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6 जनवरी 2025 · JAN 06 , 2025

आवरण कथा/राज कपूर जन्मशती: आधी हकीकत, आधा फसाना

राज कपूर की निजी और सार्वजनिक अभिव्यक्ति का एक होना और नेहरूवादी दौर की सिनेमाई छवियां
शोमैन राज कपूर

सन 1988 में जब राज कपूर का निधन हुआ था तब जनसत्ता अखबार में संपादक प्रभाष जोशी ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था, “सब हमसफर,  सपनों के सौदागर।” प्रभाष जी ने कुछ ऐसा लिखा था कि जब युवावस्था में वे ग्राम स्वराज के सर्वोदयी आदर्श से प्रभावित होकर शिप्रा किनारे एक गांव सुनवानी महाकाल में कार्यरत थे तो रोज शिप्रा नहाने जाते वक्त फिल्म फिर सुबह होगी का गीत “वह सुबह कभी तो आएगी” गुनगुनाया करते थे। वह लेख उनके युवावस्था के आदर्शवाद से राज कपूर के रिश्ते, आजादी के बाद की उन दिनों की उम्मीदों और मोहभंग की कथा थी। यह भी कि तमाम विफलताओं के बावजूद वह दौर और वे आदर्श कितने मूल्यवान थे, जिनके सांस्कृतिक प्रतीक प्रभाष जी और उनकी पीढ़ी के लिए राज कपूर थे।

संगम के एक दृश्य में वैजंतीमाला के साथ राज कपूर

संगम के एक दृश्य में वैजंतीमाला के साथ राज कपूर

प्रभाष जी जल्दी ही गांव से निकल कर इंदौर में पत्रकारिता करने लगे और पत्रकारिता में उनके अद्वितीय कार्यकाल और योगदान का बखान करने की यहां जरूरत नहीं है, लेकिन प्रभाष जी में इस बात के लिए एक अपराध बोध हमेशा बना रहा कि उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता के कठिन जीवन को त्याग कर पत्रकारिता के अपेक्षाकृत सुविधाजनक जीवन को स्वीकार किया। यह अपराध बोध उनके लेखन में बार-बार झलकता है। राज कपूर वाले लेख में भी था-  “आए थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’’  यह पंक्ति वे अक्सर लेखन और कथन में दोहराया करते। पत्रकारिता करते हुए भी कार्यकर्ता होने की वे जीवन भर कोशिश करते रहे।

तटस्थ रूप से सोचने पर प्रभाष जी के इस विचार से सहमत होना कुछ मुश्किल है। प्रभाष जी का पत्रकारिता में जो योगदान है वह बहुत बड़ा है। उन्होंने इसे इतना समृद्ध किया है कि उनकी पत्रकारिता समाज के लिए महत्वपूर्ण है। लगता है कि शायद उन्होंने ठीक ही रास्ता अपनाया था। यह सही है कि आजादी के दौर की पीढ़ियों की कई विफलताएं हैं। वे लोग उन कसौटियों पर पूरी तरह खरे नहीं उतरे जो उनके वक्त और इतिहास की मांग थी, लेकिन यह भी सही है कि गांधी और नेहरू के दौर की विफलताएं भी आज के दौर की सफलताओं से ज्यादा सार्थक थीं। वह सुबह नहीं आई जिसका जिक्र साहिर लुधियानवी के लिखे उस गीत में है जिसे राज कपूर पर फिल्माया गया था, लेकिन वह खोज व्यर्थ नहीं थी। अगर उस पर संदेह होता है, तो वह जिम्मेदारी हमारे आज के दौर की है।

नर्गिस-राज की जोड़ी

नर्गिस-राज की जोड़ी 

जब भारत आजाद हुआ, तो वह सिर्फ राजनैतिक आजादी नहीं थी क्योंकि हमारी आजादी की लड़ाई सिर्फ राजनैतिक आजादी की लड़ाई नहीं थी। एक उदार, समावेशी, धर्मनिरपेक्ष परंपरा और आधुनिकता को जोड़ने वाली भारतीयता की खोज आजादी की लड़ाई का मूल तत्व था। इसलिए समाज और संस्कृति के तमाम क्षेत्रों में यह जद्दोजहद नजर आती है। यह संयोग मात्र नहीं था कि आजादी के साथ एक अलग किस्म का सिनेमा भी जन्म ले रहा था, जिसके प्रतिनिधि राज कपूर थे। यह भी सार्थक संयोग है कि सिनेमा में बदलाव के कई नायक एक दो साल के फर्क से पैदा हुए थे। राज कपूर के साथ ही शैलेंद्र, शंकर (जयकिशन), साहिर लुधियानवी, मुकेश, मोहम्मद रफी, तलत महमूद, दिलीप कुमार, देव आनंद सभी लगभग हमउम्र थे, जिन्होंने सिनेमा का रूप बदला। इस सूची में महिलाएं नहीं हैं, वे कुछ वक्त बाद आईं।

इस नए दौर के सबसे बड़े नायक थे राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार। अगर हम इन लोगों के फिल्मी किरदारों को देखें, तो हम जान सकते हैं कि ये नेहरू युग के भारत के प्रतिनिधि नायक थे। हम यह कह सकते हैं कि इन तीनों नायकों का मिला-जुला किरदार नेहरू और उनके युग का प्रतिनिधित्व करता है। नेहरू युग की उदारता, रूढ़ियों से विद्रोह लेकिन परंपरा और तहजीब का सम्मान, सामाजिक चेतना के साथ व्यक्ति की निजता और स्वायत्तता का सम्मान इन नायकों के चरित्र में दिखता है। इनमें राजनैतिक और सामाजिक तौर पर सबसे ज्यादा मुखर राज कपूर थे जिनकी फिल्मों में सामाजिक प्रतिबद्धता और थोड़ा-सा वाम की ओर झुकाव दिखता है। शायद इसलिए कि राज कपूर की ट्रेनिंग पृथ्वी थिएटर में हुई थी। पृथ्वी थिएटर, पृथ्वीराज कपूर के लिए कारोबार नहीं, सामाजिक प्रतिबद्धता और जन से जुड़ने का माध्यम था। पठान, किसान, आहुति, गद्दार जैसे नाटकों में गहरा सामाजिक सरोकार दिखाई देता है। राज कपूर की टीम के कई सदस्य पृथ्वी थिएटर के दौर से उनके साथ थे।

देव आनंद-दिलीप कुमार

दिलीप कुमार के राज कपूर

ख्वाजा अहमद अब्बास अपनी मृत्यु तक राज कपूर की फिल्मों के स्थायी लेखक रहे। गीतकार शैलेंद्र राज कपूर के प्रिय थे। उन्हें राज कपूर कविराज और पुश्किन कहा करते थे। दिवंगत मित्र राजकुमार केसवानी कहते थे कि शैलेंद्र राज कपूर की टीम के “रेसिडेंट इंटलेक्चुअल’’ थे। शैलेंद्र वामपंथी विचारधारा से प्रेरित थे, इप्टा से आए थे और गीत लिखने के अलावा इस टीम को देश-दुनिया की राजनीति पर भाषण देते थे। राज कपूर का पढ़ने-लिखने से खास वास्ता नहीं था। उनकी टीम के लोग भी अपनी-अपनी कला के माहिर थे, बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे, लेकिन सभी शैलेंद्र के ज्ञान और समझ का सम्मान करते थे।

शैलेंद्र को राज कपूर ने कैसे परखा और अपनी टीम का हिस्सा बनाया, यह कहानी कई बार कही जा चुकी है। शैलेंद्र अपने आप को राजनैतिक कार्यकर्ता समझते थे और फिल्मों की रंगीन दुनिया में आना नहीं चाहते थे। राज कपूर ने सम्मान और धीरज के साथ उन्हें मनाया। ऐसा लगता है कि शैलेंद्र में भी यह अपराध बोध हमेशा रहा कि वे मजदूर आंदोलन और इप्टा की दुनिया से फिल्मों में चले आए। उन्होंने फिल्मों से इतर जो भी गीत-कविताएं लिखीं वे क्रांतिकारी किस्म की हैं, लेकिन उनके फिल्मी गीत काव्यात्मकता की जिस ऊंचाई को छूते हैं, वह लाजवाब है।

आवारा हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर थी। इस फिल्म ने राज कपूर को देश में नहीं, सारी दुनिया में पहचान दिलाई। ‘आवारा हूं’ शायद दुनिया में सबसे प्रसिद्ध भारतीय गीत है। तलत महमूद का हम लोगों ने एक इंटरव्यू किया था, जिसमें उन्होंने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। जब तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई भारत के दौरे पर आए थे, तो उनके सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था। तलत महमूद को उसमें गाना था। जब तलत कुछ गीत गा चुके तो चाउ एन लाई ने फरमाइश की कि उन्हें ‘आवारा हूं’ सुनना है। तलत महमूद ने कहा कि वह तो मेरा गाना नहीं है, मुकेश का है। नेहरूजी ने कहा, विदेशी मेहमान की इच्छा का सम्मान तो करना पड़ेगा। तब तलत महमूद ने ‘आवारा हूं’ गाया। जहां उन्हें बोल याद नहीं थे वहां उन्होंने अपने मन से कुछ जोड़ कर काम चलाया।

राजेन्द्र कुमार-राज कपूर

राजेन्द्र कुमार-राज कपूर

आवारा से राज कपूर की टीम लगभग पूरी बन गई, जो 1967 में शैलेंद्र और 1971 में जयकिशन की मृत्यु के साथ ही बिखरी। इस टीम के सभी सदस्य बहुत गुणी थे, जहां राज कपूर ने एक अलग मिजाज वाला सिनेमा खड़ा किया। शंकर जयकिशन ने फिल्मी संगीत का अंदाज बदल डाला। उनके पहले भी नौशाद, खेमचंद्र प्रकाश, अनिल विश्वास जैसे प्रतिभाशाली संगीतकार गायन और ऑर्केस्ट्रा के साथ रचनात्मक प्रयोग कर रहे थे लेकिन बरसात में नौजवान शंकर जयकिशन की जोड़ी ने जैसा संगीत रचा उसने आने वाले दशकों के लिए फिल्म संगीत की दिशा तय कर दी। कुछ ही बरसों में शंकर जयकिशन लोकप्रियता के उस शिखर पर पहुंचे जहां वे किसी भी बड़े नायक से ज्यादा मेहनताना लेते थे। अगर कोई निर्माता उन्हें अपनी फिल्म के लिए साइन कर लेता, तो वितरक सिर्फ इस आधार पर फिल्म में पैसा लगाने को तैयार हो जाते थे, भले ही नायक-नायिका कोई भी हो।

राज कपूर अपने दौर के बाकी दोनों बड़े नायकों, दिलीप कुमार और देव आनंद से इस मायने में अलग थे कि वे शुरू से ही अपनी फिल्मों का निर्माण खुद करते थे और निर्देशित भी खुद करते थे। वे सिर्फ नायक नहीं, फिल्मकार थे और हर फिल्म में खुद को पूरी तरह उड़ेल देते थे। उनकी हर फिल्म उनकी अत्यंत निजी अभिव्यक्ति होती थी। उनकी सारी फिल्मों में उनके निजी सुख-दुख, राग, लगाव, सरोकार अभिव्यक्त होते लेकिन वे मानते थे कि उनका काम आम लोगों का मनोरंजन करना है। इस मायने में उनकी निजी और सार्वजनिक अभिव्यक्ति में कोई फर्क नहीं था। नेहरू की बौद्धिक ऊंचाई को छोड़ दें, तो इस मायने में उनमें और राज कपूर में यह समानता है कि उनकी निजी और सार्वजनिक अभिव्यक्ति में कोई फर्क नहीं था। राजमोहन गांधी ने नेहरू के बारे में लिखा है, उनके सार्वजनिक भाषण एक मायने में उनका अपने आप से संवाद है। भारत की जनता को उन्होंने इतना आत्मसात कर लिया था कि उनके आत्मसंवाद और सार्वजनिक संबोधन में कोई फर्क नहीं था। राज कपूर के बारे में भी यह सही है। वे अपने बारे में, अपने लिए फिल्म बनाते थे और वही उनका लोगों के साथ संवाद भी था। फर्क यह था कि नेहरू जननायक थे, गंभीर बौद्धिक व्यक्ति थे इसलिए उनके आत्मसंवाद में भी एक संयम और वैचारिकता है। राज कपूर भावुक कलाकार थे। उनकी अभिव्यक्ति में आत्मरति और आत्मदया बहुत है। उनकी सबसे आत्मचरित्रात्मक फिल्म मेरा नाम जोकर में यह बात बहुत साफ है, हालांकि अपनी इस आत्मरति और आत्मदया में वे अपने दर्शकों को भी आमंत्रित करते हैं और उनके दर्शक भी खुशी-खुशी उसमें शामिल होते हैं।

राज कपूर की सारी फिल्में कुल मिलाकर एक लगातार चलती प्रेम कहानी है। नर्गिस के साथ जो उनकी फिल्में हैं उनमें इस प्रेम कहानी की केमिस्ट्री को सहज ही देखा जा सकता है। नर्गिस से रिश्ता टूटने के बाद जो फिल्में उन्होंने बनाईं उनमें इस रिश्ते के टूटने से आए खालीपन को भरने की असंभव कोशिश दिखती है। उनके जो भी सामाजिक सरोकार थे वे भी इस प्रेम के विभिन्न पहलुओं की तरह ही थे। नर्गिस उनके लिए प्रेम का आदर्श थीं लेकिन कृष्णा कपूर उनका यथार्थ थीं। इस द्वैत को वे तो निभा सकते थे क्योंकि वे पुरुष थे, लेकिन नर्गिस इसे अनंत काल तक नहीं निभा सकती थीं। नर्गिस ने राज कपूर से अलग होकर सुनील दत्त के साथ जीवन बिताने का फैसला किया।

राज कपूर अपने प्रेम के आदर्श से अलगाव को कभी स्वीकार नहीं कर पाए। संगम फिल्म की कहानी राज कपूर, नर्गिस और सुनील दत्त के रिश्ते पर राज कपूर की विशफुल थिंकिंग की कथा है, जिसमें त्याग राजेंद्र कुमार को करना पड़ता है और आखिरकार नायिका राज कपूर को मिलती है। संगम राज कपूर की ऐसी फिल्म थी जो बहुत ग्लैमरस थी, जिसमें उनके सामाजिक सरोकार कहीं नहीं दिखते। यह भी गौरतलब है कि संगम 1964 में आई थी, जब नेहरू और उनके आदर्शों से मोहभंग दिखाई देने लगा था।

एक और बात है कि नर्गिस से अलग होने के बाद राज कपूर ने जितनी फिल्में बनाईं उनमें स्री देह की मांसल और ऐंद्रिक उपस्थिति बहुत गहरी है। राज कपूर ने नर्गिस को जैसे फिल्माया वह बिल्कुल अलग था। नर्गिस उनकी फिल्मों में रोमांस के प्रतीक की तरह दिखती हैं, उसमें दैहिकता गौण है। बाद की फिल्मों की नायिकाओं में देह और यौनिकता पर जरूरत से ज्यादा जोर है। वे बाद की तमाम फिल्मों में बार बार स्री देह को रूपक की तरह बरतने की कोशिश करते दिखते हैं। यह तथ्य भी अपने आप में बहुत कुछ कहता है।

फिल्मोग्राफी

राज कपूर उसके बाद भी करीब पच्चीस वर्ष तक सक्रिय रहे। वे उसी जुनून और लगन के साथ अपना सब कुछ झोंक कर फिल्में बनाते रहे।

यही दौर था जब अमिताभ बच्चन का किरदार नया नायक था। यह एंग्री यंग मैन था, जो अपने साथ अतीत में हुए अन्याय के गुस्से में जल रहा था। उसका कोई आदर्श नहीं था, उसे बदला लेना था, उसे किसी भी तरह से सफल होना था। यह नए भारत का नायक था, जो नेहरूवादी आदर्शों के खंडहरों पर खड़ा होकर दुनिया को चुनौती दे रहा था। लेकिन राज कपूर तब भी फिल्में बना रहे थे, हिंसा और बदले की कहानियों के बीच अपनी रूमानी, भावुक, आत्मरति और आत्मदया के साथ। वे पूरे विश्वास और जुनून के साथ अपनी अधूरी प्रेम कहानी लिखे जा रहे थे। जो लोग उन दिनों राज कपूर से मिले हैं वे बताते हैं कि राज कपूर रोज रात में अकेले शराब पीते हुए नर्गिस के साथ अपनी पुरानी फिल्में देखते हुए जागते रहते थे।

ऐसा नहीं है कि वह जमाना सिर्फ पुरानी ब्लैक ऐंड व्हाइट फिल्मों में बचा है, वरना हम उन्हें आज इस तरह याद नहीं करते। उसमें बहुत कुछ ऐसा बहुमूल्य है जो इस दमघोंटू समय में उम्मीद दिखाता है। शैलेंद्र ने राज कपूर के लिए लगभग अंत में जो गीत लिखा था "ये मेरा गीत, जीवन संगीत कल भी कोई दोहराएगा", इसी उम्मीद में यह आधी हकीकत, आधा फसाना प्रासंगिक बना रहता है।

राजेंद्र धोड़पकर

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, कवि, व्यंग्यकार, कार्टूनिस्ट हैं)

 

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