों की इस जघन्य हत्या में भागीदार है और यूक्रेन और रूस में बहते खून में से तेल छान कर जमा करने में लगा है। यह सब था कि तभी 7 अक्टूबर 2023 आया। फलस्तीनी हमास ने इजरायल पर ऐसा पाशविक हमला कर दिया कि जिसने शर्म से झुके माथे पर टनों बोझ लाद दिया। शर्म से झुका वह सर लगातार झुकता ही जा रहा है क्योंकि यह गुस्सा नहीं, आत्मग्लानि का बोझ है। असहमति, विवाद, गुस्सा, प्रतिद्वंद्विता, बदला, घृणा, कायरता और क्रूरता सबकी अपनी जगह है, लेकिन इंसानियत की भी तो जगह है न! सिकुड़ते-सिकुड़ते वह जगह अब सांस लेने लायक भी नहीं बची है।
सारी दुनिया में प्रकृति फुफकार रही है। बाढ़, आग, भूकंप से लेकर तरह-तरह के भूचालों से दुनिया घिरती जा रही है। ऐसा लगता है कि प्रकृति अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का एक-एक कर जवाब दे रही है। वह अब रोके नहीं रुकेगी। बची-खुची कमी नेता बन बैठे लोग पूरी किए दे रहे हैं। सारी दुनिया में नागरिक पिस रहा है। सारी दुनिया में सत्ता आदमखोर बनी हुई है। यह हमारी सभ्यता की सबसे अंधी और अंधेरी गुफा है। इसे हम कैसे और कब पार कर सकेंगे? जवाब देने के लिए भी सर उठता नहीं है।
फलस्तीन-इजरायल समस्या का इतिहास बहुत लंबा और पुराना है, उतना ही पुराना जितना मानव जाति की मूढ़ता का इतिहास है। यहां उसे दोहराने का अवकाश नहीं है। आंकड़ों और तारीखों का अब कोई संदर्भ भी नहीं रह गया है। कोरोना के आंकड़ों की तरह ही ये आंकड़े भी सच को बताते कम, छुपाते अधिक हैं। हमास ने जिस तरह इजरायल पर हमला किया वह उसकी मूढ़ता, ह्रदयहीनता और अदूरदर्शिता का प्रमाण है। हमास के शीर्ष राजनैतिक नेता खालिद मशाल ने कहा कि हम ऐसी चोट मारना चाहते थे कि इजरायल बिलबिला कर रह जाए, और वही हुआ। लेकिन खालिद को अब यह नहीं दीख रहा क्या कि दोनों तरफ के सामान्य निर्दोष नागरिक बिलबिला रहे हैं? आज उनके साथ कोई नहीं है सिवा विनाश और मौत के! एक बात यह भी कही जा रही है कि इजरायल और अरब देशों में जैसी आर्थिक नजदीकियां बढ़ रही थीं, उसे तोड़ने के लिए फलस्तीन ने हमास द्वारा यह आत्मघाती कदम उठाया। अब अरबों के लिए इजरायल की तरफ हाथ बढ़ाना संभव नहीं रह जाएगा। यह सच हो, तो यह कूटनीति भी कितनी अमानवीय है!
भारत के प्रधानमंत्री ने तुरंत बयान दे डाला कि भारत इजरायल के साथ खड़ा है। आजादी से पहले से इस विवाद के संदर्भ में भारत की भूमिका स्पष्ट रही है। महात्मा गांधी ने स्वयं इस मामले में हमारी विदेश-नीति की बुनियाद बना दी थी। उसे बदलने का अधिकार केवल भारत की जनता का है। विदेश मंत्रालय ने बयान दिया है कि भारत हमास की हिंसा का निषेध करता है लेकिन फलस्तीनों की आजादी पर किसी भी तरह के हमले को समर्थन नहीं देता है। प्रधानमंत्री और उनके विदेश-मंत्रालय के बीच की ऐसी खाई कैसे बनी?
इधर देखिए कि सारा अमेरिकी खेमा, पश्चिम के आका मुल्क इजरायल के समर्थन में खड़े हो गए हैं, जैसे हमें पता ही नहीं है कि यही वह खेमा है, जिसने फलस्तीन के सीने पर खंजर की नोक से इजरायल लिखा था। महात्मा गांधी ने तब भी कहा था कि हमें एक-एक यहूदी अपनी जान से भी ज्यादा प्यारा है लेकिन पश्चिमी शैतानी का सहारा ले कर फलस्तीनी घर में घुस जाएं, इसका हम समर्थन नहीं कर सकते। 1938 में उन्होंने एक विस्तृत आलेख में भारत का रुख साफ कर दिया था, “मेरी सारी सहानुभूति यहूदियों के साथ है। मैं दक्षिण अफ्रीका के दिनों से उनको करीब से जानता हूं। उनमें से कुछ के साथ मेरी ताउम्र की दोस्ती है और उनके ही माध्यम से मैंने उनके साथ हुई ज्यादतियों की बाबत जाना है। ये लोग ईसाइयत में अछूत बना दिए गए हैं। अगर तुलना ही करनी हो, तो मैं कहूंगा कि यहूदियों के साथ ईसाइयों ने जैसा व्यवहार किया है वह हिंदुओं ने अछूतों के साथ जैसा व्यवहार किया है, उसके करीब पहुंचता है। दोनों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों के संदर्भ में धार्मिक आधारों की बात की जाती है। निजी मित्रता के अलावा भी यहूदियों से मेरी सहानुभूति के व्यापक आधार हैं, लेकिन उनसे मेरी गहरी मित्रता भी मुझे न्याय का पक्ष देखने से रोक नहीं सकती है, और इसलिए यहूदियों की ‘अपना राष्ट्रीय घर’ की मांग मुझे जंचती नहीं है। इसके लिए बाइबल का आधार ढूंढा जा रहा है और फिर उसके आधार पर फलस्तीन लौटने की बात उठाई जा रही है। लेकिन जैसे संसार में सभी लोग करते हैं वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जन्मे हैं और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं, उसे ही अपना घर मानें?
“फलस्तीन उसी तरह अरबों का है, जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है याकि फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यह गलत भी होगा और अमानवीय भी कि यहूदियों को अरबों पर जबरन थोप दिया जाए। आज फलस्तीन में जो हो रहा है उसका कई नैतिक आधार नहीं है। पिछले महायुद्ध के अलावा उसका कोई औचित्य नहीं है। गर्वीले अरबों को सिर्फ इसलिए दबा दिया जाए ताकि पूरा या अधूरा फलस्तीन यहूदियों को दिया जा सके, तो यह एकदम अमानवीय कदम होगा। उचित तो यह होगा कि यहूदी जहां भी जन्मे हैं और कमा-खा रहे हैं वहां उनके साथ बराबरी का सम्मानपूर्ण व्यवहार हो। जैसे फ्रांस में जन्मे ईसाई को हम फ्रांसीसी मानते हैं वैसे ही फ्रांस में जन्मे यहूदी को भी फ्रांसीसी माना जाए; और अगर यहूदियों को फलस्तीन ही चाहिए तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि उन्हें दुनिया की उन सभी जगहों से जबरन हटाया जाए जहां वे आज हैं? याकि वे अपने मनमौज के लिए अपना दो घर चाहते हैं? ‘अपने लिए एक राष्ट्रीय घर’ के उनके इस शोर को बड़ी आसानी से यह रंग दिया जा सकता है कि इसी कारण उन्हें जर्मनी से निकाला जा रहा था।”
आजादी के बाद से कमोबेश हमारी विदेश-नीति की यही दिशा रही है। अमेरिकी और पश्चिमी खेमे की कुल कोशिश यही है कि युद्ध भी हमारी ही मुट्ठी में रहे, विराम भी हमारी ही मुट्ठी में रहे! हमने देखा है कि दोनों ही कमाई के अंतहीन अवसर देते हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे इजरायल के विफल प्रधानमंत्री नेतन्याहू ने मौके का फायदा उठा कर इजरायल के राजनैतिक नेतृत्व को अपने साथ ले लिया है। यह घटिया अवसरवादिता है। जब पूरा इजरायल उनके खिलाफ खड़ा था और वे न्यायपालिका को अपनी मुट्ठी में करने का भद्दा खेल खेल रहे थे, तब उनके हाथ ऐसा अवसर आ गया जिसने उन्हें नई बेईमानी का मौका दे दिया है।
रास्ता क्या है? यह इतना आसान है कि बहुत कठिन लगता है। 5 मई 1947 को ‘राॅयटर’ के दिल्ली स्थित संवाददाता डून कैंपबेल ने गांधी का ध्यान फिर खींचा, “फलस्तीनी समस्या का आप क्या उपाय देखते हैं?” गांधी: “यह ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है। अगर मैं यहूदी होता, तो मैं उनसे कहता, ‘ऐसी मूर्खता मत करना कि इसके लिए तुम आतंकी रास्ता अख्तियार कर लो। ऐसा करके तुम अपने ही मामले को बिगाड़ लोगे जो वैसे न्याय का एक मामला भर है।’ अगर यह मात्र राजनैतिक खींचतान है तब मैं कहूंगा कि यह सब व्यर्थ हो रहा है। आखिर यहूदियों को फलस्तीन के पीछे इस तरह क्यों पड़ जाना चाहिए? यह महान जाति है। इसके पास महान विरासतें हैं। मैं दक्षिण अफ्रीका में बरसों इनके साथ रहा हूं। अगर इसके पीछे उनकी कोई धार्मिक प्यास है, तब तो निश्चित ही इस मामले में आतंक की जगह नहीं होनी चाहिए...यहूदियों को आगे बढ़कर अरबों से दोस्ती करनी चाहिए और ब्रिटिश हो कि अमेरिकी, किसी की सहायता के बिना, यहोवा के उत्तराधिकारियों को उनकी सीख और उनकी विरासत संभालनी चाहिए।”
लेकिन किसी को, किसी की विरासत तो संभालनी नहीं है। सबको संभालनी है गद्दी! गांधी सत्ता की यह भूख पहचान रहे थे और इसलिए कैंपबेल से कहते-कहते कह गए: “यह एक ऐसी समस्या बन गया है कि जिसका करीब-करीब कोई हल नहीं है।” गांधी ने जो आशंका प्रकट की थी, उसके करीब 76 साल पूरे होने को हैं लेकिन युद्ध और विराम के बीच पिसते फलस्तीनी-इजरायली किसी हल के करीब नहीं पहुंचे हैं। विश्व की महाशक्तियां और दोनों पक्षों के सत्ताधीश पीछे हट जाएं, तो येरूशलम की संतानें अपना रास्ता खुद खोज लेंगी, लेकिन सत्य, प्रेम, करुणा के ऐसे रास्ते पर उन्हें कौन चलने देगा?
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। विचार निजी हैं)