Advertisement

परिसीमन/नजरियाः इससे तो ढहेगा संघीय ताना-बाना

सवाल है कि परिसीमन कैसे होना चाहिए, क्या प्रगति की कीमत पर जनसंख्या वृद्धि को पुरस्कृत करना चाहिए?
विरोधः चेन्नै की बैठक में मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, पिनराई विजयन और भगवंत मान

एक व्यक्ति, एक वोट; एक वोट, एक मूल्य’’ किसी विशाल राष्ट्र के लिए एक आदर्श स्थिति है। ‘एक व्यक्ति, एक वोट’ में तो कोई दोष नहीं है, लेकिन राज्यों के संघ भारत में असल समस्या प्रत्येक वोट के मूल्य को निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन के माध्यम से बराबर करने में है, जो यह तय करे कि सभी क्षेत्रों में मतदाताओं की संख्या लगभग समान हो। भारतीय गणराज्य मोटे तौर पर उन विशाल हिंदी भाषी राज्यों के इर्द-गिर्द खड़ा है, जिनमें गरीब आबादी लगातार बढ़ती जा रही है। अन्य राज्य, विशेष रूप से वे दक्षिणी राज्य जिन्होंने परिवार नियोजन को सफलतापूर्वक लागू कर इस प्रक्रिया में ठीकठाक समृद्धि हासिल की है, वे डरते हैं कि कहीं यह संवैधानिक ढांचा लगातार विस्तृत होते सिंधु-गंगा के मैदानी झुंडों के हाथों उन्हें महज राजस्व उगाही के शक्तिहीन स्रोतों में न बदल डाले। इसलिए लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के निष्पक्ष परिसीमन का विचार कठोर प्रतिक्रियाओं को जन्म देता है।

जनसंख्या आधारित प्रतिनिधित्व देखने में सहज लगता है- अधिक लोगों का मतलब है, अधिक सीटें। फिर भी, भारत में यह तर्क असंतुलन पैदा करता है। इस चक्कर में दक्षिण भारत को दंड झेलना पड़ता है, जिसकी जनसंख्या वृद्धि दर कम है। उच्च प्रजनन दर वाला उत्तर भारत अपने आप पुरस्कृत हो जाता है। इसे लोकतंत्र कहेंगे या संघीय निष्पक्षता की एक विकृति? भारतीय संघ विशिष्ट भाषाओं, संस्कृतियों और क्षेत्रों का एक समूह भी है। संघीय स्तर पर इस मिश्रण को एक सजातीय, समरूप इकाई में संयोजित करने से सहस्राब्दियों में निर्मित पहचान और संस्कृतियां समाप्त हो जा सकती हैं।

भारतीय संविधान ने मूल रूप से आवधिक परिसीमन की परिकल्पना की थी। संविधान निर्माताओं का मानना था कि बदलती जनसंख्या पैटर्न के आधार पर सीटों को बंटवारा किया जाना चाहिए और अनुच्छेद 82 इसे अनिवार्य बनाता है। 1976 में इंदिरा गांधी की आपातकालीन सरकार ने 1971 की जनगणना द्वारा निर्धारित आबादी के आधार पर परिसीमन को रोक देने का विकल्प चुना। उनकी प्राथमिकता जनसंख्या नियंत्रण की थी।

इस मामले में दक्षिणी राज्यों ने सराहनीय प्रदर्शन किया। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक ने परिवार नियोजन को अपनाया। वहां प्रजनन दर में गिरावट आई। उत्तर भारत, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश इस मामले में पिछड़ गए। अब दक्षिणी राज्यों का मानना है कि वे परिवार नियोजन में अपनी सफलता की अनुचित कीमत चुका रहे हैं।

ये आशंकाएं निराधार नहीं हैं। कई विवेकपूर्ण सरकारों ने इसे संबोधित किया है। 1976 के परिसीमन को रोक देने का फैसला बार-बार आगे बढ़ाया गया था। 2001 में किए गए संशोधन ने किसी भी बदलाव को 2026 तक आगे धकेल दिया। अगर अब रोक हटा ली जाती है, तो इस देश का राजनैतिक मानचित्र नाटकीय रूप से बदल जाएगा। उत्तर की सीटें बढ़ेंगी, दक्षिण का प्रभाव कम हो जाएगा। यह उचित है? बिलकुल नहीं। प्रतिनिधित्व केवल संख्या का मसला नहीं है। यह राजकाज से ताल्लुक रखता है। यह प्रयास और प्रगति से जुड़ा हुआ है।

जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर ने एक बार अपने अनोखे अंदाज में लिखा था, ‘‘सामाजिक न्याय का कोई गणितीय हिसाब नहीं है। यह निष्पक्षता प्राप्त करने के लिए प्रतिस्पर्धी हितों को संतुलित करने की कला है।’’ परिसीमन की बहस में इस नाजुक संतुलन को साधे जाने की आवश्यकता है। केवल जनसंख्या वृद्धि को पुरस्कृत करना प्रगति को दंडित करता है। इससे एक खतरनाक संदेश जाता है कि अपनी आबादी को नियंत्रित करें और अपनी आवाज को खो दें।

तमिलनाडु के एक प्रमुख नेता ने 2018 में एक सार्वजनिक मंच से टिप्पणी की थी, ‘‘अगर हमें पता होता कि जनसंख्या को नियंत्रित करने से हमारी राजनैतिक शक्ति कम हो जाएगी, तो हमने दो बार सोचा होता।’’ यह कोई बेकार की टिप्पणी नहीं थी। यह वास्तविक चिंता को दर्शाती है। तमिलनाडु में प्रजनन की दर इतना नीचे गिर चुकी है कि पलटाव संभव नहीं है, फिर भी राज्य को सीटों का नुकसान होना तय है जबकि उत्तर प्रदेश को सीटों का फायदा होगा क्योंकि उसकी प्रजनन दर दोगुनी है।

भारत को दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने पर गर्व है, लेकिन लोकतंत्र का मतलब बहुमत का शासन नहीं है। यह अल्पसंख्यकों की रक्षा से भी ताल्लुक रखता है। प्रगतिशील नीतियों, कुशल शासन और आर्थिक योगदान देने वाले दक्षिण भारत को जनसांख्या के लिहाज से अल्पसंख्यक के रूप में नहीं बरता जा सकता है। बीआर आंबेडकर ने हमें बहुसंख्यकों के अत्याचार के खिलाफ चेताया था। उन्हें डर था कि अगर केवल संख्याबल ही सत्ता को तय करने लगा, तो भारत का संघीय ढांचा विकृत हो सकता है। परिसीमन पर वर्तमान दुविधा उनकी चेतावनी को प्रतिध्वनित करती है।

उत्तर-दक्षिण विभाजन वास्तविक है। यह आर्थिक, सांस्कृतिक और अब राजनैतिक भी है। दक्षिण के राज्य भारत की अर्थव्यवस्था में दूसरों से ज्यादा योगदान देते हैं। तमिलनाडु और कर्नाटक औद्योगिक केंद्र हैं। केरल मानव विकास सूचकांकों में सबसे आगे है। आंध्र प्रदेश और तेलंगाना प्रौद्योगिकी और नवाचार के केंद्र हैं। फिर भी, इन राज्यों के संसद में हाशिये पर जाने का खतरा है। राजकोषीय असंतुलन का एक मुद्दा भी है। दक्षिणी राज्य करों में अधिक योगदान देते हैं लेकिन बदले में कम प्राप्त करते हैं। इस असंतुलन को न चाहते हुए भी बरदाश्त करना पड़ता है, लेकिन यह राजकोषीय असमानता जब राजनैतिक शक्ति के क्षरण के साथ मिल जाती है, तो विस्फोटक हो सकती है। इंडिया आफ्टर गांधी पुस्तक में रामचंद्र गुहा ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि क्षेत्रीय असंतुलन किस तरह संघीय व्यवस्था को अस्थिर कर सकते हैं। वे लिखते हैं, ‘‘जब विभिन्न क्षेत्रों को लगता है कि वे जितना प्राप्त करते हैं उससे अधिक योगदान दे रहे हैं और साथ में अपनी राजनैतिक शक्ति भी खो रहे हैं, तो एकता के बंधन लड़खड़ाने लगते हैं।’’

हमें एक नए फार्मूले की जरूरत है, जो प्रगति के साथ जनसंख्या को संतुलित कर सके। ऐसा फार्मूला जो न केवल संख्या बल्कि राजकाज के परिणामों को भी पहचानता हो। सीटों का आवंटन जनसंख्या, विकास सूचकांकों और राजकोषीय योगदान जैसे कारकों के संयोजन के आधार पर किया जा सकता है। यह राजनैतिक शक्ति का अधिक न्यायसंगत वितरण तय करेगा। संविधान सभा ने इन मुद्दों पर बहस की थी। अर्थशास्त्री तथा सभा के सदस्य केटी शाह को जनसंख्या आधारित प्रणाली की चुनौतियों का पूर्वाभास था। उनकी चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया था। आज वह हमारे सामने आकर खड़ी हो गई है।

इस संदर्भ में एक संविधान संशोधन अपरिहार्य हो सकता है। नए मानदंडों को शामिल करने के लिए अनुच्छेद 82 पर फिर से काम किया जा सकता है। प्रतिनिधित्व निर्धारित करने में विकास के परिणामों, राजकोषीय जिम्मेदारी और शासन मानकों की भूमिका होनी चाहिए। दक्षिण के राज्य तरजीह व्यवहार के लिए नहीं कह रहे, वे निष्पक्षता की मांग कर रहे हैं। दक्षिण के लिए एक उचित सौदा समूचे भारत के लिए उचित सौदा होगा।

प्रगतिशील राज्यों की आवाजों को मजबूत करना संघ को मजबूत करता है। संघ आधारित अन्य देशों ने भी इसी तरह की चुनौतियों का सामना किया है। अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में ऐसे मॉडल हैं, जो क्षेत्रीय समता के साथ जनसंख्या को संतुलित करते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका 100 सदस्यीय सीनेट के माध्यम से अपने संघ को संतुलित करता है, जहां कैलिफोर्निया और टेक्सस जैसे बहुत बड़े राज्यों और वायोमिंग और साउथ डकोटा जैसे बहुत छोटे राज्यों को बराबर दो-दो सीटें प्राप्त हैं।

प्रश्न यह नहीं है कि परिसीमन होना चाहिए या नहीं। सवाल यह है कि यह कैसे होना चाहिए। क्या भारत को प्रगति की कीमत पर जनसंख्या वृद्धि को पुरस्कृत करना चाहिए? क्या शासन की उत्कृष्टता को दंडित किया जाना चाहिए? ये नारेबाजी वाले मसले नहीं, भारत के भविष्य के लिए मौलिक सवाल हैं। हाल ही में एक विधिक सेमिनार में चेन्नै के एक युवा वकील ने पूछा था, ‘‘अगर तमिलनाडु की आबादी उत्तर प्रदेश की तरह बढ़ी होती, तो क्या हमें संसद में ज्यादा सुना जाता?’’ 

परिसीमन यांत्रिक रूप से किया गया तो यह भारत के संघीय ताने-बाने को खंडित कर सकता है। समझदारी से इसे किया जाए, तो लोकतंत्र मजबूत हो सकता है। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने कहा था, ‘‘संविधान कोई ठोस दस्तावेज नहीं है। यह जीवित इकाई है, जो राष्ट्र के साथ विकसित होती है।’’ भारत के परिसीमन में यह विकास, निष्पक्षता प्रतिबिंबित होनी चाहिए, न्याय झलकना चाहिए। इससे कुछ भी कम संविधान निर्माताओं की दृष्टि के साथ विश्वासघात होगा।

(सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता, विचार निजी हैं।)

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement