याद कीजिए, पिछले दस वर्षों में ऐसा कब हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश दौरे, वह भी जी-7 देशों के शिखर सम्मेलन में गए हों और देश में सुर्खियां ‘नीट’ परीक्षा में कथित धांधली, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बेरुखी वगैरह उगल रही हों; गली-मोहल्ले, गांव-खेड़े में चर्चाएं बाहर से ज्यादा भाजपा और संघ परिवार के भीतर से उठ रही चुनौतियों की हो रही हों; हारे हुए भाजपा नेता खुलकर भितरघात के आरोप-प्रत्यारोपों में उलझे हों; विपक्ष लोकसभा स्पीकर और डिप्टी स्पीकर पद पर मोर्चे खोल चुका हो; मुंबई में ईवीएम में मोबाइल से छेड़छाड़ के कथित आरोप की एफआइआर कोई मतगणना अधिकारी करा रहा हो? बेशक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तीसरी पारी की एनडीए सरकार में वित्त, रक्षा, गृह, विदेश मामले और वाणिज्य जैसे प्रमुख मंत्रालयों (सरकार की प्रभावी सत्ता का 85 प्रतिशत) को भाजपा के पाले में रखकर और पुराने मंत्रियों को ही गद्दी सौंपकर यह संदेश दिया कि सब कुछ वैसा ही चलेगा जैसा वे चाहते हैं, लेकिन तूफान के संकेत की तरह चुनौतियां नई-नई शक्ल में खुल रही हैं- सिर्फ सियासी नहीं, दूसरे मोर्चों पर भी। अशुभ योग भी दिख रहे हैं। सिर मुंड़ाते ही ओले की तरह पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में रेल दुर्घटना आ गिरी, जिसमें प्रारंभिक खबरों के मुताबिक नौ लोग जान गंवा बैठे और यह रेल व्यवस्था में सुधार के दावों की पोल एक बार फिर खुलती लग रही है।
एकता की ताकतः मुंबई में नाना पटोले, उद्धव ठाकरे और शरद पवार
दरअसल जनादेश 2024 ही कड़ी और अप्रत्याशित चुनौतियों की राह खोलता है। ये चुनौतियां सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्ष इंडिया दोनों के दरवाजे पर खड़ी हैं, हालांकि सत्ता पक्ष के लिए ये बेशक मुश्किलजदा है। इस बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 543 सदस्यीय लोकसभा में 272 सीटों के साधारण बहुमत से पीछे रुक गई। उसे 240 सीटें ही मिलीं, जो जरूरी आधे आंकड़े से 32 कम हैं। इससे पहली बार मोदी की अगुआई वाली सरकार अपने 24 एनडीए सहयोगियों की बैसाखी पर टिकी है, जिन्हें 53 सीटें मिली हैं। लिहाजा, यह कई तरह की मजबूरियां, विरोधाभास और टकराव की संभावनाएं लिए हुए है। उन्हें संभालना आसान तो नहीं रहने वाला है।
राहुल गांधी
मोदी अब तक बहुमत वाली सरकारों की ही अगुआई करते रहे हैं, चाहे 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे हों या 2014 से 2024 के बीच देश के प्रधानमंत्री। अलबत्ता उन्होंने इस धारणा को फौरन झटक दिया कि उनका गठबंधन की राजनीति से कोई साबका नहीं है और कोर्स करेक्शन या कहिए झुकने से उन्होंने परहेज नहीं दिखाया है। राजनैतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘‘मोदी बैकफुट पर खेलने के आदी नहीं हैं। वे आक्रामक मुद्रा ही दिखाएंगे।’’ इसके संकेत लेखिका अरुंधती राय और डॉ. शेख शौकत हुसैन के खिलाफ 2010 में कश्मीर को लेकर एक बयान के मामले में आतंकरोधी यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने के दिल्ली के उप-राज्यपाल की संस्तुति में दिखे भी, हालांकि मामला यूएपीए की जमानती धारा 13 में दर्ज किया गया है। ऐसे ही सहारनपुर तथा कई जगहों पर छिटपुट झड़पों, ओडिशा के बालेश्वर में दंगे और उत्तर प्रदेश की अयोध्या से जुड़ी फैजाबाद सीट पर भाजपा की हार के लिए वहां के लोगों के खिलाफ ट्रोल आर्मी की अपमानजनक टिप्पणियों में भी झलकता है।
इसके बरअक्स आक्रामक और कुछ ज्यादा सधी चालें विपक्ष की ओर से भी आ रही हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे चुनौती के अंदाज में कह रहे हैं, ‘‘यह अल्पमत सरकार है। इसकी मियाद एक-दो साल से ज्यादा नहीं है’’ (देखें, इंटरव्यू)। देश की सबसे पुरानी पार्टी इस आम चुनाव में अपनी शुरुआती संख्या 99 से बढ़कर 102 पर पहुंच गई है (तीन निर्दलीय लड़े उम्मीदवारों के बल पर)। केरल में वायनाड की लोकसभा सीट बहन प्रियंका गांधी वाड्रा के लिए छोड़ने के बाद राहुल गांधी ने कहा, ‘‘यह चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष नहीं था। चुनाव आयोग ने इतना लंबा खींचा। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव होता तो भाजपा 102-03 के आसपास होती और इंडिया ब्लॉक की सरकार बनती।’’
उत्तर प्रदेश में रायबरेली की सीट पर कायम रहकर राहुल शायद अगली सियासी चुनौती के द्वार खोल रहे हैं। औपचारिक तौर पर तो उन्होंने यही कहा, ‘‘कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि मुझे रायबरेली में रहना चाहिए।’’ अगले पन्नों पर कांग्रेस अध्यक्ष ने खास बातचीत के दौरान कहा था कि पार्टी जल्द निर्णय लेगी (देखें, इंटरव्यू), लेकिन राहुल ने आगे जो कहा वह ज्यादा अहम है, ‘‘उत्तर प्रदेश ने राजनीति में आमूलचूल बदलाव ला दिया। नफरत की राजनीति को खारिज कर दिया है, जैसा कि अयोध्या के नतीजे बताते हैं। इसलिए वहां इंडिया ब्लॉक एकजुट होकर अगली लड़ाई की तैयारी करेगा।’’ उन्होंने कुछ दिन पहले रायबरेली में आभार सभा में यह भी कहा था कि ‘‘अगर बनारस से प्रियंका लड़ गई होती तो मोदी हार जाते।’’
अंदरूनी चुनौतियां
दरअसल उत्तर प्रदेश के जनादेश ने भाजपा को सिर्फ 33 सीटों पर ही नहीं सिमटाया (2014 में 72 और 2019 में 62 के मुकाबले), बल्कि अयोध्या के आसपास नौ सीटों और बनारस के चारों ओर 13 सीटों पर हार से उसके एक बड़े एजेंडे को भी धूमिल कर दिया, जिसके इर्द-गिर्द उसके राष्ट्रवाद, विकास और हिंदू ध्रुवीकरण का अफसाना बुना गया था। शायद यही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदुत्व के पैरोकारों की सबसे बड़ी पीड़ा भी है। यह संघ प्रमुख मोहन भागवत और इंद्रेश कुमार जैसे बड़े नेताओं के बयानों में प्रकट हुई।
मोहन भागवत ने संघ के नागपुर मुख्यालय में दिए भाषण में चुनाव के दौरान उठी विभाजनकारी बातों पर नाराजगी जाहिर की। भागवत ने कहा, “जिस रूप में घटनाक्रम सामने आए हैं, हर पक्ष ने एक-दूसरे पर हमले के लिए अपनी प्रचार रणनीतियों के विभाजनकारी असर को अनदेखा किया। इससे सामाजिक और मानसिक विसंगतियां बढ़ रही हैं, यह चिंताजनक है।’’ उन्होंने नई सरकार को राष्ट्रीय सहमति बनाने और विपक्ष को दुश्मन न मानने की सलाह दी। भागवत ने मणिपुर में जारी संकट का मामला भी उठाया और इशारों-इशारों में कहा, “सच्चा सेवक वह है जो अपने काम को बिना किसी गर्व के करता है और अहंकार से मुक्त होता है।’’ अगले दिन मोदी ने अपने एक्स हैंडल से अपने सभी समर्थकों से कहा कि वे अपने हैंडल से ‘मोदी का परिवार’ हटा दें, जिसे चुनाव के दौरान जोड़ने के लिए उनसे कहा गया था। फौरन बाद भाजपा-आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व की समीक्षा बैठक बुलाई गई ताकि अधिक तालमेल बनाया जा सके। यही नहीं, मणिपुर पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने समीक्षा बैठक बुलाई और मैती तथा कुकी गुटों से बातचीत की पहल की। गौरतलब है कि मणिपुर की दोनों सीटें कांग्रेस जीत गई है।
ममता बनर्जी
इसी बीच इंद्रेश कुमार की भी टिप्पणी आई कि राम को लेकर घमंड पालने की वजह से भाजपा 240 पर अटक गई। यही नहीं, भागवत की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भी बात हुई, जिनसे भाजपा शीर्ष नेतृत्व की नाराजगी की खबरें उड़ती रही हैं। वैसे, मुलाकात को नकारने की खबरें भी आईं, यानी काफी कुछ गोपनीय है। यह भी आशंका जताई गई कि योगी की जगह किसी और को प्रदेश की कुर्सी दे दी जाएगी। भाजपा और संघ की अनबन पर विस्तार से चर्चा अगले पन्नों पर की गई है (देखें, मोदी से मोहभंग!)। बीच चुनाव में भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने एक अखबार से बातचीत में कहा था कि भाजपा को अब आरएसएस की जरूरत नहीं रही, लेकिन चुनावी नतीजों के बाद स्थिति पलट गई है। 31 जून से केरल में होने वाली समन्वय बैठक में नड्डा के अलावा मोदी और शाह को भी बुलावा दिया गया है।
स्पीकर का मामला
भाजपा में भी मोदी-शाह के नेतृत्व के खिलाफ कई तरह के असंतोष की खबरें हैं। इसे चुनाव नतीजों के बाद भाजपा संसदीय दल के बदले सीधे एनडीए संसदीय दल का नेता मोदी को चुने जाने से भी जोड़कर देखा जा रहा है। भाजपा संसदीय दल की बैठक ही नहीं बुलाई गई। इन अंदरूनी और विपक्ष की चुनौतियों के अलावा ढेरों मुद्दे लगातार उभरते जा रहे हैं। विपक्ष एक्जिट पोल और शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव को बड़ा घोटाला बता चुका है और जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति गठन करने की मांग उठा चुका है। जाहिर है, संसद के पहले ही सत्र में टकराव की नौबत आ सकती है।
पहला टकराव तो 26 जून को होने वाले लोकसभा स्पीकर के चुनाव में ही दिख सकता है। जदयू के प्रवक्ता के.सी. त्यागी तो कह चुके हैं कि भाजपा जिसे तय करेगी वे उसे ही समर्थन देंगे, लेकिन टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू अपनी पार्टी का स्पीकर चाहते हैं। शायद नायडू को यह एहसास है कि कुछ वर्ष पहले उनके तीन राज्यसभा सदस्य भाजपा में चले गए थे। गजब यह था कि तब भाजपा का वहां एक भी विधायक नहीं था। भाजपा के लिए असमंजस की स्थिति बनी हुई है। वह हर हाल में अपना स्पीकर चाहती है। संभव है, भाजपा नायडू के साथ सहमति बैठा ले, लेकिन विपक्ष इस बार कम से कम डिप्टी स्पीकर के पद पर अड़ा हुआ है। परंपरा यही रही है कि यह पद विपक्ष को दिया जाए, लेकिन पिछली लोकसभा में कोई डिप्टी स्पीकर नहीं बनाया गया। इस बार विपक्ष ने संकेत दिया है कि डिप्टी स्पीकर पर राय नहीं बनी तो स्पीकर पद के लिए वह अपना उम्मीदवार खड़ा करेगा या टीडीपी का उम्मीदवार हुआ तो उसे समर्थन दे देगा। इस रस्साकशी की वजह पिछली लोकसभा का कार्यकलाप रहा है। उसमें आखिरी दौर में अप्रत्याशित 78 सांसदों के निलंबन के अलावा अनेक विधेयक बिना बहस के पारित करवा लिए गए थे। यही नहीं, बेहद कम 15 फीसद ही विधेयक संसदीय प्रवर समितियों को भेजे गए। स्पीकर को लेकर विपक्ष की एक आशंका यह भी है कि भाजपा अपनी संख्या बढ़ाने के लिए कथित ऑपरेशन लोटस चला सकती है जिसमें स्पीकर मनोनुकूल होने का फायदा मिल सकता है।
ईवीएम विवाद
इसके अलावा इस बार चुनाव आयोग और ईवीएम को लेकर भी विवाद गरमा गया। मुंबई उत्तर पश्चिम में मतगणना के दौरान महज 48 वोटों से विजयी घोषित किए गए शिवसेना (एकनाथ शिंदे) के उम्मीदवार के रिश्तेदार वहां अपने मोबाइल के साथ मौजूद थे। उस मोबाइल पर कथित तौर पर ओटीपी के जरिये ईवीएम को अनलॉक किया गया। उसमें चुनाव आयोग के डेटा ऐप से जुड़ा एक व्यक्ति भी लिप्त पाया गया, तो हंगामा बरपा गया। इसकी एफआइआर खुद मतगणना अधिकारी ने करवाई और अब पुलिस ने मोबाइल को फॉरेंसिक जांच के लिए भेज दिया है। शिवसेना (उद्घव बालासाहेब ठाकरे) के उम्मीदवार ने इसके लिए सीसीटीवी फुटेज की मांग की मगर उसे इनकार कर दिया गया। अब शायद पुलिस को सीसीटीवी फुटेज मुहैया कराया जा रहा है। ठाकरे गुट अब नतीजों को हाइकोर्ट में चुनौती देने जा रहा है।
इस पर राहुल गांधी ने एक्स पर प्रतिक्रिया पोस्ट की कि ईवीएम ब्लैक बॉक्स है, जिसकी जांच नहीं हो सकती। इससे मामला काफी तूल पकड़ गया। फिर मशहूर टेक कंपनी के मालिक एलॉन मस्क का यह बयान आ गया कि वोटिंग मशीनों से छेड़छाड़ संभव है इसलिए वे अमेरिका में कभी उससे चुनाव न कराने के हकदार हैं। इसके जवाब में पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव चंद्रशेखर ने कहा कि अमेरिका से भारत का ईवीएम काफी अलग और एकदम सुरक्षित है और मस्क चाहें तो वे उन्हें ट्यूटोरियल दे सकते हैं।
अर्थव्यवस्था की चुनौतियां
इन सब के बावजूद मोदी की एनडीए सरकार की असली चुनौती तो अर्थव्यवस्था है। देश बेशक दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक है, जिसकी जीडीपी वृद्धि दर आठ फीसद के करीब बताई जाती है, लेकिन चुनाव पूर्व और चुनाव पश्चात जनमत सर्वेक्षणों से पता चलता है कि लोग मोदी सरकार से दो प्रमुख मुद्दों- बेरोजगारी और महंगाई को लेकर सबसे अधिक नाराज हैं। फिर, लाखों युवा और महत्वाकांक्षी आबादी अब मुफ्त रियायतों से संतुष्ट नहीं है, बल्कि रोजगार और कमाई का साधन चाहती है। नतीजे गवाह हैं कि लोगों के लिए लाभकारी रोजगार, आवास, पर्याप्त भोजन, पीने योग्य पानी, बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, परिवारों के लिए स्वास्थ्य सेवा और आवाजाही तथा संचार दोनों की कनेक्टिविटी वगैरह ज्यादा अहमियत रखती है। 2047 तक विकसित भारत का मोदी का आह्वान दूर का सपना है, लोग अगले पांच वर्षों में सुखी और सुरक्षित भारत चाहते हैं।
मोदी के दशक भर के कार्यकाल में कई नाकामियां और उथल-पुथल भी देखने को मिली। कृषि सुधार की उनकी कोशिश को किसानों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा और उन्हें केंद्रीय कृषि कानूनों को रद्द करना पड़ा। इसी तरह भूमि सुधार कानून भी विरोध के कारण टालना पड़ा। उनकी सरकार जीडीपी में उत्पादन क्षेत्र की हिस्सेदारी को 15 फीसद से आगे बढ़ाने में नाकाम रही। छोटे और लघु उद्योग वजूद बचाने में ही जुटे हैं और निर्यात में वृद्धि नौ दो ग्यारह हो गई है। शिक्षा सुधार और कौशल विकास कछुए की गति से आगे बढ़े हैं जबकि स्वास्थ्य में पहल बीमा और सस्ती दवा मुहैया करने से आगे नहीं बढ़ पाई है, इलाज और सुविधाओं में कोई गुणात्मक बदलाव नहीं आया है।
नई सरकार अर्थव्यवस्था की रफ्तार बढ़ाने के लिए क्या करने जा रही है, इसका पहला संकेत तो केंद्रीय बजट से ही मिलेगा जिसे जुलाई में पेश किया जाना है। देश में कृषि श्रम बल का 45 फीसद हिस्सा कुल जीडीपी का 15 फीसद है, इसलिए उस क्षेत्र को मदद करना बेहद जरूरी है। छोटे-मोटे काम करने वाले श्रमिकों का एक और बड़ा हिस्सा बेरोजगारी और अल्परोजगार से आज भी जूझ रहा है, जो अभी तक महामारी के झटके से उबर नहीं पाया है।
मोदी के दूसरे कार्यकाल में 29 केंद्रीय और औद्योगिक श्रम कानूनों की चार नए श्रम संहिताएं बनाई गईं। इससे जुड़ा विधेयक सितंबर 2020 में पारित किया गया और मसौदा केंद्रीय नियम जारी किए गए। पश्चिम बंगाल, सिक्किम, मेघालय और नगालैंड को छोड़कर चौबीस राज्यों ने तब से अपने मसौदा नियम प्रकाशित किए हैं, लेकिन मजदूर यूनियनों के विरोध के कारण केंद्र अधिसूचना नहीं जारी कर पाया है। मौजूदा जनादेश के मद्देनजर नई सरकार क्या करेगी, यह देखना होगा।
इसी तरह सरकारी बैंकों और कुछ अमीरों के करीब 16.3 लाख करोड़ रुपये की कर्जमाफी जैसी योजनाओं पर नए सिरे से विचार करना पड़ सकता है। कई अर्थशास्त्रियों का यह भी कहना है कि ऐसी ही अमीर- समर्थक नीतियों से रोजगार-सृजन और उत्पादन क्षेत्र में बढ़ोतरी रुक सी गई है।
केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल
यह मुद्दा भी बड़ा रहा है। प्रवर्तन निदेशालय और राजस्व खुफिया निदेशालय जैसी जांच एजेंसियों के पास लोगों को गिरफ्तार करने और जेल भेजने के अलावा उनकी संपत्ति जब्त करने की शक्ति है। इसका आर्थिक विकास पर नकारात्मक असर दिखाई दिया है। मोदी सरकार ने राजनीतिक विरोधियों से बदला लेने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह जीएसटी के मामलों से भी जुड़ा है। जीएसटी का असर भी अर्थव्यवस्था की सुस्ती का कारण बना है। कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि फिलहाल उसके मौजूदा चार स्लैब से घटाकर दो स्लैब कर देना चाहिए और छोटे व्यापारियों और उद्यमियों के लिए अपने बिल दाखिल करना आसान बनाना चाहिए। फिर, कॉरपोरेट टैक्स में छूट निजी निवेश बढ़ाने में मददगार नहीं हुआ है। मध्यम वर्ग भी आयकर रियायतों की चाहत रखता है।
केंद्र ने अब तक काफी टकराव वाला रवैया दिखाया है। राज्यपालों ने विपक्ष-शासित राज्यों में अपनी शक्तियों का अतिक्रमण किया है। इसलिए चुनौतियां बेहिसाब हैं। बेशक, विपक्ष को भी अपनी सियासत निखारनी है तो उसे इस साल होने वाले हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड के विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा।
ओडिशा: आदिवासी तुरुप
ओडिशा के नए मुख्यमंत्रीः मोहन चरण माझी
जनादेश 2024 में भाजपा को आदिवासी या अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर बड़ा झटका लगा। झारखंड में आदिवासी बहुल पांचों सीटें पार्टी गंवा बैठी। सो, पड़ोसी राज्य ओडिशा में पहली बार उसे साधारण बहुमत मिला, तो केओंझर से चौथी बार विधायक बने 52 वर्षीय मोहन चरण माझी को गद्दी सौंपी गई। आखिर पांच बार के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और उनकी बीजू जनता दल (बीजद) का 24 साल का शासन खत्म हुआ है, हालांकि भाजपा को 70 वर्षीय पटनायक की बीमारी और तमिलनाडु मूल के पूर्व अधिकारी बी.के. पांडियन को विरासत सौंपने के अफसाने का काफी लाभ मिला। वैसे, लंबे समय तक सत्ता में रहने का खमियाजा पटनायक को भुगतना पड़ा है। माझी को दो उप-मुख्यमंत्री 62 वर्षीय कनक वर्धन सिंहदेव और 57 वर्षीय प्रावती परिदा के साथ सत्ता साझा करनी है। राज्य की 147 सदस्यीय विधानसभा में 78 विधायकों के साथ भाजपा के पास मामूली बहुमत है। सोशल इंजीनियरिंग में माहिर भाजपा ने बोलांगीर राजपरिवार के सिंहदेव और ओबीसी नेता परिदा के जरिये सरकार में संतुलन बनाने की कोशिश की है, लेकिन पटनायक की लोकप्रिय कल्याणकारी योजनाओं को जारी रखने से लेकर भाजपा केंद्रीय नेतृत्व और सबको साथ लेकर चलने के लिए माझी सरकार को परीक्षा के दौर से गुजरना होगा। ओडिशा के प्रचुर खनिज संसाधनों पर निजी क्षेत्र की नजर है। देखना है आदिवासी भावनाओं का खयाल रख पाना कितना संभव हो पाता है।
आंध्र प्रदेश: नायडु को तवज्जो
मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते नायडु
केंद्र में एनडीए गठबंधन सरकार की दो में एक बैसाखी तेलुगुदेसम पार्टी टीडीपी की है। इसलिए आंध्र प्रदेश के नए मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु का विशेष खयाल रखना उसकी मजबूरी है। लोकसभा स्पीकर के पद पर नायडु की सहमति खास तौर पर जरूरी है। इसलिए 12 जून को गन्नवरम हवाई अड्डे के पास केसरपल्ली सूचना प्रौद्योगिकी पार्क में नायडु के शपथ-ग्रहण में प्रधानमंत्री मोदी से लेकर भाजपा के सभी बड़े नेता मौजूद थे। नायडु ने भी अपने 24 सदस्यीय मंत्रिमंडल में तालमेल की भावना दिखाई। उसमें जनसेना पार्टी के पवन कल्याण समेत तीन मंत्री और भाजपा से एक मंत्री हैं। कल्याण और नायडु के बेटे नारा लोकेश उपमुख्यमंत्री हैं। कहते हैं, मंत्रियों का चयन लोकेश ने क्षेत्र, स्त्री और जाति को ध्यान में रखकर किया और नायडु ने मुहर लगाई। उसमें तीन महिलाएं, आठ पिछड़ा वर्ग, दो अनुसूचित जाति और एक अनुसूचित जनजाति मंत्री हैं। अन्य जातियों में कापू और नायडु के कम्मा समुदाय के चार-चार, तीन रेड्डी और एक वैश्य को प्रतिनिधित्व मिला। 175 सदस्यीय विधानसभा में टीडीपी के 135 और जेएसपी के 21 विधायक हैं। नायडु अपनी पसंदीदा राजधानी अमरावती और पोलावरम लिफ्ट सिंचाई योजना को नए सिरे से शुरू करना चाहते हैं, जो जगनमोहन रेड्डी की सरकार में नजरअंदाज कर दी गई थी। इन सबके लिए नायडु केंद्र से भारी वित्तीय मदद चाहते हैं। इसीलिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग भी है। भाजपा के लिए चुनावी पराजय से संभलने और मजबूत विपक्ष की चुनौती से निपटने में उनकी खासी जरूरत भी है। ऐसे में, वह नायडु को अपना हक मांगने से शायद न रोक पाए।