कभी खुशी, कभी गम यह परिस्थिति आदमी के जीवन का हिस्सा है। निराशा की कोई स्थिति जब डिप्रेशन के रूप में हमारे मन में भीतर गहराई तक पहुंच जाती है, तो यह मानसिक बीमारी के तौर पर हमारे जीवन, हमारी दिनचर्या पर असर दिखाने लगती है। डिप्रेशन इस परेशानी का वैज्ञानिक नाम है। आम बोलचाल की भाषा में इसे अवसाद भी कहा जाता है। जब कोई व्यक्ति डिप्रेशन का शिकार हो जाता है तो मेडिकल की भाषा में कहा जाता है कि यह एक डिसऑर्डर है। डिप्रेशन को मानसिक रूप से बीमारी के तौर पर हम तब मानते हैं जब कोई व्यक्ति 24 घंटे में अधिकतर समय उदास रहे। वह भी तब, जब इस तरह की स्थिति लगातार दो हफ्ते तक बनी रहे, उदासी की वजह से उसकी दिनचर्या प्रभावित होने लगे। जैसे नींद कम हो जाना, भूख न लगना, लोगों से बातचीत न करना, मिलना-जुलना अच्छा न लगना। टीवी देखना, मोबाइल देखना या अखबार पढ़ना यानी जो किसी व्यक्ति का रुटीन काम है, उसे वह अच्छा नहीं लगता है। आमतौर पर वह जिस काम को करता रहा है, उसे करने में उसकी रुचि समाप्त हो जाती है, तो हम मानते हैं कि उस व्यक्ति पर अवसाद का असर हो रहा है। इसके अलावा इस मानसिक स्थिति के बारे में तीन शब्द हम और इस्तेमाल करते हैं, होपलेसनेस, हेल्पलेसनेस और वर्थलेसनेस।
डिप्रेशन के लक्षण
डिप्रेशन में उलझन और घबराहट एक सामान्य समस्या है। इंसान का मूड यानी मनस्थिति इससे प्रभावित होने लगती है। इस तरह की समस्या होने पर सुबह के समय में आदमी अधिक उदास हो जाता है। शाम को थोड़ा बेहतर महसूस करता है। नींद आने में दिक्कत होती है या बार-बार नींद टूट जाती है। अर्ली मॉर्निंग इन्सोम्निया भी डिप्रेशन का लक्षण हो सकता है। इसमें इंसान की नींद जल्दी खुल जाती है। सुबह होने से पहले ही दो-तीन बजे नींद का खुल जाना एक आम समस्या है इस तरह की बीमारी में। ऐसे में उदासी, मायूसी, उलझन और घबराहट बढ़ जाती है। भूख भी कम हो जाती है और वजन घटने लगता है। हर चीज की इच्छा कम हो जाती है, यहां तक कि सेक्स की इच्छा भी कम हो जाती है। इंसान की बॉयोलॉजिकल एक्टिविटी कम हो जाती है। मन में काम करने की इच्छा नहीं होती, आलस्य घेरने लगता है। हाथ-पैर या शरीर में दर्द और थकावट का अनुभव होना भी आम बात है। इस तरह की परिस्थितियों से गुजरते हुए इंसान के मन में अपराधबोध हावी होने लगता है। इंसान अपनी गलतियों के बारे में अधिक सोचने लगता है। उसे लगने लगता है कि मैं किसी लायक नहीं रह गया। मेरा भविष्य अंधकारमय है। मेरी कोई मदद नहीं कर सकता है। इस तरह के विचार मन में गहराई से जगह बनाने लगते हैं। इन सब कारणों की अधिकता के बाद इंसान आत्महत्या के बारे में सोचने लगता है। मन में यह विचार जगह बनाने लगता है कि अच्छा होता मैं इस दुनिया में नहीं रहता। ऐसे में, इंसान आत्महत्या की योजना बनाने लगता है। आखिर में उसे किस तरह आत्महत्या करना है, वह उसके बारे में प्लान करने लग जाता है। कई बार कुछ लोगों के प्रयास विफल हो जाते हैं, तो कुछ लोग पहली बार में ही कामयाब हो जाते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक डिप्रेशन के शिकार 10 से 15 फीसदी लोग आत्महत्या करने में कामयाब हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि एक बार इस तरह का नाकाम प्रयास करने वाले के लिए भविष्य में इस तरह के प्रयास करने का जोखिम बढ़ जाता है। ऐसे लोगों पर अधिक ध्यान रखने की जरूरत होती है।
समस्या वंशानुगत या सामाजिक
अभिनेता सुशांत राजपूत की मौत की खबर के बाद इसके कारणों की तलाश तो पुलिस ही कर पाएगी, एक मनोवैज्ञानिक के तौर पर इसका विश्लेषण कठिन है। हम जटिल से जटिल मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों की चर्चा करते हैं तो मानसिक बीमारी या डिप्रेशन की वजह से आत्महत्या करने की बात सही है। लेकिन इसके लिए कई कारणों की तलाश जरूरी है। ऐसी स्थिति बायोलॉजिकल कारणों से भी आ जाती है और सामाजिक कारणों से भी। इसमें वंशानुगत प्रभाव बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं। बायोलॉजिकल कारणों से ब्रेन में न्यूरो ट्रांसमीटर जैसे सिरोटोनिन, नॉरपेनफ्रिन और डोपामिन की कमी हो जाती है और इंसान इस तरह की समस्या का शिकार होने लगता है। वंशानुगत समस्याएं भी इस बीमारी की ओर बढ़ने की वजह बन जाती हैं। यानी इस तरह की घटना के पीछे बॉयोलॉजिकल फैक्टर काम करते हैं और साइको सोशल फैक्टर की भूमिका निभाते हैं। अगर किसी व्यक्ति के परिवार में किसी को इस तरह की परेशानी है, तो उसका भी असर हो सकता है। लेकिन यह कहना भी ठीक नहीं कि जिसके परिवार में ऐसा इतिहास हो, वह ऐसा करेगा ही। हां, कई मामलों में यह एक वजह बन जाती है। इन बीमारियों का सही कारण पता नहीं चल पाता है, लेकिन ये परिस्थितियां रिस्क फैक्टर के रूप में देखी जाती हैं। इसका हमें ध्यान रखना होता है।
इसके अलावा न्यूरो ट्रांसमीटर्स की कमी भी एक बड़ी समस्या है। समाज की यह सोच है कि ऐसा केवल मनोवैज्ञानिक कारणों से होता है या सामाजिक दबाव में, यह पूरी तरह सही नहीं है। इसमें बॉयोलॉजिकल कारण भी मुख्य वजह बन जाती है। जब हम यह बात करते हैं कि संपन्न होने के बावजूद कोई क्यों ऐसे रास्ते अपना लेता है, तो हमें उसकी सभी परिस्थितियों के बारे में विचार करना होगा। यह देखना होगा कि किस तरह की संपन्नता थी। क्या कोई ईएमआइ का दबाव था, क्या कोई परफॉर्मेंस का दबाव था या कोई अन्य दबाव था? क्या वह कोविड की वजह से लॉकडाउन में अकेले थे? क्या कोई और था उनके साथ? क्या वे और लोगों के संपर्क में थे? यह भी देखना होगा कि परिवार और दोस्तों के साथ संवाद का रास्ता खुला था या नहीं? इंसान डिप्रेशन में अपने आप को बंद कर लेता है। अपनी चीजों को वह बांटता नहीं है। मुझे नहीं पता कि सुशांत डिप्रेशन की परेशानी से गुजर रहे थे कि नहीं, लेकिन इस बीमारी के बारे में यह मैं कह सकता हूं कि ऐसी स्थिति में आदमी अंतर्मुखी हो जाता है। ऐसे व्यक्ति की विचारधारा भी निगेटिव हो जाती है। उसकी प्रतिक्रियाएं भी निगेटिव हो जाती हैं। वह जीवन में सकारात्मक पहलू की ओर नहीं देख पाता है। इसीलिए हम लोग कहते हैं कि संवाद होना बहुत जरूरी है। संवाद की वजह से हम और आप जीवन के दोनों पहलुओं को देख पाते हैं, समझ पाते हैं। इस तरह की मानसिक विषमता में फंसे लोगों को हम वैसे लोगों की कामयाबी की कहानियां बताते हैं जो ऐसे हालात से लड़कर उबरते हैं। वैसे लोगों से इनकी मुलाकात भी अच्छा असर डालती है।
आत्महत्या की वजहें कई
जहां तक आत्महत्या का सवाल है, जरूरी नहीं है कि केवल डिप्रेशन की स्थिति में ही लोग इस ओर बढ़ते हैं। एंग्जाइटी, सिजोफ्रेनिया, नशीले पदार्थों की लत के शिकार भी आत्महत्या कर लेते हैं। एंग्जाइटी में इंसान को बहुत घबराहट होती है। सिजोफ्रेनिया में डर, शक-शुबहा, कानों में आवाजें जैसी समस्याएं घेर लेती हैं। अफीम या तरह-तरह के नशे के आदी लोग उसमें इतना डूब जाते हैं कि उसके बगैर जीवन की कल्पना नहीं कर पाते और अपनी जीवनलीला समाप्त करना सही समझ लेते हैं।
इस वक्त कोविड की वजह से भी लोगों को मानसिक रूप से बहुत तरह की समस्याएं सामने आ रही हैं। हम जिस पॉजिटिव मेंटल हेल्थ की बात कर रहे हैं वह भी सब लोगों को बताना जरूरी है। रुटीन बनाए रखिए, नियमित एक्सरसाइज करिए, अपना लचीलापन बनाए रखिए। जीवन के उद्देश्य को तलाशने का प्रयास करिए, लोगों के साथ संपर्क में रहिए। हमें यह भी विचार करना चाहिए कि हम कुछ अधिक बातें तो नहीं सोच रहे, अनावश्यक बातों को अधिक महत्व तो नहीं दे रहे। इंडियन साइकियाट्रिक सोसाइटी ने लॉकडाउन के पहले चरण में 1,685 लोगों से ऑनलाइन सर्वेक्षण कर मनोवैज्ञानिक समस्याओं की स्थिति जानने की कोशिश की। इस सर्वे के मुताबिक, 38.5 फीसदी लोग एंग्जाइटी के शिकार हुए और 9.5 फीसदी लोगों में डिप्रेशन, 70 फीसदी लोगों में स्ट्रेस पाया गया। लेकिन ये अच्छी बात है कि यह बीमारी लाइलाज नहीं है। समय पर यदि सही इलाज हो जाए तो इस तरह की समस्याओं का शिकार व्यक्ति पूरी तरह ठीक हो जाता है। इसलिए इसको लेकर अधिक जागरूकता की जरूरत होती है। ऐसी समस्याएं शुरू होते ही उचित इलाज के जरिए लोगों का जीवन आसानी से बचाया जा सकता है।
(जैसा कुमार भवेश चंद्र को बताया, डॉ. दलाल किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के साइकियाट्री विभाग के हेड और इंडियन साइकियाट्रिक सोसाइटी के प्रेसिडेंट हैं)
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जहां तक आत्महत्या का सवाल है, जरूरी नहीं कि केवल डिप्रेशन की स्थिति में लोग इस ओर बढ़ें। एंग्जाइटी, सिजोफ्रेनिया, नशीले पदार्थों की लत के शिकार भी ऐसा कर लेते हैं