छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव होने से करीब साल भर पहले ही भाजपा ने 90 सदस्यीय विधानसभा में 65 प्लस सीटें जीतने का लक्ष्य तय कर लिया था। लेकिन, बदलाव की बयार इतनी तेज थी कि जब नतीजे आए तो उसका लक्ष्य कांग्रेस की मुट्ठी में नजर आया। कांग्रेस ने 68 सीटों पर फतह हासिल की तो 15 साल से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा 15 सीटों पर सिमट गई। किंग मेकर बनने का हसरत पाले राज्य के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी कीपार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ और बसपा का गठबंधन भी गुल खिलाने में नाकाम रहा। जोगी कांग्रेस को पांच तो उसके पार्टनर बसपा को केवल दो सीटों पर ही सफलता मिल पाई।
इस तरह के अभूतपूर्व जनादेश की कल्पना न तो जीतने वाले कांग्रेस ने की थी और न ही हारने वाली भाजपा ने। हालांकि संयुक्त मध्य प्रदेश के जमाने से ही छत्तीसगढ़ का इलाका कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। 2000 में अस्तित्व में आए राज्य में 2003 के बाद हालात इस तरह बदले कि लगातार तीन चुनावों में उसे हार का स्वाद चखना पड़ा। लेकिन, इस बार एंटी इंकंबेंसी और कांग्रेस के नारे ‘वक्त है बदलाव का’ के सामने डॉ. रमन सिंह का विकास फीका पड़ गया।
भाजपा को यकीन था कि जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ और बसपा का गठबंधन एंटी इंकंबेंसी फैक्टर की काट साबित होगा। स्थानीय मुद्दों और क्षेत्रीयता को हवा देकर भी जोगी लोगों में वह भरोसा नहीं पैदा कर पाए जिसकी आस उनसे उनकी पार्टी और भाजपा ने लगा रखी थी। आखिर में ज्यादातर सीटों पर उनके उम्मीदवार वोटकटवा ही साबित हुए। अजीत जोगी और उनकी पत्नी रेणु जोगी चुनाव जीतने में भले सफल रहे लेकिन बसपा के टिकट पर लड़ी उनकी बहू ऋचा जोगी परास्त हो गईं। बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस प्रदर्शन के लिए जोगी को जिम्मेदार ठहराया है। उनके तेवर से साफ है कि अब यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चल पाएगा।
भाजपा ने रमन सिंह के चेहरे को आगे रख कर चुनाव लड़ा। नारा भी दिया था- 'रमन पर विश्वास, कमल संग विकास।' लेकिन, रमन सिंह की खुद की लीड भी इस बार पिछले चुनाव से काफी कम हो गई। इतना ही नहीं, उनके गृहनगर कवर्धा से कांग्रेस के मोहम्मद अकबर ने 59 हजार से अधिक मतों से जीत का रिकॉर्ड बना डाला। वहीं, कांग्रेस ने किसी को मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने के बजाय सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ा। प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल, नेता प्रतिपक्ष टी.एस. सिंहदेव, चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत और सांसद ताम्रध्वज साहू सहित अपने सभी बड़े नेताओं को चुनाव मैदान में उतारा।
कांग्रेस ने कई नए चेहरों पर भी दांव लगाया था। भाजपा यह जोखिम नहीं उठा पाई और इसकी कीमत उसे सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी है। राज्य सरकार के कई मंत्रियों को लेकर जनता में नाराजगी थी। इसके बावजूद रमन कैबिनेट की इकलौती महिला चेहरा रमशीला साहू के अलावा किसी का टिकट नहीं काटा गया। नतीजतन, रमन के बारह मंत्रियों में आठ चुनावी मैदान में परास्त हो गए। इनमें से कई को कांग्रेस के नए चेहरों ने धूल चटाई है। विधानसभा अध्यक्ष रहे गौरीशंकर अग्रवाल भी हार गए। लेकिन, टी.एस. सिंहदेव ने जीत हासिल कर नेता प्रतिपक्ष के चुनाव न जीत पाने का मिथक इस बार तोड़ दिया। भाजपा प्रवक्ता और छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल के उपाध्यक्ष केदारनाथ गुप्ता ने बताया कि किसानों के लिए किए कांग्रेस के लुभावने वादे और कुछ भाजपा प्रत्याशियों के खिलाफ नाराजगी हार का बड़ा कारण है। हालांकि, लोगों को लुभाने में रमन सरकार ने भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखा था। चुनाव से पहले लोगों को मोबाइल दिए। तेंदूपत्ता और धान का बोनस बांटा। लेकिन, जनता का आक्रोश कम नहीं हो पाया। खासकर किसानों में वादे के बावजूद पांच साल का बोनस नहीं देने और नौकरशाही के बढ़ते प्रभाव को लेकर खासी नाराजगी थी।
"चुनाव मेरे चेहरे पर लड़ा गया, इसलिए मैं हार की नैतिक जिम्मेदारी लेता हूं। 15 साल तक जनता ने मुझ पर विश्वास रखा, इसका एहसान न चुका पाऊंगा"
रमन सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री
कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता सुरेंद्र शर्मा ने बताया, “इस बार कांग्रेस संगठित होकर चुनाव लड़ी। जनभावनाओं के अनुरूप मुद्दे उठाए। इसके कारण ही पार्टी को इतनी जबरदस्त जीत मिली है।” मध्य वर्ग और व्यापारी भाजपा के परंपरागत समर्थक माने जाते हैं। लेकिन, पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ-साथ जीएसटी और नोटबंदी जैसे फैसलों ने उन्हें भी पार्टी से दूर कर दिया। इसलिए शहरी सीटों पर भी भाजपा को शिकस्त झेलनी पड़ी। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित दस सीटों पर जीत दर्ज की थी। इस बार इन सीटों के साथ-साथ उसकी नजर अनुसूचित जाति बहुल 25 सीटों पर भी थी। इन सीटों पर उसकी उम्मीदें जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़-बसपा गठबंधन के प्रदर्शन पर टिकी थी। लेकिन, जब नतीजे आए तो पता चला कि गठबंधन के प्रत्याशियों ने कांग्रेस के बजाय भाजपा उम्मीदवारों को ज्यादा नुकसान पहुंचाया।
तेंदूपत्ता बोनस और नमक बांटकर भाजपा आदिवासियों का भरोसा नहीं जीत पाई। बस्तर संभाग में उसे 12 में से केवल एक सीट दंतेवाड़ा पर सफलता मिली। सरगुजा संभाग में खाता भी नहीं खुला। करीब 34 सीटों पर बागी भाजपा के अधिकृत प्रत्याशी का खेल बिगाड़ने में कामयाब रहे। कई सीटों पर पसंद का प्रत्याशी नहीं होने पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने पार्टी उम्मीदवार के खिलाफ भी काम किया। आइएएस की नौकरी छोड़ चुनाव मैदान में उतरे ओ.पी. चौधरी को खरसिया में इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। ऐन चुनाव के वक्त भाजपा में गए रामदयाल उइके को भी हार का सामना करना पड़ा। प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष रहे उइके मुख्यमंत्री पद के दावेदार माने जाते थे। इन सबके असर से भाजपा का वोट शेयर करीब आठ फीसदी गिर गया। 2013 के विधानसभा चुनाव के 41.04 फीसदी वोटों के मुकाबले उसे इस बार 33 फीसदी लोगों का समर्थन ही मिला। कांग्रेस का वोट शेयर 2013 के 40.29 फीसदी से बढ़कर इस बार 43 फीसदी हो गया। 2013 में भाजपा को 49 और कांग्रेस को 39 सीटों पर सफलता मिली थी।
"छत्तीसगढ़ की जनता ने कांग्रेस की सहज और सरल तरीके से की गई बातों पर विश्वास जताया। दस दिन के भीतर किसानों से किए वादे पूरा करेंगे"
डॉ. चरणदास महंत, वरिष्ठ नेता, कांग्रेस
कांग्रेस महासचिव और छत्तीसगढ़ के प्रभारी पी.एल. पुनिया ने आउटलुक को बताया, “छत्तीसगढ़ की जनता ने राहुल गांधी पर भरोसा जताते हुए जोगी कांग्रेस और बसपा गठबंधन को नापाक करार दिया है। अब पार्टी ईमानदारी से घोषणा-पत्र लागू करेगी।” हालांकि जनता के उम्मीदों पर कांग्रेस कितना खरा उतरती है, यह तो समय ही बताएगा।
कांग्रेस के गेमचेंजर वादे
- किसानों के लिए कर्ज माफी, धान का समर्थन मूल्य 2,500 रुपये क्विंटल
-बिजली बिल आधा, पांच हॉर्स पावर तक के पंपों को मुफ्त बिजली
-नक्सल क्षेत्र में पुनर्वास और बस्तर बटालियन बनाने का वादा
- सभी विभागों में खाली पड़े पदों पर भर्ती, स्थानीय लोगों को रोजगार देने का कानून, बेरोजगारी भत्ता
- एपीएल और बीपीएल परिवारों को हर महीने 35 किलो चावल, पूर्ण शराबबंदी
- अनुसूचित जाति का आरक्षण 12 फीसदी से बढ़ाकर 16 फीसदी करना