दुनिया भर में कोविड-19 महामारी के चलते भयावह आर्थिक मंदी दस्तक दे रही है। आशंका है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था पांच फीसदी तक सिकुड़ सकती है और उसे पटरी पर लाने के लिए दुनिया की बड़ी और मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों ने बड़े स्टिमुलस पैकेज घोषित कर दिए हैं। अमेरिका का स्टिमुलस पैकेज तो हमारी अर्थव्यवस्था के लगभग बराबर पहुंचने वाला है। चीन, जापान, जर्मनी और यूरोपीय संघ के कई अन्य विकसित देशों के पैकेज भी काफी बड़े हैं। भारत में तो सबसे सख्त लॉकडाउन के पहले से ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था की सांसें थम-सी गई हैं लेकिन सरकार से किसी सार्थक पैकेज का इंतजार ही चलता रहा है। सरकार लॉकडाउन खोलने का कोई पुख्ता प्लान लेकर आए तो आर्थिक गतिविधियां फिर शुरू हो पाएं।
फिलहाल सरकार ने जो कुछ ढील दी है, उससे लगभग न के बराबर ही गतिविधियां शुरू हो सकी हैं। कई स्वास्थ्य एक्सपर्ट और नीतिगत विशेषज्ञ एकमत हैं कि लॉकडाउन से देश में कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने में मदद मिली है। हालांकि मरीजों की संख्या और मौतें बढ़ रही हैं। अलबत्ता, कुछ राज्यों की बेहतर रणनीति और कामकाज के चलते मरीजों की संख्या घटी है और हालात सुधर रहे हैं। ऐसे में लॉकडाउन खोलने या सीमित करने पर बहस बढ़ गई है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था लंबे समय तक बंदी झेलने की स्थिति में नहीं है। बंद हो रहे कारोबार और बेरोजगारी के स्तर में लगातार बढ़ोतरी के चलते वैश्विक संस्थाएं भारत में गरीबी में भारी इजाफे और भुखमरी बढ़ने की भयावह आशंकाएं जता रही हैं।
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यही है कि अर्थव्यवस्था को लेकर सरकार की रणनीति आखिर क्या है? बिना किसी बड़े स्टिमुलस पैकेज के अभी इसका जवाब नहीं मिल रहा है और न ही सरकार की तरफ से कोई स्पष्ट रणनीति या एक्शन प्लान सामने आ पाया है। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में सरकार की चुनौती जहां बाजार में मांग बनाए रखना है, वहीं लोगों को रोजगार के अवसर भी मुहैया कराना है। इसमें कोई शक नहीं है कि मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विस क्षेत्र में वृद्धि की कोई संभावना नहीं है। इनमें सरकार की कोशिश गिरावट को कम करना ही हो सकती है क्योंकि 40 दिन के लॉकडाउन में इन दोनों क्षेत्रों में 80 से 90 फीसदी गतिविधियां बंद-सी रही है। मांग के बिना ये उद्योग शुरू भी नहीं हो पाएंगे। कोई भी ऑटो कंपनी आने वाले दिनों में कारों और दुपहियों की बिक्री की संभावना के आधार पर ही उत्पादन करेगी। यही स्थिति व्हाइट गुड्स से लेकर गारमेंट और दूसरे मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्रों की है। असल में उद्योग जगत सरकार से लगातार मांग कर रहा है कि उसे पटरी पर लाने के लिए सीधे पैकेज दिया जाए।
सरकारी पहल का हिसाब
सरकार के अभी तक मोटे तौर पर दो कदम ही सामने आए हैं। एक, प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत 1.7 लाख करोड़ रुपये का पैकेज। लेकिन वास्तविकता इससे अलग है क्योंकि इस पैकेज का बड़ा हिस्सा पहले से ही बजट प्रावधानों में शामिल है। मसलन, सरकार ने किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की पहली किस्त में करीब 17 हजार करोड़ रुपये दिये हैं, जो पहले से जारी योजना का हिस्सा हैं। इसी तरह, मनरेगा में पहले का बकाया और नए साल में भुगतान के लिए अग्रिम पैसा राज्यों को दिया है। दूसरे, जनधन खातों में पांच सौ रुपये जमा करने और उज्ज्वला योजना के लिए सिलेंडर देने के साथ कमजोर वर्ग की पेंशन का भुगतान और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत अतिरिक्त पांच किलो अनाज देने का फैसला किया है। लेकिन इसे नाकाफी बताया जा रहा है।
उद्योग को कैसी राहत
उद्योग के लिए एक बड़े पैकेज की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है जिसका आकार छह से सात लाख करोड़ रुपये होना चाहिए। अमेरिका और दूसरे देशों ने बड़े, मझोले और छोटे उद्योगों के लिए बड़े पैकेज घोषित किये हैं जिनमें कर्मचारियों को नौकरी पर बरकरार रखने के लिए वेतन का पैसा, कॉरपोरेट बांड्स की खरीद और सस्ते कर्ज शामिल हैं। लेकिन हमारी सरकार अभी इस पर चुप्पी साधे हुए है। मंत्रियों के समूह अभी इस बात को लेकर परेशान हैं कि उद्योगों को मिलने वाले पैकेज का हिसाब कैसे रखा जाए कि वह जरूरतमंद तक पहुंचा है या नहीं। लेकिन 24 अप्रैल को फ्रैंकलिन टैंपल्टन ने अपनी म्यूचुअल फंड की छह स्कीम बंद की, तो पूरे म्युचुअल फंड क्षेत्र पर संकट खड़ा होने की आशंका पैदा होने के दो दिन बाद रिजर्व बैंक ने 50 हजार करोड़ रुपये की लिक्विडिटी इस क्षेत्र को देकर कुछ अनिश्चितता कम करने की कोशिश की है। लेकिन जिस तरह से भारतीय पूंजी बाजार से विदेशी संस्थागत निवेशकों ने पैसा निकाला है, वह भारतीय अर्थव्यवस्था की कमजोरी की ओर इशारा कर रहा है और फ्रैंकलिन टैंपल्टन प्रकरण इसकी एक आहट है। जो तत्परता 2008 के वित्तीय संकट के समय दिखी थी, वह गायब दिख रही है। तमाम अर्थशास्त्रियों का मत है कि सरकार को राजकोषीय घाटे की चिंता छोड़कर बड़े राहत पैकेज का ऐलान करना चाहिए। रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के तहत तरलता बढ़ाने के कदमों की सीमाएं हैं क्योंकि संकट मांग का है जिसमें घरेलू और वैश्विक दोनों हैं। जरूरत से अधिक संरक्षणवादी रवैया भी देश की अर्थव्यवस्था के हित में नहीं है।
कृषि संकट और संभावनाएं
लेकिन उद्योगों से अधिक इस मौके पर जरूरत कृषि और किसान की सुध लेने की है क्योंकि उसमें मांग और खपत बढ़ाने की क्षमता है। फिर, खाद्यान्न, फलों, सब्जियों, डेयरी और प्रसंस्कृत खाद्य उद्योगों के ट्रेड को देखें तो यह जीडीपी के 20 फीसदी को पार कर जाता है। जाहिर है, ऐसे में केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र है जहां गतिविधियां सामान्य बनी रही हैं। पिछले पांच साल में कृषि और सहयोगी क्षेत्र की वृद्धि दर 3.5 से पांच फीसदी के बीच रही है। तमाम प्रतिकूल स्थितियों और बीमारी के संक्रमण की आशंका के बावजूद रबी फसलों की हार्वेस्टिंग जोरों पर है और गेहूं की कटाई अगले कुछ दिनों में पूरी हो जाएगी। असली चुनौती इसके विपणन की है। गेहूं की सरकारी खरीद के लिए कुछ राज्यों ने अधिक तैयारी की है तो कुछ राज्यों में हालात बेहतर नहीं हैं। उम्मीद है कि करीब 11 करोड़ टन गेहूं की उपज में करीब 350 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद होगी। अगर सरकारी एजेंसियां बेहतर काम करती हैं और संकट के इस दौर में किसानों के हितों के संरक्षण का जिम्मा ठीक से उठाती हैं तो यह आंकड़ा पार भी हो सकता है क्योंकि मौजूदा हालात में गेहूं में प्राइवेट ट्रेड लगभग न के बराबर रह गया है और तकरीबन पूरा मार्केट सरप्लस सरकारी खरीद में ही आएगा। ऐसे में सरकार की कोशिश बिचौलियों पर अंकुश लगाकर किसानों को उपज का पूरा दाम दिलाना होनी चाहिए।
हरियाणा, पंजाब और मध्य प्रदेश में स्थिति बेहतर है लेकिन सबसे अधिक गेहूं पैदा करने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में हालात अच्छे नहीं हैं। वहां सरकारी एजेंसियों यूपी एग्रो और यूपी उपभोक्ता सहकारी संघ के पास मैनपावर और ढांचागत सुविधाएं न होने के चलते प्राइवेट आढ़तियों को खरीद प्रक्रिया में शामिल किया जाना किसानों के लिए हितकर नहीं है। राज्य सरकार यह आश्वस्त नहीं कर पाती है कि किसानों का गेहूं 1925 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर ही खरीदा जाए। पिछले अनुभव हैं कि आढ़तियों ने किसानों को पूरा एमएसपी नहीं दिया लेकिन सरकार से पूरी कीमत हासिल की। इस तरह की गतिविधियों पर अंकुश लगाने का जिम्मा राज्य सरकार का है। अगर केंद्र और राज्य सरकारें एमएसपी पर गेहूं की खरीद को सुनिश्चित कर पाती हैं तो किसानों के हाथ में करीब 70 हजार करोड़ रुपये की आय होगी। यह पैसा आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर लाने में मदद करेगा।
इसके साथ ही दालों और तिलहन की सरकारी खरीद अगर एमएसपी पर हो जाती है तो किसानों के लिए बेहतर होगा। इस साल करीब 230 लाख टन दालों की पैदावार का अनुमान है जो देश की जरूरत के लगभग बराबर है। इससे आयात पर निर्भरता काफी कम हो गई है। तीसरी चुनौती तिलहन फसलों की है। सरकार को संकट के इन दिनों में किसानों को आश्वस्त करना चाहिए कि तिलहन की पूरी खरीद एमएसपी पर होगी। साथ ही सरकार अगर आगामी खरीफ सीजन के लिए तिलहन फसलों के एमएसपी में ज्यादा बढ़ोतरी करने के साथ देश में खाद्य तेलों के आयात पर अंकुश लगाने के लिए सीमा शुल्क दरों में इजाफा करती है तो देश में खाद्य तेलों के करीब 70 हजार करोड़ रुपये के सालाना आयात को रोका जा सकेगा। यह पैसा देश की कृषि अर्थव्यवस्था में इजाफा कर सकेगा। साथ ही डेयरी और पॉल्ट्री जैसे उद्योगों को बेहतर प्रोटीनयुक्त फीड की उपलब्धता बढ़ेगी। पिछले कुछ बरसों में दालों के मामले में यह रणनीति कामयाब रही है।
कृषि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा गन्ना और चीनी का उत्पादन है। इस साल देश में चीनी के उत्पादन में करीब 60 लाख टन की गिरावट के बावजूद उत्पादन देश की कुल खपत करीब 250 लाख टन के आसपास रहेगा। इसके अलावा करीब 100 लाख टन का अतिरिक्त स्टॉक मौजूद है जो वैश्विक स्तर पर मांग की अधिकता और कम उत्पादन के चलते निर्यात आय का बड़ा साधन बन गया है। इसके साथ ही चीनी उद्योग सालाना 190 करोड़ लीटर एथनॉल का उत्पादन कर रहा है जो पेट्रोल में ब्लैंडिंग की दस फीसदी की जरूरत से तो कम है लेकिन पांच फीसदी के काफी करीब है। यह चीनी उद्योग के लिए आय का बड़ा स्रोत बनता जा रहा है। कोविड-19 महामारी के इस दौर में जब सेनिटाइजर की जरूरत बढ़ी तो सरकार की अनुमति के बाद चीनी मिलों ने तुरंत करीब नौ लाख लीटर प्रति माह की उत्पादन क्षमता हासिल कर ली है। हालांकि बिहार ऐसा राज्य है जिसने चीनी मिलों को सेनिटाइजर बनाने की अनुमति नहीं दी है।
जाहिर है, कोविड-19 और उसके बाद के दौर में दुनिया और जीवन-शैली बदल सकती है इसलिए सेनिटाइजर चीनी मिलों के लिए एक नये रेवन्यू स्रोत के रूप में बना रहेगा। इसके पहले शराब और बिजली बनाने का काम भी चीनी मिलें कर रही हैं लेकिन इसका फायदा किसानों के साथ साझा करने में उन्हें अभी भी परहेज है। यही वजह है कि गन्ना किसानों का चीनी मिलों पर बकाया एक बड़ी समस्या बनता जा रहा है। अकेले उत्तर प्रदेश में ही चीनी मिलों पर गन्ना किसानों का करीब 15 हजार करोड़ रुपये तक होने का अनुमान है। उद्योग के सूत्रों के मुताबिक, 22 अप्रैल को बकाया भुगतान 12 हजार करोड़ को पार कर गया था लेकिन यह राशि गन्ना आपूर्ति के 14 दिन के बाद देयता के आधार पर है। इसलिए इसमें आठ अप्रैल के बाद की आपूर्ति और भुगतान के अंतर के आधार पर सही आकलन किया जा सकेगा।
कोविड महामारी के चलते चीनी उद्योग के लिए भी एक बड़ा संकट खड़ा होता दिख रहा है। वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमत में रिकॉर्ड गिरावट के चलते वैश्विक बाजार में चीनी की कीमतें जून, 2008 के स्तर पर पहुंच गई हैं और पेट्रोलियम उत्पादों की बिक्री गिरने के चलते पेट्रोलियम कंपनियों की एथनॉल खरीदने में रुचि कम हो रही है। दूसरी ओर लॉकडाउन के चलते शराब की बिक्री पर प्रतिबंध है। ऐसे में किसानों को गन्ना मूल्य भुगतान के लिए सरकार को पैकेज लाने की जरूरत पड़ सकती है क्योंकि चीनी के निर्यात के रास्ते भी अब तंग हो रहे हैं। इसलिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
उधर, दूध, फल, सब्जी, मीट और पॉल्ट्री जैसे कृषि और सहयोगी क्षेत्रों के उत्पादों को लॉकडाउन की भारी मार से गुजरना पड़ रहा है। मांग घटने और ट्रांसपोर्ट तथा भंडारण की समस्या के चलते इन उत्पादों के किसानों को पचास हजार करोड़ रुपये से अधिक के नुकसान की आशंका है लेकिन यह भी सच है कि लॉकडाउन समाप्त होने पर ये क्षेत्र तेजी से पटरी पर आ जाएंगे।
कृषि उपज निर्यात की संभावनाएं
इस रबी मार्केटिंग सीजन के अंत में केंद्रीय पूल में खाद्यान्न स्टॉक 900 लाख टन को पार कर सकता है। एक अप्रैल को केंद्रीय पूल में खाद्यान्न का भंडार 738.5 लाख टन था जो बफर स्टॉक के तय मानकों से साढ़े तीन गुना है। इसलिए गेहूं की खरीद के बाद यह अभी तक के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच जाएगा। यह देश के लिए एक बेहतर मौका लेकर आ रहा है। एक तरफ जहां यह भंडार सरकार को महामारी के संकट के दौर में खाद्यान्न उपबलब्धता की किसी भी तरह की चिंता से मुक्त करता है वहीं भारत को दुनिया की फूड फैक्टरी के रूप में रणनीति बनाने के लिए मौका दे रहा है। असल में खाद्यान्न, चीनी, दूध के उत्पाद, फल, सब्जियों और मीट प्रॉडक्ट की एशियाई और अफ्रीकी देशों में जबरदस्त मांग है और हमारे पास इनके निर्यात के लिए उत्पाद उपलब्ध हैं। हमें इस मौके का फायदा उठाना चाहिए। लेकिन इसके लिए सरकार को एक समग्र निर्यात नीति बनाने के साथ ही कोटा, परमिट और राजनीति को किनारे रखकर काम करना होगा। अगले दो साल में कृषि उत्पादों के निर्यात को 2018-19 के 38.7 अरब डॉलर से बढ़ाकर कम के कम 80 अरब डॉलर तक ले जाने का लक्ष्य तय करके काम करना चाहिए।
जीडीपी और कृषि
महामारी के बावजूद दो बातें होने वाली हैं। एक तो कृषि और सहयोगी क्षेत्र अर्थव्यवस्था का अकेला ऐसा क्षेत्र होगा जो वृद्धि दर बरकरार रखेगा, बशर्ते सरकार किसानों को उनके उत्पादों की सही कीमत सुनिश्चित कर सके। दूसरे, अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के सिकुड़ने से जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी मौजूदा 14 फीसदी से बढ़ जाएगी और ऐसा कई दशकों में पहली बार होगा। इसलिए जहां संभावनाएं बेहतर हैं, पहले सरकार को उस क्षेत्र पर फोकस करना चाहिए।
क्या करे सरकार
सरकार मनरेगा में सालाना करीब 80 हजार करोड़ रुपये खर्च करती है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक इस साल यह खर्च बढ़ सकता है। उसके अलावा प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में जो खर्च होगा, वह भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में तरलता बढ़ाएगा। बेहतर होगा कि सरकार जल्दी ही कृषि क्षेत्र के लिए एक राहत पैकेज घोषित कर दे जिसमें कम से कम एक साल तक ब्याज मुक्त ऋण और बाजार हस्तक्षेप योजनाओं के तहत किसानों की आय को बेहतर किया जा सके। साथ ही प्रधानमंत्री किसान कल्याण निधि को दोगुना करने की राय तमाम विशेषज्ञ दे रहे हैं। असल में यह रणनीति सरकार और देश की अर्थव्यवस्था के लिए 'लो हैंगिंग फ्रूट' की तरह साबित होगी, जो जल्दी परिणाम दे सकती है। सामान्य मानसून का अनुमान आ चुका है और अगले त्यौहारी सीजन के पहले बेहतर खरीफ की फसल की संभावना भी बन गई है। ऐसे में रबी और खरीफ के ये दो बंपर सीजन अर्थव्यवस्था के बूस्टर का काम कर सकते हैं। इसके चलते मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर के उत्पादों के लिए मांग बेहतर हो सकती है, जो वहां क्षमता के बेहतर उपयोग और रोजगार सृजन में मददगार होगी।
कोविड-19 महामारी के इस दौर में यह बात साफ हो गई है कि उदारीकृत और ग्लोबलाइज्ड अर्थव्यवस्था अभी भी देश की करीब 90 फीसदी असंगठित श्रम शक्ति को यह भरोसा नहीं दिला पाई है कि संकट में सेवा और मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र और शहरी इलाके इनको स्थायित्व देते हैं। लॉकडाउन के बाद करोड़ों गरीब श्रमिक अपने गांवों को कूच करते सड़कों पर दिखे। उसकी तसवीरें और वीडियो लोगों के जेहन में दशकों तक रहेंगे, जो देश की कमजोरी के सबूत की तरह हैं। इन लोगों का बोझ भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही झेलना है इसलिए वहां ज्यादा संसाधन खर्च करने की जरूरत है।
बेहतर होगा कि सरकार जल्दी इस हकीकत को समझे कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में भारत यानी कृषि और ग्रामीण क्षेत्र सबसे अहम भूमिका निभाने की स्थिति में है और उसी आधार पर लॉकडाउन खोलने और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की रणनीति तैयार करनी चाहिए। लेकिन सरकार क्या करती है, यह देखना होगा।
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उद्योगों से अधिक इस मौके पर जरूरत कृषि और किसान की सुध लेने की है क्योंकि उसमें मांग और खपत बढ़ाने की क्षमता है