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जमीन की फिक्र कर गाफिल!

मोदी सरकार के खिलाफ विपक्षी गठबंधन तैयार न कर पाने की चूकों के साथ जनाधार खोने से मुकाबिल कांग्रेस अब कमान को लेकर उलझी
हार पर मंथनः कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक के दौरान कांग्रेस के नेता

दावा, वह भी मतदान के आखिरी चरण में, तो यह था कि “मोदी के लिए सारे दरवाजे बंद कर दिए” लेकिन नतीजे आए तो अपने दरवाजे बंद होते देख कांग्रेस और उसके अध्यक्ष राहुल गांधी के होश फाख्ता हैं। हार के बाद कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में उनकी निराशा कथित तौर पर इस रूप में फूटी कि वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के बदले अपने बेटों को तरजीह दी। कथित तौर पर उन्होंने इस सिलसिले में कमलनाथ, अशोक गहलोत और पी. चिदंबरम का नाम लिया। लेकिन शायद वे भूल गए या जानबूझकर चर्चा नहीं की कि कांग्रेस के ज्यादातर राज्यों के नेताओं ने बाकी दलों से गठबंधनों में फच्चर फंसाया, जिससे विपक्षी महागठबंधन का सपना बिखर गया और भाजपा या मोदी के खिलाफ एकजुट अफसाना नहीं गढ़ा जा सका।

इसके उदाहरण उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, बिहार, झारखंड से लेकर पश्चिम बंगाल तक सभी जगह देखने को मिले। इसके अलावा यह भी कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच तालमेल का अभाव और जमीन पर अपना संदेश फैलाने की कोशिश भी इतनी लचर थी कि उसके घोषणा-पत्र की बातें भी कोई असर नहीं कर पाईं, जिसे अधिकांश राजनैतिक पंडित गेमचेंजर मानने लगे थे। कांग्रेस के नेता इसी मुगालते में रहे कि मोदी सरकार की नाकामियां उन्हें खुद-ब-खुद जीत दिला देंगी, जिसका स्वाद वे एक हद तक कर्नाटक, गुजरात और बाद में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्‍थान में चख चुके थे। शायद कांग्रेस नेतृत्व यह मानता रहा कि रैलियां और रोड शो उनका जनाधार लौटा लाएगा। इसी चक्कर में प्रियंका गांधी का 'तुरुप' भी बेमानी साबित हो गया।

लेकिन चुनावी नतीजे हार ले आए तो कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में राहुल अध्यक्ष पद से इस्तीफे पर अड़े बताए जाते हैं। सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी कांग्रेस संसदीय दल के नेता बन सकते हैं, लेकिन अध्यक्ष का पद किसी और को, खासकर दक्षिण भारत से किसी को देना चाहते हैं। शायद केरल और तमिलनाडु में ठीकठाक प्रदर्शन को ध्यान में रखकर ये बातें की जा रही हैं, ताकि दक्षिण के जनाधार को मजबूत किया जा सके। इन राज्यों में आने वाले दिनों में विधानसभा चुनाव भी होने वाले हैं। हालांकि वहां भी ऐसे कद्दावर नेता अब गिनती के ही हैं। एक कयास यह भी है कि कांग्रेस का नया अध्यक्ष किसी ब्राह्मण को बनाया जाए, ताकि मुस्लिमपरस्त छवि बदले और भाजपा के हिंदुत्ववाद की भी काट हो सके। 

लेकिन नेहरू-गांधी परिवार के बिना हमेशा बिखरती रही कांग्रेस में अब भी कोई ऐसा चेहरा नजर नहीं आ रहा है, जो कांग्रेस को सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचा सके। लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि जिस तरह से कांग्रेस नेता पार्टी से ज्यादा परिवार को महत्व देने लगे हैं, उसको देखते हुए राहुल गांधी को रणनीतिक तौर पर कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ने की बात करनी पड़ रही है। मानमनौवल के बाद भी उनका जिद पर अड़े रहना बताता है कि वे बड़े नेताओं को झटका देना चाहते हैं। राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के फैसले के पीछे दो मायने निकाले जा रहे हैं, एक तो राहुल गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने से अपने बेटे-बेटियों के लिए राजनैतिक जमीन तैयार कर रहे नेता भी दरकिनार होंगे, वहीं भाजपा भी गांधी परिवार पर आरोप लगाने की स्थिति में नहीं होगी। मतलब साफ है कि वे भी परिवारवाद के आरोपों से मुक्त होकर पार्टी के लिए काम करना चाहते हैं। 

राहुल गांधी को मनाने के लिए कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा, अहमद पटेल, सचिन पायलट, रणदीप सुरजेवाला और पार्टी के दूसरे नेता भी लगातार जुटे हैं। यही नहीं, यूपीए के सहयोगी दल भी उन्हें अध्यक्ष पद न छोड़ने की बातें कर रहे हैं। राजद के लालू यादव ने ट्वीट कर कहा है कि उन्हें पद नहीं छोड़ना चाहिए। द्रमुक के अध्यक्ष स्टालिन ने उनसे ऐसा ही आग्रह किया है।

लेकिन सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी ने पार्टी के एक बड़े नेता से कहा है कि आप एक महीना ले लीजिए, मगर मेरा विकल्प ढूंढ़ लीजिए। मैं पद छोड़ने के लिए मन बना चुका हूं। यही नहीं, कथित तौर पर राहुल ने यह भी कहा है कि प्रियंका गांधी को इन सभी से दूर रखना चाहिए, किसी भी हालत में वे मेरी जगह अध्यक्ष नहीं बनेंगी। राहुल गांधी ने कहा कि मैं लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करने को तैयार हूं। किसी अन्य भूमिका में भी मैं काम कर सकता हूं, पार्टी को मजबूत करने के लिए काम करता रहूंगा, लेकिन अध्यक्ष नहीं रहूंगा।

राहुल गांधी को 2019 के लोकसभा में कांग्रेस की स्थिति काफी मजबूत होने की उम्मीद थी। वे आक्रामक प्रचार कर रहे थे और प्रधानमंत्री पर सीधे हमले भी कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस 52 सीटों पर ही अटक गई। 2014 में उसे 44 सीटें मिली थीं। कांग्रेस में एक धड़े का यह भी मानना है कि पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान के बालाकोट में जवाबी एयरस्ट्राइक से चुनावों में भाजपा के पक्ष में बने राष्ट्रवाद के माहौल का काट कांग्रेस नहीं तलाश पाई। कथित तौर पर कुछ कांग्रेसी नेता यह भी मानते हैं कि ‘चौकीदार चोर है’ के नारे का भी उलटा असर हुआ। कहते हैं, कार्यकारिणी की बैठक में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इसे उठाया, तो राहुल भड़क उठे।

राहुल ने कहा कि अग्रणी पंक्ति के तमाम कांग्रेसी नेताओं के चुनाव प्रचार में दिए भाषणों की रिकॉर्डिंग खंगाल यह पता लगाया जाए कि उन्होंने अपने भाषणों में कितनी बार राफेल सौदे में हुए भ्रष्टाचार का जिक्र किया और 'चौकीदार चोर है' के नारे के जरिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर प्रहार किया? एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने आउटलुक से हार के कारणों का जिक्र करते हुए कहा, “भाजपा झूठ बेचने में कामयाब रही और कांग्रेस सच नहीं बता पाई।” यही मलाल राहुल गांधी ने भी कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में जताया।

कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक, हार के कारणों पर मंथन के साथ अगला कदम पार्टी संगठन में बूथ-ब्लॉक स्तर से ही ऐसे बड़े परिवर्तन की तैयारी है, जो कांग्रेस में नई ऊर्जा फूंक सके। हरियाणा कांग्रेस के एक बड़े पदाधिकारी मानते हैं कि धड़ों में बंटी कांग्रेस के हरियाणा के कार्यकर्ता चुनाव में भले ही एकजुट रहे, लेकिन संगठनात्मक ढांचे के अभाव में हार की जिम्मेदारी तय नहीं हो सकी है। पांच महीने पहले तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव में जिस तरह कांग्रेस की परफॉर्मेंस रही, उससे लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी की उम्मीदें बढ़ गई थीं, लेकिन तीनों राज्यों ने ही उन्हें निराश कर दिया। राजस्थान में तो खाता ही नहीं खुला।

मध्य प्रदेश में दो से घटकर एक सीट हो गई। छत्तीसगढ़ में जरूर एक सीट से दो हुई। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल स्टार प्रचारक के तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश गए। राजस्थान और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अपने पुत्रों के लोकसभा क्षेत्र से ज्यादा बाहर नहीं निकल सके। कमलनाथ तो अपने बेटे को जिता लाए, लेकिन राजस्थान के मुख्यमंत्री अपने बेटे को भी नहीं जिता पाए। हरियाणा में कुलदीप बिश्नोई अपने बेटे भव्य बिश्नोई को नहीं जिता पाए। पंजाब में दो साल पुरानी कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने 13 में से 8 सीटें जिता कर मोदी-मैजिक को मोड़ दिया। इसके बावजूद पंजाब प्रदेश कांग्रेस पद से सुनील जाखड़ ने नैतिकता के आधार पर इस्तीफा इसलिए दिया कि वे फिल्म स्टार सनी देओल के स्टारडम के आगे अपनी सीट हार गए।

आउटलुक से जाखड़ ने कहा कि देश में चली कथित राष्ट्रवाद और मोदी की हवा के विपरित भले ही पार्टी का पंजाब में प्रदर्शन बेहतर रहा है, लेकिन अपनी हार की वजह से उन्हें पद पर रहने का अधिकार नहीं है। यूपी, झारखंड, असम, ओडिशा और कर्नाटक के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्षों के इस्तीफे भी आ चुके हैं। लेकिन सच्चाई तो यही है कि जमीन पर कांग्रेस का कहीं काम नहीं दिखता।

2014 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले शुरू हुए कांग्रेस के कद्दावर नेताओं के भाजपा में पलायन को रोकने की दिशा में भी कोई कारगर कदम नहीं उठाए जा सके। पार्टी छोड़कर गए वरिष्ठ नेताओं की वापसी और पलायन रोकने के गंभीर प्रयास नहीं हो पाए। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि भाजपा ने ईवीएम में नहीं, बल्कि लोगों के दिमागों से ऐसी छेड़छाड़ की है जिसे समय रहते ठीक नहीं किया गया तो इसका असर दूर करने में दशक तक लग सकते हैं। लोकसभा नतीजों के बाद जिस तरह का घटनाक्रम चल पड़ा है, उससे एक बात साफ लगने लगी है कि राहुल गांधी को हार की वजह समझ में आ गई है और आने वाले दिनों में उसे ठीक करने में जुटेंगे भी।

अभी राहुल के सामने चुनौती है कि कांग्रेस की कमान किसे सौंपें। इस्‍तीफे का मामला लंबा खिंचने का मतलब है कि वे फैसला नहीं बदलना चाहते। अब फैसला बदले तो भाजपा को हमले करने के लिए मुद्दा मिल जाएगा। लेकिन वे अगर वाकई कांग्रेस में जान फूंकने के प्रति गंभीर हैं, तो उन्हें जमीनी स्तर पर पार्टी को मजबूत करना होगा।

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