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राजनैतिक बंदी/इंटरव्यू/हेम मिश्रा: “न्यायिक तंत्र में भरोसा कायम है”

एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता होने के नाते मैं भी सामाजिक न्याय से जुड़े ऐसे आंदोलनों के साथ जुड़ गया। मैंने फर्जी गिरफ्तारियों पर अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी। इसी के कारण मुझे गिरफ्तार किया गया
हेम मिश्रा

हेम मिश्रा को 2013 में महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले से गिरफ्तार किया गया था। उस वक्त वे दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से जुड़े थे। उनके ऊपर प्रतिबंधित संगठन सीपीआइ (माओवादी) का संदेशवाहक होने और देश के खिलाफ जंग छेड़ने का आरोप लगाया गया। गढ़चिरौली की सत्र अदालत ने 7 मार्च, 2017 को हेम और पांच अन्य व्यक्तियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। बॉम्बे हाइकोर्ट की नागपुर बेंच ने बीते 5 मार्च को इन सभी को बरी कर दिया। रिहाई के बाद हेम मिश्रा ने अपने कैद की अवधि, मुकदमे और अनुभवों पर आउटलुक के विक्रम राज से बात की।

आपको किन परिस्थितियों में गिरफ्तार किया गया था?

मैं उसे गिरफ्तारी नहीं, अपहरण कहता हूं। बात अगस्त 2013 की है जब मैं दिल्लीे से डॉ. प्रकाश आम्टे से मिलने गया था। वे आदिवासियों की स्वास्‍थ्य समस्याओं पर काम कर रहे थे। मैं उनके काम को जानना चाहता था। दिल्ली से मैं 19 तारीख को चला और 20 तारीख को सुबह दस बजे चंद्रपुर जिले के बल्लारशाह स्टेशन पर उतरा। मुझे हेमलकसा की बस पकड़नी थी जहां प्रकाश आम्टे का अस्पताल है। मैं बस पकड़ने के लिए स्टेशन से बाहर आ रहा था कि अचानक सादे कपड़ों में कुछ लोग आए और मुझे उठा ले गए। समझ नहीं आया कि मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ क्योंकि वहां मेरी किसी से कोई दुश्मनी नहीं थी। उन्होंने मुझे एक वैन में डाल दिया। अगले तीन दिनों तक मुझे अलग-अलग जगहों पर ऐसे ही रखा गया। उन्होंेने मेरी आंखों पर पट्टी बांध दी थी और मुझे सोने नहीं दे रहे थे। मुझे यातनाएं दी गईं। 23 अगस्त  2013 को अहेरी की अदालत में मुझे पेश किया गया।

आपके हिसाब से आपकी गिरफ्तारी की वजह क्या हो सकती है?

मैं उत्तराखंड का रहने वाला हूं। वहां जब अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन चल रहा था, उसका असर वहां के छात्रों-युवाओं पर भी पड़ा था। उत्तराखंड राज्य बनने के बहुत साल बाद मैं जेएनयू पहुंचा लेकिन राज्य को कैसा होना चाहिए इसको लेकर मांगें अब भी लंबित थीं। उस आंदोलन से मैं प्रभावित हुआ। जनकवि गिरीश तिवाड़ी ‘गिरदा’ जैसे लोग उस आंदोलन का हिस्सा होते थे। उनके गीतों में उत्तराखंड के सुदूर गांवों की शिक्षा, पानी, विस्थापन की समस्याएं उभर कर आती थीं। विकास बहुत बड़ा मुद्दा था। पहाड़ों में सड़क नहीं थी, रोजगार के मौके नहीं थे। मजबूरी में तकरीबन हर परिवार के एक बंदे को मामूली काम करने के लिए दिल्ली जाना पड़ता था। गिरदा के गीतों में ऐसे लोगों की पीड़ा होती थी जिसने मुझ पर असर डाला। लिहाजा एक छात्र और सांस्कृतिक संगठन के माध्य‍म से मैं उस आंदोलन में जुड़ गया। हम लोग छात्रों को सरकार की दमनकारी नीतियों के बारे में जागरूक करने लगे- छात्रों, मजदूरों, किसानों के ऊपर लगाए गए फर्जी मुकदमों और कैद पर उन्हें समझाने लगे। हमने सत्ता की ऐसी नीतियों के खिलाफ अभियान चलाए। मैं जब 2010 में जेएनयू आया तो वहां के विभिन्न आंदोलनों का हिस्सा बना। जेएनयू अभिव्यक्ति की आजादी, लोकतांत्रिक अधिकारों और सामाजिक न्याय के मसलों पर छात्र आंदोलनों के लिए जाना जाता है। अलग-अलग संगठन वहां विरोध प्रदर्शन करते थे और इन मुद्दों पर न्याय की मांग उठाते थे। एक सांस्कृतिक कार्यकर्ता होने के नाते मैं भी सामाजिक न्याय से जुड़े ऐसे आंदोलनों के साथ जुड़ गया। मैंने फर्जी गिरफ्तारियों पर अपनी आवाज उठानी शुरू कर दी। इसी के कारण मुझे गिरफ्तार किया गया।

एक प्रतिबंधित संगठन के साथ कथित संबंध के आरोप और उसके लिए कैद के दौरान आपके ऊपर जो भावनात्मक और मानसिक असर पड़ा, उस पर कुछ बताइए।

मेरे खिलाफ लगाए गए आरोप पूरी तरह गलत थे। पहले मेरे ऊपर प्रतिबंधित संगठन का संदेशवाहक होने का इल्जाम लगाया गया, लेकिन मैं किसका संदेश फैला रहा था? मैं तो अपने गीतों और ढपली से केवल शोषित-वंचित जन का संदेश ही फैला रहा था ताकि उनके भीतर जागरूकता बढ़े। अगर ऐसा करना इस देश में असंवैधानिक नहीं है तो निश्चित रूप से मुझे गलत फंसाया गया। लंबे संघर्ष के बाद भी मुझे उम्मीद बनी रही कि मुझे न्याय मिलेगा और मैं रिहा हो जाऊंगा। हमारी पीढ़ी की यह बदकिस्मती है कि मीडिया, सोशल मीडिया, बड़ी कंपनियां और तमाम ताकतें नौजवानों को उपभोक्ता बनने के सपने दिखाती हैं। उन्हें कार, बंगला के सपने बेचती हैं। सच्चाई क्या है? हम लोग विकसित भारत की बात करते हैं, लेकिन यहां तो बरसों तक करोड़ों लोगों को मुफ्त राशन दिया जाता है क्योंकि वे उसे खरीद नहीं सकते। विकसित भारत की यही हकीकत है।

कैद के अनुभव ने मानवाधिकार और इंसाफ पर आपकी समझदारी को कैसे विकसित किया?

देखिए, आप जब जेल में होते हैं तो तमाम मसलों पर आपको सोचने का वक्त मिलता है। आप उन छोटी-छोटी चीजों का मोल समझ पाते हैं जिसे बाहर आसानी से पा सकते हैं। जैसे अगर आपको एक कलम चाहिए तो उसके लिए आवेदन करना पड़ता है, जेलर का दस्तखत करवाना होता है और इसकी एक प्रक्रिया है। हो सकता है आप बेहद बुनियादी चीजों के लिए भी तरस जाएं। इससे आपको वहां मानवाधिकारों की स्थिति का अहसास होता है। जेल के भीतर से जब हम बाहर के हालात को देखते हैं, जैसे उन परिसरों में छात्र आंदोलनों को जहां हम पढ़े थे, तो लगता है कि पहले फिर भी हम रैली और विरोध प्रदर्शन कर लेते थे। अब तो वह स्पेस ही सिकुड़ गई है। सरकार हर चीज का जवाब दमन से दे रही है। एक खास विचारधारा को फैलाया जा रहा है जबकि असहमत विचारों और अधिकारों की जगह घटती जा रही है। मानवाधिकारों के लिए आवाज उठाने वालों को भी सताया जा रहा है और जेल हो रही है।

आपके केस में कानूनी फैसलों को आकार देने में राजनीतिक विचारधाराओं की भूमिका को आप कैसे समझते हैं?

मेरा कहना है कि भारत जैसे देशों में आज मजबूत न्यायिक तंत्र की जरूरत है। इस देश की न्यायपालिका ने, मुख्य न्यायाधीशों ने भी लगातार न्याय निर्णय में देरी से बचने की बात कही है और कहा कि है जेल नहीं, बेल को तरजीह दी जानी चाहिए। व्यवहार में ऐसा कुछ होते नहीं दिखता। आप हमारे केस को देखें तो ऐसी कोई गतिविधि नहीं है जिसका हमारे ऊपर आरोप था। हमारा केस पूरी तरह झूठ पर टिका था। इसके बावजूद हमें दस ग्यारह साल से ज्यादा समय जेल में बिताना पड़ा। इसी तरह से लोगों और मीडिया में भय की मानसिकता को पैदा किया जाता है, आतंक का एक माहौल खड़ा किया जाता है और दबाव बनाया जाता है। न्यायपालिका के लोगों को इससे प्रभावित नहीं होना चाहिए, लेकिन ऐसा माहौल खड़ा करने की बार-बार कोशिश हो रही है।

सामाजिक न्याय की लड़ाई में हिंसा के प्रयोग पर आप क्या सोचते हैं?

मैं तो लोकतांत्रिक माध्यमों से लोगों तक पहुंचने की कोशिश कर रहा था, जैसे विरोध प्रदर्शन, जिसका अधिकार हमें इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में मिला हुआ है, हालांकि देश-दुनिया में जैसे सामाजिक-आर्थिक हालात हैं वे भी इसी व्यवस्था के पैदा किए हुए हैं। इन्हीं खास सामाजिक-आर्थिक परिस्थि‍तियों से हिंसा पैदा होती है और उसकी अलग-अलग ऐतिहासिक पृष्ठपभूमि होती है। केवल हमारे या दूसरों के सोचने भर से उसके पीछे के कारणों को नहीं रोका जा सकता जब तक कि हमारे यहां समानता पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था न आ जाए जो धीरे-धीरे समतावादी तंत्र की ओर विकसित हो। ऐसा नहीं होने पर समाज में हिंसा कायम रहेगी।

रिहाई के बाद निजी और पेशेवर स्तर पर आगे की योजनाएं और इच्छाएं क्या हैं?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे अग्रणी संस्थान में मैं पढ़ने का सपना लेकर आया था। अब दस साल से ज्यादा वक्त के बाद कह सकता हूं कि निजी और अकादमिक स्तर पर मुझे बहुत नुकसान हुआ है। अभी तो रिहा हुआ हूं। दस साल लंबा समय होता है। आगे कौन सी दिशा लेनी है, बैठ कर आराम से सोचना होगा।

समान परिस्थितियों और कानूनी संघर्षों में उलझे दूसरे व्यक्तियों को आप क्या  संदेश देना चाहेंगे?

उनके लिए यही कहना चाहूंगा कि इस समूचे कानूनी और न्यायिक तंत्र के भीतर अब भी कुछ लोग हैं जो न्याय के हक में हैं लेकिन जिस स्तर पर हम खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहते हैं, उस हिसाब से न्यायिक तंत्र को बहुत लंबा रास्ता तय करना है। मेरा खयाल है कि ऐसे लोगों को अपनी संकल्पशक्ति के सहारे जीना होगा और जेल के भीतर रहते हुए भी न्याय के लिए संघर्ष करते रहना होगा। जब मुझे सजा हुई थी, मैं जानता था कि लंबे समय तक जेल में रहना पड़ सकता है, बावजूद इसके कि मैंने ऐसा कुछ नहीं किया जिसे इस लोकतंत्र में अपराध कहा जा सके। न्यायिक तंत्र में मेरा भरोसा इसलिए बना हुआ है क्योंकि अब भी यहां न्याय में विश्वास करने वाले लोग बचे हुए हैं। उसमें देरी हो सकती है, लेकिन न्याय मिलेगा। दस साल हालांकि लंबा समय है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती। दस साल बाद मेरी रिहाई अधूरी महसूस होती है क्योंकि हमारे केस में एक आदिवासी कैदी जेल में चिकित्सा साधनों के अभाव में मर गया। उसके लिए यह व्यवस्था जिम्मेदार है।

हमें भले ही दस बाय दस की कोठरी से बड़ी जगह में छोड़ दिया गया हो, भौतिक रूप से यह बेशक आजादी हो लेकिन मानसिक रूप से नहीं है क्योंकि हमारा केस लड़ने वाले और हमें मदद करने वाले कुछ लोग अब भी जेल में हैं। प्रोफेसरों को जेल हुई है। यहां तक कि जिन्हें ‘मुजरिम’ कहा जाता है वे भी सामाजिक-आर्थिक हालात की ही पैदाइश हैं, वैसे जन्मजात नहीं हैं। उन्हें सिस्टम ने ऐसा बनाया है। वे जेल में हैं तो यह इसी सामाजिक-आर्थिक व्य्वस्था की देन है। बिना उनके मेरी निजी आजादी पूरी नहीं है। फिर भी, बाहर आकर आप सब से, परिवार से, दोस्तों  से मिलना ही राहत की बात है।

 

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