राजनैतिक रूप से सबसे अहम हिंदी पट्टी के प्रदेश में ब्राह्मण सियासत करवट ले रही है, लेकिन कुछ अजीबोगरीब ढंग से। विडंबना देखिए कि मौजूदा सत्ता से ब्राह्मणों के मोहभंग का प्रतीक बना कानपुर के अपराध सरगना विकास दुबे के तथाकथित पुलिसिया एन्काउंटर। उसके बाद भी कई ब्राह्मण अपराधियों के पुलिसिया मुठभेड़ में मारे जाने के बाद जब ये अटकलें उठने लगीं कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की सरकार ब्राह्मणों को निशाना बना रही है जबकि अपनी जाति राजपूत के ऐसे ही दबंगों को शह दे रही है तो कांग्रेस ही नहीं, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को भी मानों भाजपा को पटखनी देने का जैसे कोई रामवाण तरकीब हाथ लग गई। इसमें दो राय नहीं कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने ही प्रदेश की भाजपा सरकार के खिलाफ सबसे मुखर मुहिम चलाई। इससे यह धारणा बनने लगी कि इकलौती कांग्रेस ही विपक्ष की भूमिका निभा रही। फिर सपा के अखिलेश यादव परशुराम की मूर्ति लगाने की तरकीब निकाल लाए तो बसपा की मायावती कहां चूकने वाली थीं, जो कम से कम एक बार ब्राह्मण समर्थन से अपने बूते सत्ता का स्वाद चख चुकी हैं।
दरअसल प्रदेश की आबादी में लगभग 12 प्रतिशत का संख्याबल रखने वाले ब्राह्मणों की राजनीति में अहमियत नब्बे के दशक में मंडल और कमंडल के साथ-साथ दलित सियासत के उभार के साथ काफी हद तक घट गई। इससे पिछड़ी जातियां और मुसलमान वोट मुलायम सिंह यादव के सपा के साथ जुड़ गए तो दलित बसपा की ओर चले गए। मंदिर आंदोलन के बाद ब्राह्मणों ने भी कांग्रेस का दामन छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। इससे कांग्रेस का जनाधार तो सिकुड़ ही, ब्राह़मणों की सत्ता में अहमियत नहीं के बराबर रह गई। भाजपा भी सत्ता में आई तो कल्याण सिंह के दौर में पिछड़ी जातियों या फिर राजनाथ सिंह के मुख्यमंत्री कार्यकाल या मौजूदा दौर में राजपूतों की ही सत्ता से नजदीकी बढ़ी। बीच-बीच में ब्राह्मणों को बसपा ने साधा तो 2007 में मायावती अपने दम पर मुख्यमंत्री बनीं।
फिलहाल भाजपा ने अयोध्या में राम मंदिर की शिला रखी तो अब भगवान परशुराम विपक्षी दलों को प्यारे हो गए हैं, जिसके सहारे वह अपनी चुनावी नैया पार लगाना चाहते हैं। असल में कानपुर में हुए बिकरू कांड और उसमें शामिल कई ब्राह्मण अपराधियों के तथाकथित एन्काउंटर में मारे जाने के बाद विपक्ष को योगी सरकार पर हमला करने का मौका मिल गया है। विपक्षी दलों का आरोप है कि योगी सरकार कानून-व्यवस्था सुधारने के नाम पर ब्राह्मणों को ही गोली का निशाना बना रही है। विपक्ष के एक नेता ने तो यहां तक कहा कि सारे इनामी और मुठभेड़ में मारे जाने वाले अपराधी ब्राह्मण बिरादरी के ही क्यों निकल रहे हैं? इस हमले से फिलहाल भाजपा बैकफुट पर नजर आ रही है।
बसपा के राष्ट्रीय महासचिव और सांसद सतीश चंद्र मिश्र ने तो विकास दुबे एन्काउंटर के बाद “दलित-ब्राह्मण भाई-भाई अब कउनौ अत्याचार नहीं कर पाई” का नारा भी गढ़ डाला है। वे तो यहां तक कह गए कि बसपा सरकार बनने के बाद ब्राह्मणों का उत्पीड़न कोई नहीं कर पाएगा। असल में मायावती को एक बार फिर से दलित-ब्राह्मण समीकरण से उम्मीद बढ़ गई है। 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा ने 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु-महेश है' का नारा दिया था। हालांकि उनका यह दांव अगले चुनावों में नहीं चल पाया था और ब्राह्मण वोट बंट गए, जिसकी वजह से 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी और फिर 2017 में भाजपा को तो पूरी तरह से ब्राह्मण का साथ मिल गया, और उसने प्रचंड बहुमत से सरकार बनाई।
लंबे समय से सत्ता से बाहर चल रही मायावती परशुराम के रूप में भाजपा के मंदिर कार्ड की तोड़ ढूढ़ रही हैं। इसीलिए उन्होंने ऐलान किए कि उनकी बसपा की सरकार बनने पर यूपी में भगवान परशुराम समेत ब्राह्मण व अन्य बिरादरी के आस्था के प्रतीकों के नाम पर सुविधायुक्त ठहरने के स्थानों का निर्माण किया जाएगा। साथ ही सपा सरकार में लगी मूर्ति से भी भव्य मूर्ति वह भगवान परशुराम की लगवाएगी। असल में मायावती ने 2007 में चुनावों से पहले इसी तरह की कवायद की थी। हालांकि सत्ता जाने के बाद बसपा में कद्दावर रहे बृजेश पाठक और रामवीर उपाध्यक्ष जैसे ब्राह्मण नेताओं ने उनसे दूरी बना ली।
बसपा की तरह समाजवादी पार्टी भी ब्राह्मणों को लुभाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ रही है। सपा के राष्ट्रीय सचिव डा. अभिषेक मिश्र ने ऐलान किया है “सामाजिक संस्था परशुराम चेतना पीठ लखनऊ में भगवान परशुराम जी की 108 फुट कांस्य की प्रतिमा स्थापित करेगी। इसके साथ भगवान परशुराम शोध संस्थान और गुरुकुल की स्थापना की जाएगी, जिसमें ब्राह्मण बिरादरी के गरीब बच्चों की शिक्षा का प्रबंध किया जाएगा।” पार्टी के एक अन्य नेता और पूर्व मंत्री मनोज पांडेय के नेतृत्व में “भगवान परशुराम की जयंती पर प्रबुद्ध सम्मेलन आयोजित किया गया।” पार्टी के परशुराम मोह पर मनोज पांडेय का कहना है कि 17 जनवरी 1997 को भगवान परशुराम जी की जयंती पर तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव और तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जनेश्वर मिश्र के सम्मुख भगवान परशुराम और क्रांतिकारी मंगल पांडेय की मूर्तियां सभी जनपदों में लगाने और उनकी जयंती पर बैठक, कार्यशाला, संगोष्ठी, सम्मेलन, गरीब ब्रह्मणों की बेटियों की शादी में सहयोग तथा पढ़ाई में सहायता करने का हम सभी कार्यकर्ताओं ने तय किया था, जो अभी भी चल रहा है। वर्तमान में 40 कमेटियां बनाकर 41 जनपदों को चिन्हित कर लिया गया है जहां इस अभियान को और आगे बढ़ना है।
यही नहीं पहली बार परशुराम जयंती पर सार्वजनिक अवकाश की घोषणा की गई थी।” सपा-बसपा के ब्राह्मण प्रेम पर भाजपा सांसद सुब्रत पाठक का कहना है, “सपा का नया ब्राह्मण प्रेम जनता की समझ से परे है। सपा के सिद्धांत हमेशा से ब्रहमणों के खिलाफ ही रहे हैं।” योगी सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री सतीश द्विवेदी ने ट्वीट कर कहा कि ब्राह्मणों को बुद्धू मत समझें। सपा प्रमुख अखिलेश यादव के पिता तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने राम भक्तों पर गोली चलवाई थी, यह उत्तर प्रदेश की जनता भूली नहीं है।
ऐसा नही है कि ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने के लिए केवल सपा और बसपा ही उन पर डोरे डाल रही है, बल्कि कांग्रेस भी नई रणनीति पर फोकस कर रही है। राज्य में पार्टी के प्रवक्ता उमाशंकर पांडेय का कहना है, “मायावती की भगवान परशुराम के प्रति इतनी अगाध श्रद्धा है तो प्रेरणा केंद्र में अपनी मूर्ति की जगह भगवान परशुराम जी की मूर्ति ही लगवातीं। चौराहे और पार्कों में भी मूर्ति लगवाई जा सकती थी, वह तो किया नहीं, अब प्रेम दिखा रही हैं।” उमाशंकर यही नहीं रुके, उनका कहना है, “सपा इतनी ब्राह्मण हितैषी है तो पंडित नेहरू, इंदिरा जी और राजीव जी को कटघरे में क्यों खड़ा करती है? समाजवादी पार्टी की कई बार सरकार बनी उसमें कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री क्यों नहीं बना? कांग्रेस ने छह ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाया।
इस ब्राह्मण राजनीति पर राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय सचिव अनुपम मिश्र कहते हैं, “भगवान परशुराम की मूर्ति बनाने से ब्रहमणों का दुख-दर्द कम नहीं होगा, उसमें जितना पैसा खर्च होगा, उसमें कुछ और जोड़कर ब्राह्मण बिरादरी के गरीब बच्चों का भविष्य उज्ज्वल किया जा सकता है। वैसे, किसी भी भगवान को जाति-धर्म में न बांटा जाए तो ही बेहतर होगा।”
साफ है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव होने में दो साल से भी कम समय बचा है, ऐसे में राजनीतिक दल अपनी-अपनी बिसात बिछा रहे हैं। विपक्ष को लगता है कि अगर भाजपा को चुनावों में पटखनी देनी है तो उन्हें सवर्णों को खुश करना होगा, फिलहाल इस समय इसके लिए उन्हें ब्राह्मण से बेहतर कोई जाति नहीं लग रही है। लेकिन यह विडंबना ही है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति के पचडों में इस कदर उलझी है कि विपक्ष को भी कोई नया मुद्दा नहीं मिल रहा है। अब देखना है कि किसकी चुनावी बाजी आगे बढ़ती है।