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आवरण कथा/आतंकरोधी कानून/दहशत का फरमान

यूएपीए, एनएसए, राजद्रोह जैसे कानून नागरिक स्वतंत्रता और कानून का राज छीनने के अहम औजार बने, कोई एक नहीं हर सरकार कर रही है संवैधानिक और न्याय सिद्धांतों पर कुठाराघात
स्वतंत्रता छीनने के काले कानून

अजीब क्रूर विडंबना है कि 2019 में जलियांवाला बाग हत्याकांड के सौ साल हुए और उसी साल 1967 के गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम कानून (यूएपीए) में कठोर संशोधन किए गए। इस संशोधन का मजमून लिखने वालों को यह याद दिलाना जरूरी है कि 1919 में जलियांवाला बाग में जनरल रेजिनाल्ड डायर के आदेश पर जिन देशभक्तों को गोलियों से भून डाला गया था, वे 1909 के रौलट एक्ट के विरोध के लिए जुटे थे, जिसके तहत किसी को बिना मुकदमा जेल में बंद रखा जा सकता था। अब पीछे मुड़ कर देखने और हमारे मौजूदा आतंकरोधी कानूनों, खासकर यूएपीए के इस्तेमाल तथा उसके नतीजों को देख कर यह कहना कतई गैर-मुनासिब नहीं होगा कि हमारे अपने आतंकरोधी कानूनों के मुकाबले अंग्रेजों का कानून कुछ अधिक मानवीय था। यकीनन, यूएपीए में संशोधन जालियांवाला बाग के शहीदों का अपमान है।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी न्यायविद मॉन्टेस्क्यू ने कहा था, “आखिरी जरूरत से न उपजने वाली हर सजा अत्याचारी है।” दरअसल आपराधिक कानून का इस्तेमाल अंतिम उपाय की तरह और ‘घोर निंदनीय अपराध’ के लिए ही होना चाहिए। न्याय या जायज होना ही कानून का स्रोत, सार और अंतिम मुकाम है। न्याय के बिना कानून की कल्पना अकल्पनीय है। दुर्भाग्य से, आज सत्ता ही कानून का आधार बन गई है। ‘अपराध’ सरकारी नीतियों से उपजते हैं और इसलिए आपराधिक कानून ‘न्याय’ के बजाय ‘सत्ता’ के विचार का आईना है। राज्य-तंत्र अपनी सोच से उन गतिविधियों को अपराध घोषित कर देता है, जो उसकी विचारधारा, चुनावी लाभ और हालात की मजबूरियों के अनुकूल नहीं होते हैं। इस तरह राज्य-तंत्र किसी भी चीज को अपराध या गैर-अपराध साबित करने का फैसला कर सकता है।

हममें से अनेक लोगों के लिए यह स्वीकार करना मुश्किल होगा कि आपराधिक न्याय नीति अपराध कम करने के प्रभावी साधन के रूप में काफी हद तक अप्रासंगिक है। कानून का डर एक कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं है। दरअसल यह एक पुराना विचार भर है, हालांकि जर्मी बेंथम जैसे उपयोगितावादियों ने इसे अपराध की रोकथाम का प्रभावी साधन माना है। कानून के डर के सिद्धांत के साथ समस्या यह है कि यह भविष्य में इस तरह के अपराध की रोकथाम के लिए अपराधी को कठोर सजा देना जायज मानती है। लेकिन यह फंतासी से ज्यादा कुछ नहीं है क्योंकि कानून के डर की प्रामाणिकता आज तक किसी आधिकारिक वैज्ञानिक अध्ययन में साबित नहीं हुई है।

अतीत में टाडा, पोटा और वर्तमान में यूएपीए, एनएसए जैसे बेहद दमनकारी आतंकवाद विरोधी कानून होने के बावजूद, आतंकी हिंसा में कोई उल्लेखनीय गिरावट नहीं आई है। कश्मीर में ताजा घटनाक्रम दर्शाते हैं कि हमारी आतंक विरोधी नीतियां सफल नहीं रही हैं। इन कानूनों के सख्त प्रावधान आतंकवाद को व्यापक संभव शब्दों में परिभाषित करते हैं। मसलन, आजीवन कारावास या फांसी जैसी कठोर सजा, साबित न होने तक बेकसूर होने की अवधारणा को उलटना, किसी आरोपी से हथियार बरामद होने पर उसे अपराधी मान लेना, पुलिस अधिकारियों को दिए गए इकबालिया बयान की स्वीकार्यता, लंबे समय तक हिरासत में रखने की छूट और जमानत से इनकार वगैरह।

यूएपीए सहित आतंक विरोधी कानूनों का बड़े पैमाने पर छोटे-मोटे अपराधियों, ट्रेड यूनियन नेताओं, राजनैतिक विरोधियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, बुजुर्ग नागरिकों और यहां तक कि किशोर युवाओं के खिलाफ भी धड़ल्ले से इस्तेमाल किया गया है। 1990 के दशक की शुरुआत में गुजरात में कांग्रेस सरकारों के दौरान टाडा का इस्तेमाल अक्सर किया गया। इसी तरह झारखंड में भी इसका दुरुपयोग किया गया। यहां तक कि हाइकोर्ट के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश अजीत सिंह बैंस को भी महीनों तक पंजाब में नजरबंद रखा गया था। हाल में फादर स्टेन स्वामी की हिरासत में हुई मौत की भी व्यापक आलोचना हुई है।

यूएपीए कानून के तहत 2015 से 2019 तक 7,840 लोगों को गिरफ्तार किया गया, लेकिन निचली अदालत ने केवल 155 को ही दोषी पाया। उन दोषियों में भी कई को हाइकोर्टों ने बरी कर दिया। कांग्रेस सरकारों ने टाडा का दुरुपयोग किया, जिसे 1985 में कानूनी रूप दिया गया और 1987 में संशोधित किया गया था। 1994 तक टाडा के तहत 67,000 लोगों को हिरासत में लिया गया था। लेकिन पुलिस के सामने दी गई गवाही को सबूत के रूप में स्वीकार्य करने के बावजूद केवल 725 लोगों को दोषी ठहराया जा सका। इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 2018 और 2019 के दौरान उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत 120 में से 94 मामले रद्द कर दिए।

सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में करतार सिंह मामले में टिप्पणी की कि अनेक मामलों में अभियोजन पक्ष ‘आरोपी व्यक्तियों की जमानत रोकने के उद्देश्य से’ टाडा का नाजायज इस्तेमाल करता है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि टाडा का ऐसा इस्तेमाल ‘पुलिस द्वारा कानून का सरासर दुरुपयोग और उल्लंघन के अलावा कुछ और नहीं है।’ यूएपीए के दुरुपयोग की भी यही कहानी है। आसिफ इकबाल तन्हा मामले (15 जून, 2021) में दिल्ली हाइकोर्ट का 133 पन्नों का जमानत आदेश दिल्ली पुलिस पर बिजली की तरह कड़का, जिससे तन्हा, देवांगना कलिता और नताशा नरवाल की रिहाई हुई है। सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को इस साहसिक और दो-टूक फैसले के देशव्यापी भारी नतीजों के बारे में समझाने की भी कोशिश की, लेकिन वे उस पर पूरी तरह रोक लगाने का आदेश नहीं पा सके। अलबत्ता सर्वोच्च अदालत ने यूएपीए के खास प्रावधानों पर हाइकोर्ट की महत्वपूर्ण टिप्पणियों पर जरूर कुछ शंकाएं जाहिर कीं।

असली विवाद यह है कि जब यूएपीए का इस्तेमाल किया जाता है तो ‘आतंकवाद’ को कैसे परिभाषित किया जाता है। ‘आतंकवाद’ पद का पहली बार इस्तेमाल 1793 में फ्रांसीसी क्रांतिकारियों की कार्रवाइयों के लिए किया गया, जो वे अपने घरेलू दुश्मनों के खिलाफ करते थे। हालांकि आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘आतंकवाद’ की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 1972 में एक समिति को यह कार्य सौंपा था लेकिन लगभग 50 वर्षों में भी आतंकवाद के अर्थ पर कोई सहमति नहीं बन पाई है। इसी तरह भारत में, न तो टाडा और न ही यूएपीए में ‘आतंक’ और ‘आतंकवाद’ की कोई परिभाषा मिलती है।

यूएपीए की धारा 15 आतंकवादी कार्रवाई को बड़ी लंबी-चौड़ी और अस्पष्ट शब्दों में परिभाषित करती है। उसके अनुसार, ‘देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा, आर्थिक सुरक्षा, या संप्रभुता को खतरे में डालने या खतरे में डालने के इरादे से या आतंकी हमला करने या हमला करने के इरादे से कोई भी काम आतंकवादी कृत्य है। ऐसा आतंकवादी कृत्य कैसे किया जाता है? यूएपीए कहता है, ‘बम, डायनामाइट या अन्य विस्फोटक पदार्थों या ज्वलनशील पदार्थों या आग्नेयास्त्रों या अन्य घातक हथियारों या जहरीली या हानिकारक गैसों का उपयोग करना या किसी भी दूसरे तरीके से मौत, या चोट या क्षति या संपत्ति के नुकसान का कारण बनना।’ तो, यहां ‘किसी भी दूसरे तरीके से’ के क्या मायने हैं? जब कानून में किसी सामान्य शब्द का प्रयोग विशिष्ट शब्दों के बाद किया जाता है, तो उसकी व्याख्या विशिष्ट शब्दों के संदर्भ में ही की जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में याकूब अब्दुल रज्जाक मेमन मामले में कहा कि आतंकवादी कार्रवाई धमकी से लेकर हत्या, अपहरण, हवाई जहाज का अपहरण, कार बम, विस्फोट, खतरनाक सामग्रियां डाक से भेजना और रासायनिक, जैविक, परमाणु हथियारों वगैरह के इस्तेमाल तक हो सकती है। नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इकबाल ने ऐसा कोई भी काम नहीं किया, इसलिए दिल्ली हाइकोर्ट के न्यायमूर्ति अनूप जयराम भम्भानी उनके किसी आतंकवादी कार्रवाई में शामिल होने के आरोप से संतुष्ट नहीं हो सके। पूरी तरह से सर्वाेच्च अदालत के फैसलों पर आधारित सटीक और प्रबुद्ध जमानत आदेश में उन्होंने दिल्ली पुलिस को आतंकवादी कार्रवाई का सही अर्थ याद दिलाया।

न्यायमूर्ति भम्भानी 1982 में राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम की संवैधानिकता को चुनौती से जुड़े ए.के. रॉय के प्रसिद्ध फैसले को आधार मानकर सीएए विरोधी तीन प्रदर्शनकारियों की जमानत मंजूर करते वक्त इस नतीजे पर पहुंचे कि संसदीय फैसले से असहमत होने वाले किसी व्यक्ति पर कठोर दंडात्मक प्रावधान चस्पां नहीं किए जा सकते हैं, इसलिए इसकी दो-टूक समीक्षा की दरकार है।

सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि एनएसए जैसे ऐहतियातन हिरासत वाले सख्त कानून पर अमल के वक्त यह ध्यान में रखना चाहिए कि यथासंभव उसका इस्तेमाल चुनिंदा मामलों तक सीमित रहे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि ऐसा नहीं करने पर ऐसे कानूनों को असंवैधानिक करार दिया जा सकता है, क्योंकि व्यक्ति की स्वतंत्रता पर इनका बुरा असर पड़ता है। 1994 में संजय दत्त के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जिन लोगों को कानूनी रूप से दंडित नहीं किया जा सकता, उन्हें दंडात्मक प्रावधानों को बढ़ाकर हिरासत में नहीं रखा जाना चाहिए। उसी के आधार पर दिल्ली हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया कि यूएपीए में ‘आतंकवादी कार्रवाई’ की परिभाषा लंबी-चौड़ी और कुछ हद तक अस्पष्ट है, इसलिए उसे सामान्य अपराधों पर जब-तब लागू नहीं किया जा सकता है और आरोपी की कार्रवाई में आतंकवाद का खास तत्व जरूर दिखना चाहिए। सीएए विरोधी प्रदर्शनकारी और नागरिक समाज के कार्यकर्ता आतंकवादी नहीं हैं। आतंकवाद को परिभाषित करना मुश्किल हो सकता है लेकिन क्या हर कोई नहीं जानता है कि आतंकवाद जैसी कार्रवाई वास्तव में कब होती है?

सर्वोच्च न्यायालय ने 1994 के हितेंद्र विष्णु ठाकुर मामले में आतंकवाद की परिभाषा ऐसी हिंसा के लिए की थी, जिसका बेहद खास असर न केवल पीडि़त की शारीरिक और मानसिक क्षति के रूप में दिखे, बल्कि उस पर लंबे समय तक मनोवैज्ञानिक असर छोड़े या पूरे समाज में वैसा ही असर छोड़े। ‘‘आतंकवादी गतिविधि सामान्य दंड कानून के तहत दंडित किए जाने वाले सामान्य अपराध से कहीं ज्यादा बड़ा कृत्य है। और उसका मुख्य उद्देश्य सरकार को डराना या समाज के सद्भाव को बिगाड़ना या लोगों को ‘आतंकित’ करना और यहां तक कि समाज की शांति और सामान्य गतिविधियों पर असर डालना है। साथ ही वह समाज में भय और असुरक्षा का माहौल पैदा करे।’’

इस प्रकार, जो चीज आतंकवाद को हिंसा के अन्य रूपों से अलग करती है, वह है जानबूझकर और व्यवस्थित रूप से जबरदस्ती डराने-धमकाने के तरीके। करतार सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सामान्य व्यवस्था में थोड़ी-बहुत खलल और किसी विशेष इलाके के सामुदायिक जीवन में थोड़ी अव्यवस्था पैदा करने वाली कार्रवाई आतंकवादी कृत्य नहीं है। ऐसे में दिल्ली में सीएए विरोधी प्रदर्शन, असम में अखिल गोगोई के खिलाफ या भीमा कोरेगांव मामले में दिवंगत स्टेन स्वामी सहित सार्वजनिक बुद्धिजीवियों के खिलाफ आरोपों की क्या बात करें? दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने 1999 में राजीव गांधी की हत्या के मामले में नलिनी और 25 लोगों के संबंध में कहा था कि किसी भी आरोपी का सरकार को डराने या लोगों के बीच आतंक फैलाने का इरादा नहीं था और इसलिए राजीव गांधी और 15 अन्य की हत्या टाडा की धारा 3 के तहत आतंकवादी कृत्य या विघटनकारी गतिविधि नहीं मानी जाएगी।

हममें से बहुत-से लोगों को यह जानकारी नहीं हो सकती है कि 2003 में पोटा की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली पीयूसीएल की याचिका पर ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आतंकवादी गतिविधियों के एक और बेहद अहम पहलू का जिक्र किया था। उसमें अन्य बातों के अलावा, ‘हमारे प्रिय संवैधानिक सिद्धांतों को उलटना’, ‘धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को नुकसान पहुंचाना’ और ‘पूर्वाग्रह तथा नफरत को बढ़ावा देना’ भी आतंकवादी कृत्य के तहत माना गया। इस व्याख्या के आधार पर तो आज के दौर में हमारी राजनीति की कई प्रमुख हस्तियों पर आतंकवादी कृत्य करने का मुकदमा चलाया जा सकता है।

यूएपीए में 2019 का संशोधन न केवल हमारे संघीय ढांचे का उल्लंघन है, बल्कि वह आपराधिक न्याय प्रणाली के लंबे समय से चले आ रहे न्यायिक सिद्धांतों के खिलाफ जाने का एक और उदाहरण है। आपराधिक न्याय प्रणाली का पलड़ा आरोपी के पक्ष में झुका होना चाहिए क्योंकि दीवानी मामलों की तरह यहां दोनों पक्षों में कोई बराबरी नहीं होती है। इसमें ताकतवर राज्य-तंत्र एक मामूली से आरोपी आदमी के खिलाफ खड़ा होता है। यूएपीए में ‘आरोपी’ और ‘दोषी’ के बीच महत्वपूर्ण अंतर भी मिटा दिया गया है। अब ‘आरोपी’ होना ‘दोषी’ सिद्ध होने जितना ही बुरा है। व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार भी समाप्त हो गया है। कोई व्यक्ति तब आरोपी कहलाता है जब कोई न्यायाधीश मामले का संज्ञान लेकर न्यायिक सिद्धांतों पर अमल करके आरोप तय करता है। लेकिन हमारे आतंकवाद रोधी कानूनों के तहत सरकार खुद-ब-खुद लोगों और संगठनों को आतंकवादी घोषित करने की अधिकारी बनी हुई है। इससे सरकार को क्या हासिल होता है, यह साफ नहीं है क्योंकि कोई नया अपराध अभी तक सामने नहीं आया है।

कोई बस उम्मीद ही पाल सकता है कि प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमन्ना की राजद्रोह पर हालिया टिप्पणियां अंतत: राजद्रोह कानून को रद्द करने का जरिया बनेंगी। आतंकवाद से मुकाबले के नाम पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अनुचित कटौती हमारे समय की सबसे बड़ी त्रासदी है। आज, यूएपीए और दूसरे अन्य ‘आतंक’ रोधी कानून लोगों को आतंकित करने का बड़ा साधन हैं। वे कानून के राज के आदर्शों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करते हैं। जरूरी नहीं कि आतंकवाद का मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका आतंकवाद का ही दूसरा रूप हो।

(लेखक हैदराबाद स्थित नालसार विधि विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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