कांग्रेस पर भरोसा रखिए कि वह अपने अपमानजनक चुनावी हार को अपना ‘हार’ बना लेगी। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे जैसे ही आने लगे, यह जाहिर हो गया कि कांग्रेस, राजद नेतृत्व वाले महागठबंधन में सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई, जिसका प्रदर्शन वह लगातार करती आ रही है। कांग्रेस ने राजद और वामपंथी पार्टियों के गठबंधन में तेजस्वी यादव पर दबाव बनाकर राज्य की 243 सीटों में 70 सीटें हासिल कर लीं और गठबंधन में सबसे खराब प्रदर्शन किया। कांग्रेस वोट प्रतिशत में तीन फीसदी बढ़ोतरी के बावजूद महज 19 सीटें ही जीत पाई। फिर भी नतीजे आने के बाद, बिहार चुनाव के लिए कांग्रेस के मीडिया पैनल के प्रमुख पवन खेड़ा ने कहा, “कांग्रेस पार्टी ने राज्य की सबसे कठिन 70 सीटों पर चुनाव लड़ा, जो परंपरागत एनडीए के गढ़ थे,” क्योंकि “वहां से किसी को तो लड़ना ही था।”
दरअसल इन कठिन सवालों का जवाब कांग्रेस को देना ही चाहिए, या कम से कम इन पर आत्मनिरीक्षण तो करना ही चाहिए। चुनाव अभियान शुरू होने से पहले ही यह सवाल घुमड़ने लगा था कि कांग्रेस अपनी क्षमता से ज्यादा सीटों की मांग कर रही है। ये सवाल सिर्फ राजद की ओर से ही नहीं, बल्कि दूसरे हलकों से भी उठ रहे थे। हाल के दौर में बिहार में कांग्रेस का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन 2015 का है, जिसमें उसने 41 सीटों में से 27 पर जीत हासिल की थी। लेकिन वह चुनावी जीत अलग परिस्थितियों में हुई थी। तब वह राजद, जदयू के महागठबंधन का हिस्सा थी, जो दो-तिहाई बहुमत से जीता था। लेकिन पार्टी ने इस वास्तविकता को नजरअंदाज करके इस बार के गठबंधन में 70 सीटों की मांग कर दी।
पार्टी के बिहार प्रभारी शक्तिसिंह गोहिल पार्टी के खराब प्रदर्शन के लिए कई वजहों को दोषी मानते हैं। वे कहते हैं, “कांग्रेस को कई कठिन सीटों पर चुनाव लड़ना पड़ा और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम की वजह से वोट बंट गए।” हालांकि, उन्होंने इस बात का जवाब देने से इनकार कर दिया कि कैसे इन वजहों ने राजद या वाम दलों के प्रदर्शन पर असर नहीं डाला। वाम दल तो संसाधनों की कमी से भी जूझ रहे थे।
कांग्रेस का सबसे खराब प्रदर्शन मुस्लिम बहुल सीमांचल क्षेत्र में था, जहां उसने 2015 में 10 सीटें हासिल की थीं, लेकिन इस चुनाव में वह सिर्फ तीन सीटों पर सिमट गई। पार्टी ने किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार के सीमांचल जिलों में एआइएमआइएम के उम्मीदवारों पर दोष मढ़ा, जिन्होंने “कांग्रेस की परंपरागत सीटें जीतीं या वोट काटकर एनडीए की मदद की।” हालांकि, क्षेत्र के एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ने आउटलुक को बताया कि सीमांचल से ऐसी ही उम्मीद थी क्योंकि, “अब हम मुसलमानों के लिए कुछ भी नहीं करते। मुस्लिम समुदाय एआइएमआइएम की ओर बढ़ रहा है क्योंकि ओवैसी उनके मुद्दों को मजबूती से उठाते हैं। हमारे नेताओं ने अयोध्या में राम मंदिर के फैसले जैसे मुद्दों पर लड़ने से मना कर दिया। अब उन्हें एआइएमआइएम के बढ़ते आधार को दोष क्यों देना चाहिए?”
चुनाव अभियान के शुरू होती ही बिहार कांग्रेस में पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व की उदासीनता के खिलाफ खुसुर-फुसुर शुरू हो गई थी। एक पूर्व विधायक का कहना है, “राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा हमारे स्टार प्रचारक थे... राहुल ने कुछेक रैलियां कीं और गायब हो गए, प्रियंका तो बिहार आईं ही नहीं। रणदीप सुरजेवाला जैसे केंद्रीय नेताओं ने स्थानीय नेताओं के लिए केवल चीजों को मुश्किल ही बनाया। उनका ध्यान प्रेस कॉन्फ्रेंस में सुर्खियों में बने रहने में ही ज्यादा लगा रहा।”
बिहार की हार ऐसे समय आई, जब पार्टी का एक वर्ग फिर से राहुल को पार्टी अध्यक्ष के रूप में वापसी पर जोर दे रहा है। हालांकि, बिहार चुनाव प्रचार में राहुल का गैर-उत्साही नेतृत्व और मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा गुजरात के उपचुनावों में पार्टी की हार से एक बार फिर पार्टी में असंतुष्ट आवाजें मुख्र हो सकती हैं, जिसकी शुरुआत कुछ महीने पहले, जुलाई में 23 वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के नेतृत्व और संगठन के ढांचे में सुधार की मांग करके की थी। लेकिन क्या कांग्रेस नेतृत्व को इसकी परवाह है?