एक साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अप्रत्याशित रूप से और ज्यादा बहुमत के साथ दोबारा चुने गए क्योंकि लोगों ने उन्हें निर्णायक नेता माना, जब राष्ट्रीय सुरक्षा की गंभीर चुनौतियां सामने हैं। दुर्भाग्यवश, मोदी ने इसे संघ परिवार की विवादास्पद विचारधारा को समर्थन समझा।
उन्होंने तुरत-फुरत जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा समाप्त कर दिया और कई महीनों का लॉकडाउन लगाकर वहां के भारत समर्थक नेताओं को नजरबंद कर दिया। उन्होंने ट्रिपिल तलाक बिल को आगे बढ़ाकर समान नागरिक संहिता की ओर कदम बढ़ा दिए और तुरंत तलाक देने की मुस्लिम पुरुषों की परंपरा को आपराधिक कृत्य बना दिया। संघ परिवार का तीसरा शीर्ष एजेंडा सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पूरा हो गया, जिसके अनुसार अयोध्या में राम मंदिर निर्माण होगा। इसके बाद नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) आ गया। माना जाता है कि पड़ोसी देशों से उत्पीड़न के कारण भागकर आए गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को मदद मिलेगी, लेकिन केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसकी क्रमवार आवश्यकता बताई, “राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तैयार होने के बाद सीएए लागू होगा।” उसके बाद, गैर-मुस्लिमों को नागरिकता के समुचित सबूत के बिना ही सीएए के जरिए भारतीय नागरिकता मिल जाएगी। बाकी लाखों लोगों को घुसपैठिया घोषित कर दिया जाएगा और उन्हें अनिश्चितकाल के लिए डिटेंशन सेंटरों में बंद कर दिया जाएगा।
असंवैधानिक तरीके से नागरिकता के लिए धार्मिक पात्रता जोड़ने और भारतीय मुसलमानों की नागरिकता छिनने की आशंका के चलते पूरे देश में लंबा और स्वतःस्फूर्त आंदोलन शुरू हो गया। उत्तर-पूर्व दिल्ली में फरवरी के दौरान दंगे भड़क गए। अनेक वीडियो सामने आए, जिनसे पता चला कि दिल्ली पुलिस (केंद्र सरकार के अधीन) कैसे दंगाइयों, अपराधियों और भड़काऊ भाषण देने वाले भाजपा नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करने में विफल रही। जिस समय उत्तर-पूर्व दिल्ली जल रही थी, लुटियंस जोन की दिल्ली में मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ समारोह में व्यस्त थे।
‘नमस्ते ट्रंप’ से दो हफ्ते पहले, कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने आगाह किया था कि भारत में कोरोना का संक्रमण रोकने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। लेकिन सरकार ने उनकी चेतावनी को नजरंदाज कर दिया। एक माह बाद, मैंने संसद सत्र जल्दी समाप्त करने का राज्य सभा में अनुरोध किया, लेकिन जवाब मिला कि सांसदों को कोविड-19 के खतरे का सामना करके बहादुरी दिखानी चाहिए।
कुछ दिनों बाद, भाजपा ने जैसे ही मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार गिराई, उसने बहादुरी त्याग दी और संसद सत्र स्थगित कर दिया गया। एक दिन के अभ्यास सत्र (जनता कर्फ्यू) के बाद, सरकार ने चार घंटे के नोटिस पर राष्ट्रीय लॉकडाउन लागू कर दिया। अर्थव्यवस्था अनायास थम गई। लाखों प्रवासी मजदूर मजबूरन गंभीर संकट, अधिकारियों की उदासीनता और पुलिस उत्पीड़न के बीच अपने घरों को पैदल निकल पड़े। दुर्घटनाओं और पैदल चलने से बीमार पड़ने के कारण मौतें होने की कुछ त्रासद घटनाएं सामने आईं।
बहुसंख्य गरीबों की पीड़ा उनकी 'पदयात्रा' से खुलकर सामने आई। इससे ग्रामीण भारत का यह सच उजागर हुआ कि गांवों के लोग किसी भी असुरक्षित और यहां तक कि शोषणकारी काम की तलाश में बाहर जाते हैं, ताकि आजीविका चला सकें और कुछ पैसा अपने परिवार के लिए भेज सकें। किसानों की दोगुनी आय के वायदों और पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी की बड़ी-बड़ी बातों के नीचे मोदी के भारत की वास्तविकता यही है। अपने घरों की ओर पैदल जाते प्रवासी मजदूरों के प्रति सरकार की सहानुभूति का अभाव उसके घुसपैठियों के प्रति पहले के जुनून के विपरीत था, जिसके तहत वह एनआरसी के जरिए उन्हें बाहर खदेड़ने पर आमादा थी। स्पष्ट है, अगर सरकार ने इस पर ध्यान दिया होता कि आम भारतीय को क्यों और किन स्थितियों में बाहर जाना पड़ता है, तो वह प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए व्यवस्था कर पाती और लोगों को पीड़ा और दुर्दशा से बचा पाती।
लेकिन मोदी सरकार का काम करने का तरीका असुविधाजनक तथ्यों को दबाने का है। जब समय-समय पर होने वाले श्रमिक सर्वेक्षणों से बढ़ती बेरोजगारी का पता चला, तो सरकार ने उसे बंद कर दिया। जब नेशनल सेंपल सर्वे ने गरीबी और कुपोषण की चेतावनी दी, क्योंकि ग्रामीण भारत अपना भोजन खर्च घटाने तक को विवश है तो उसे तकनीकी वजह बताकर बंद कर दिया गया। कोविड-19 से पहले भी घटते कर राजस्व, बढ़ते राजकोषीय घाटा, अपूर्ण विनिवेश लक्ष्य और लगातार बढ़ती बेरोजगारी की समस्याएं सामने आईं। निवेश, बिजली खपत, नॉन-फूड क्रेडिट और जीडीपी ग्रोथ सभी में लगातार गिरावट आ रही थी। दुर्भाग्यवश, अभी भी सरकार यह मानने को तैयार नहीं है कि व्यापक वित्तीय उपायों के जरिए मांग सुधारे बगैर, उधारी बढ़ाने पर फोकस वाले बहुप्रचारित 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज से अर्थव्यवस्था को कोविड-19 के संकट से उबारना संभव नहीं होगा। मोदी 2.0 के पहले साल में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच उचित दूरी का भी लगातार क्षरण हुआ। देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के रिटायर होने के कुछ दिनों बाद राज्य सभा में नामांकन किए जाने पर संस्थागत स्वतंत्रता को लेकर चिंता व्यक्त की गई। वास्तव में, न्यायपालिका को मूलभूत अधिकारों के निलंबन सहित कार्यपालिका के अहम फैसलों पर हस्तक्षेप करने का समय किसी वजह से नहीं मिला। मीडिया एक और ऐसी संस्था है जिसमें समझौता किया गया।
भारत ग्लोबल महामारी के साथ आर्थिक संकट से भी जूझ रहा है, जिसकी जड़ें मोदी सरकार 1.0 से जुड़ी हैं। राष्ट्रीय रिकवरी से एक भी व्यक्ति की ऊर्जा को वैचारिक एजेंडा की ओर मोड़ने से देश का नुकसान होगा। आगे बढ़ने के लिए मोदी के सामने एक विकल्प है। वे अर्थव्यवस्था की दिक्कतें दूर कर, गरीबों को पीड़ा मुक्त करके और सांप्रदायिक एजेंडा को किनारे रखकर भारत को उचित और समग्र विकास पथ पर आगे ले जा सकते हैं या फिर वे अपने जनादेश का गलत अर्थ निकालकर विभाजनकारी नेतृत्व दे सकते हैं और भारत के हितों को नजरंदाज कर वैचारिक विजय पा सकते हैं।
(लेखक कांग्रेस के सांसद और एआइसीसी रिसर्च विभाग के चेयरमैन हैं)
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मोदी के सामने विकल्प है कि वे समग्र विकास के पथ पर आगे बढ़ें या फिर देश हित छोड़कर वैचारिक विजय हासिल करें