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भारत-विचार की रक्षा करें

मौजूदा सामाजिक और राजनैतिक हालात से देश के बुनियाद के ही नष्ट होने का खतरा
हर जगह विरोधः जादवपुर विश्व‌विद्यालय के दीक्षांत समारोह में सीएए और एनआरसी के विरोध में डिग्री फाड़ती एक छात्रा

भारत पर अपशकुनी बादल घुमड़ रहे हैं, विभाजनकारी और नफरत के साए लंबे हो रहे हैं, सभ्य समाज खतरे में है, आर्थिक प्रगति थम गई है या फिर कहें कि उलटी दिशा में मुड़ चली है। आज संकट इतना गंभीर है कि गर्त से वापसी मुश्किल हो सकती है।

नए दशक की शुरुआत हो रही है और हम दोनों ने मिलकर तय किया कि पहले की तरह किसी आर्थिक समस्या या तात्कालिक नीतिगत चुनौती के बारे में नहीं, बल्कि देश की सामाजिक और राजनैतिक चुनौतियों के बारे में लिखेंगे, जिससे हमारे अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है। हम एक-दूसरे को दशकों से जानते हैं और ऐसे भारत में बड़े हुए, जिसमें कमियां थीं लेकिन एक तरह का साझापन भी दिखाई देता था, जिससे उम्मीद बरकरार थी। हमारी पृष्ठभूमि अलग-अलग है। हममें एक बंगाली है और दूसरा पंजाबी। एक हिंदू है तो दूसरा सिख। लेकिन हममें एक साझापन है। हम दोनों लोगों की भलाई चाहते हैं और संवेदना, सहिष्णुता और करुणा के मौलिक मूल्यों में विश्वास रखते हैं। यह मानते हैं कि सभी के साथ एक जैसे व्यवहार होना चाहिए। धर्म, लिंग और जाति के आधार पर भेद किए बिना हर किसी की ओर जरूरत के समय मदद का हाथ बढ़ाना चाहिए। हमारा मानना है कि हर फैसला नैतिक और न्यायसंगत होना चाहिए, न कि यह देखकर कि किसी का धर्म और नस्ल क्या है। ये सिद्घांत जॉन रॉल्स और प्राचीन दार्शनिकों के लेखों में मिलते हैं। यही सिद्धांत भारतीय उपमहाद्वीप के दार्शनिकों और धार्मिक विचारकों के लेखों में भी मिलते हैं। भारत का बुनियादी विचार भी इसी से निकला है।

भारत की साझा संस्कृति

यह वक्त गुरु नानक के भावों को याद करने का है, जिसके आलोक में गुरु अर्जन ने लिखा, “मेरा कोई दुश्मन नहीं, कोई अजनबी नहीं, मैं सब से जुड़ा हूं।” गुरु गोविंद सिंह कहते हैं, “पूरी मानवता को एक जानो।” यह समय रवींद्रनाथ टैगोर की वह प्रसिद्घ कविता याद करने का है, आर्य आओ, अनार्य आओ, हिंदू और मुसलमान/ आओ आज, अंग्रेज, ईसाई आओ/ ब्राह्मण आओ, अपना मन साफ करो/ सभी से हाथ मिलाओ।

भारत के इन मूलभूत नैतिक मूल्यों में तेजी से ह्रास हुआ है, जिससे हम चिंतित हैं। अगस्त 1947 की उस ऐतिहासिक रात्रि को आजादी मिलने के बाद से भारत का इतिहास खासा उथल-पुथल भरा रहा है। कई घटनाएं ऐसी हुईं जिनसे हम सभी को शर्मिंदा होना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कई नए देशों का उदय हुआ, क्योंकि वहां लोगों ने उपनिवेशवादियों को उखाड़ फेंका और आजादी की घोषणा कर दी। इन देशों का जन्म लोकतंत्र और समता के आदर्शवादी सिद्घांतों के साथ हुआ। लेकिन सैन्य विद्रोह और धार्मिक कट्टरता ने एक के बाद एक कई देशों में इन आदर्शों को छिन्न-भिन्न कर दिया। लेकिन भारत उम्मीद की किरण बनकर लोकतंत्र के लिए प्रतिबद्धता, विचारों की स्वतंत्रता और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों पर अडिग खड़ा रहा। 1990 के दशक के मध्य से वह तेज गति से आर्थिक विकास भी करने लगा।

इसके बावजूद अभी कई चुनौतियों से निपटना बाकी है। देश में गरीबी और भेदभाव है, भ्रष्टाचार व्याप्त है और पर्यावरण की चुनौती गंभीर हो रही है। प्रदूषण की भी समस्या है जिस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो भावी पीढ़ियों को नुकसान झेलना पड़ेगा। हमें इन सभी समस्याओं का तत्काल समाधान निकालना होगा। 1990 के दशक के मध्य से तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था से उम्मीद बढ़ी थी कि हम इन चुनौतियों से निपटने में सक्षम होंगे। लेकिन विभाजनकारी सोच के कारण इसे झटका लगा है। इससे देश की साख और साझापन धूमिल हो रहा है। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में “बदला” लेने के लिए सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल और लोगों की घेराबंदी और विरोध के स्वरों को चुप कराना नैतिक रूप से अस्वीकार्य है। इससे विश्व स्तर पर भारत की छवि को भारी नुकसान पहुंचा है।

भरोसे से सुधरती है अर्थव्यवस्था

यह हमेशा माना नहीं जाता है लेकिन इसके लिए कई सबूत हैं कि सामाजिक भरोसे और जुड़ाव से आर्थिक प्रगति और वृद्घि तेज होती है। अर्थशास्‍त्री यॉन एलगन और पियरे कैहुक ने आंकड़ों के गहन विश्लेषण से सिद्घ किया है कि सामाजिक भरोसा जितना बढ़ता है, राष्ट्रीय आय में उतनी ही नाटकीय वृद्घि होती है। स्वीडन जैसा सामाजिक भरोसा पैदा करके अफ्रीका अपने मौजूदा प्रति व्यक्ति आय को छह गुना तक बढ़ा सकता है। हार्वर्ड बिजनेस रिव्यू में छपे एक हाल के अध्ययन से पता चलता है कि अगर कर्मचारियों की सराहना की जाती है और वे कंपनी से जुड़ाव महसूस करते हैं तो उनके काम का प्रदर्शन 56 फीसदी बेहतर हो जाता है, कारोबार में जोखिम 50 फीसदी घट जाता है और बीमारी के मद में छुट्टियां 75 फीसदी कम हो जाती हैं। उसके मुताबिक, “दस हजार कर्मचारियों की कंपनी को इससे हर साल 5.2 करोड़ डॉलर (करीब 375 करोड़ रुपये) से ज्यादा की बचत होती है।” इससे अंदाजा लगता है कि किसी देश की आर्थिक खुशहाली में भरोसे के भाव की कितनी अहमियत होती है।

वर्ष 2019 की उथल-पुथल से पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ चुकी थी, उद्योग, कृषि और निर्यात की वृद्धि दर दशक भर पहले के मुकाबले काफी धीमी हो गई थी। लेकिन अब तो मूलभूत नैतिक सिद्धांत खतरे में हैं। हमारा मानना है कि घृणा और बांटने की नीति को बढ़ावा देने से भारतीय अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है। हम तेजी से गर्त के दुश्चक्र में फंसते जा रहे हैं।

पक्षपात बंद करिए

हमें पल भर के लिए ठहरकर खुद से पूछना चाहिए कि हमें एक व्यक्ति के नाते क्या करना चाहिए। हम यह अपील सिर्फ उन नौजवान छात्रों, वैज्ञानिकों, हिंदुओं, सिख, ईसाइयों और मुसलमानों से ही नहीं कर रहे हैं, जो पहले ही पराया घोषित करने वाली नीतियों के खिलाफ सड़कों पर उतरे हुए हैं, बल्कि उनसे भी कर रहे हैं, जो हिंसा के पैरोकार हैं। हम उनसे गुजारिश करते हैं कि अपने अंदर झांक‌िए और लाठी-डंडे त्यागिए। हम पुलिस और सरकारी अधिकारियों से भी गुजारिश करते हैं कि लोगों की सुनें और उनका आदर करें। उन्हें सिर्फ लाठियां ही नहीं भांजनी चाहिए, बल्कि नैतिक मूल्यों के भी पहरुए बनें।

हमें यह देखकर उम्मीद बंधती है कि हमारी यूनिवर्सिटी, कॉलेजों के परिसरों में बहुत-से छात्र इसकी अहमियत समझते हैं। हमें इससे भी उम्मीद बढ़ती है कि राजनैतिक खेमेबंदियों से अलग अनेक अग्रणी विचारक और वैज्ञानिक भी आवाज उठाने लगे हैं। हमें उन सिखों से उम्मीद है, जो दूसरे धार्मिक समूहों के खिलाफ भेदभाव बरतने से इनकार करते हैं, उन हिंदुओं से आशा है जो मुसलमानों के साथ खड़े हैं, ईसाइयों से उम्मीद है जो सभी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के पक्ष में खड़े है और देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता को बचाने के लिए उठ खड़े हुए हैं। हम यह नहीं कह रहे हैं कि हम एकजुट होंगे तो हम संकट के कगार से वापस आ जाएंगे और हमारी सभी चुनौतियां खत्म हो जाएंगी। यह समझना जरूरी है क‌ि भारत निम्न मध्यम आय की अर्थव्यवस्था है, जिसमें कई तरह की नाइंसाफियां, अन्याय और संताप हैं जो जल्दी खत्म नहीं होंगे। फिर भी, हम भेदभाव से मुंह मोड़ लेते हैं, जिसकी पैरोकारी की जा रही है तब हम कई चुनौतियों का सामना करने की दिशा में बढ़ सकते हैं। तब उम्मीद की जा सकती है कि हम संकट से न सिर्फ वापसी कर सकेंगे, बल्कि ऐसा समाज और अर्थव्यवस्था का निर्माण कर सकेंगे, जो न सिर्फ हमारे लोगों के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए उदारहण होगा।

(कौशिक बसु देश के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार हैं और फिलहाल कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर हैं। निरविकार सिंह यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, सैंटा क्रूज में अर्थशास्‍त्र के प्रोफेसर हैं यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं)

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सभ्य समाज खतरे में है। आर्थिक प्रगति थम गई है या ‌फिर कहें कि उल्टी दिशा में चल पड़ी है। आज संकट इतना गंभीर है कि गर्त से वापसी मुश्किल है

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जो हिंसा के पैरोकार हैं। उनसे गुजारिश है कि अपने अंदर झांकिए और लाठी-डंडे त्यागिए। पुलिस और सरकारी अधिकारी भी नैतिक मूल्यों के पहरूए बनें

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