अब वे सुर्खियों से छुपा दिए गए। पुलिस की नाकेबंदी कड़ी कर दी गई। मुख्य सड़कें और राजमार्ग खाली हैं। कोरोना वायरस फैलने से रोकने के लिए देशव्यापी तालाबंदी (लॉकडाउन) का हफ्ता पूरा होने का यह नजारा भ्रामक, या कहिए उन्हें सुर्खियों से गुम करके सत्ता-तंत्र को अपना ‘इकबाल’ साबित करने की एक अदद इबारत थी। यह इबारत देश की सत्ता की राजधानी दिल्ली में सबसे बुलंद दिख रही थी। लेकिन इस इबारत के झीने परदे के पीछे वे मौजूद थे। दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे में, यमुना पुस्ते पर, बगल के उत्तर प्रदेश के नोएडा के एक्सप्रेस-वे पर, गाजियाबाद के लाल कुंआ पर। छन-छन कर आ रही जानकारियों के मुताबिक गुजरात, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पंजाब, हरियाणा की सीमाओं पर, और उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के राजमार्गों या दूसरी सड़कों पर गठरी और बच्चों को उठाए मीलों लंबी पैदल यात्राओं पर। छालों से भरे उनके पैर थक चुके थे, लेकिन उन्हें थकना नहीं था, चलते जाना था, अपने गांव-घर तक। आज कोई महाकवि नरोत्तम दास होता तो जरूर याद दिलाता, ‘‘सीस पगा न झगा तन पे...अरु पांय उपानह की नहिं सामा... प्रभु जाने को आहिं, बसे केहि ग्रामा।’’ जो खुशकिस्मत थे वे बसों, ट्रकों वगैरह में गठरियों की तरह ठुंसकर यहां-वहां निकल लेने का जैसे विशेषाधिकार पा गए थे।
यह विशेषाधिकार एक हद तक कुछ राज्य सरकारों ने, शायद मजबूरन, तब मुहैया कराया था, जब वे भूखे-प्यासे, अपना थोड़ा-बहुत सामान और बाल-बच्चों को बटोरे पैदल ही सैकड़ों मील की यात्रा पर निकल चुके थे। लॉकडाउन के दूसरे-तीसरे-चौथे दिन राजधानी दिल्ली की चौड़ी-चौड़ी सड़कों और राजमार्गों पर लंबी-लंबी कतारें और हुजूम जैसे न जाने कहां चल पड़ा था। दूसरे राज्यों में भी ऐसे ही नजारे थे। आजादी के बाद कम से कम तीन पीढ़ियों ने तो ऐसा नजारा खुशवंत सिंह के ट्रेन टु पाकिस्तान, कुर्रतुलऐन हैदर के आग का दरिया जैसे उपन्यासों और बंटवारे के आख्यानों में ही पढ़ा-सुना था। बंटवारा जैसे दोबारा जमीन पर उतर आया था।
लेकिन दोनों बंटवारे में फर्क था। तब लहू-लुहान, अपना सब कुछ छोड़कर, बहुत कुछ गंवाकर, जान बचाने को निकले लोगों को न भारत में रोका जा रहा था, न पाकिस्तान में। जान बचाने की आफत अब भी आन पड़ी थी क्योंकि महामारी की दहशत के अलावा रोज कमाने-खाने को अभिशप्त लाखों की तादाद में इन प्रवासी मजदूरों के लिए काम-धंधे ठप होने से रोटी के लाले पड़ गए थे, लेकिन उन्हें रोकने, भगाने, जहां हैं-जैसे हैं वहीं पड़े रहने की हिदायतें दी जा रही थीं। कुछ बेहद नाकाफी से ऐलान भी जारी किए जा रहे थे। कई राज्यों में पुलिसिया डंडे अपनी ‘बहादुरी’ दिखा रहे थे, बिहार के सिवान में उन्हें एक स्कूल में कैद कर लिया गया तो उत्तर प्रदेश के बरेली में उन्हें सैनिटाइजर की बारिश से ठीक वैसे ही ‘शुद्ध’ किया जा रहा था, जैसे सामान वगैरह को सुरक्षित बनाने का उपक्रम किया जाता है। हरियाणा में उन्हें महामारी रोग और प्रबंधन कानून, 1897 और हरियाणा महामारी रोग कोविड-19 नियम के तहत गिरफ्तारी के लिए राज्य के इनडोर स्टेडियमों को जेल में तब्दील कर दिया है। गोया वे ही कोरोना वायरस के असली वाहक हों (विस्तार से अगले पन्नों पर पढ़ें)।
दोनों बंटवारे में एक और फर्क है। आजादी के वक्त देश बेगाना हो गया था। इस बार देश ने ही उन्हें बेगाना करार दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी 24 मार्च को रात आठ बजे महज चार घंटे बाद तीन हफ्ते के देशव्यापी लॉकडाउन का ऐलान करते वक्त इन प्रवासी मजदूरों का ख्याल नहीं आया, जबकि इनकी अनुमानित संख्या 10 करोड़ के आसपास है। इसलिए उनके ऐलान के बाद ठीक उसी तरह नए-नए निर्देश जारी किए जाने लगे, जैसे नोटबंदी और जीएसटी के दौरान हुआ। यह भी शायद ध्यान नहीं आया कि 'लॉकडाउन' और 'सोशल डिस्टेंसिंग' जैसे शब्द देश में कितनी बड़ी आबादी के पल्ले पड़ेंगे। सवाल तो यह भी है कि 22 मार्च को ‘जनता कर्फ्यू’ के ऐलान के बाद 72 घंटे का वक्त दिया गया (जिसके दौरान शाम पांच बजे बॉलकनी से ताली-थाली बजाकर आपातकर्मियों का उत्साह बढ़ाने का आह्वान भी किया, गोया देश की तकरीबन 135 करोड़ आबादी के पास बॉलकनी वगैरह उपलब्ध है) तो तीन हफ्ते की तालाबंदी के लिए महज चार घंटे की ही मोहलत क्यों?
यकीनन, हमारे सिर के एक बाल के तकरीबन 800 गुना छोटे जानलेवा कोरोना वायरस (ऐसे समझिए कि एक बाल को फुटबॉल के मैदान के बराबर लंबा कर दिया जाए तो उसके कुछ 4 सेंटीमीटर के बराबर) से लड़ने के लिए सख्त उपाय जरूरी थे। इसका सामुदायिक फैलाव रोकने के लिए सामाजिक मेलजोल से दूर रहने की भी दरकार है क्योंकि प्लेग, हैजा, खसरा और सबसे बढ़कर प्रथम विश्वयुद्घ के दौरान 1918-20 में स्पेनिश फ्लू से हुई करोड़ों लोगों की जान की तबाही देश पहले भी देख चुका है। तो, अचानक बिना मोहलत िदए, बिना प्रबंध किए लॉकडाउन की दलील क्या थी? सरकार ने प्रवासी मजदूरों के पलायन पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वे इस फर्जी खबर की चपेट में आए गए कि तीन महीने बंदी रहेगी। कोर्ट ने यह मासूम-सी दलील मान भी ली और कोई सवाल नहीं किया। गौर यह भी किया जा सकता है कि चीन ने अपने वुहान शहर में ही लॉकडाउन किया जबकि दक्षिण कोरिया, जापान ने कोई लॉकडाउन नहीं किया। इटली, स्पेन में जरूर पूरी तरह यह तरीका अपनाया जा रहा है, जहां मौतें सबसे ज्यादा हैं लेकिन वे छोटे देश हैं।
इसकी कई वजहें और कहानियां चर्चा में हैं। एक तो हमारे स्वास्थ्य क्षेत्र की खस्ताहाली का अंदाजा हो सकता है क्योंकि फैलने के बाद काबू पाने का तंत्र हमारे पास नहीं है। वैसे भी, लंबे समय से स्वास्थ्य क्षेत्र पर लगातार बजट आवंटन में कटौती होती रही है और इस क्षेत्र को निजीकरण के हवाले करने की नीतियां बनाई जाती रही हैं। इस बार प्रधानमंत्री के ऐलान में भी स्वास्थ्य इन्फ्रास्ट्रक्चर के मद में सिर्फ 15,000 करोड़ रुपये का प्रबंध किया गया। दूसरे, दुनिया के यूरोप, अमेरिका जैसे अमीर देशों ने जो किया, उस पर ही अमल करना बेहतर विकल्प समझा गया हो। एक तीसरी कहानी राजनैतिक वर्चस्व की है। असल में जनता कर्फ्यू के ऐलान के पहले ही केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, बंगाल, दिल्ली की सरकारें हरकत में आ गईं और कई तरह के उपायों का ऐलान करने लगीं। केरल की सरकार ने तो स्वास्थ्य क्षेत्र की बेहतरी के लिए 20,000 करोड़ रुपये का आवंटन कर दिया। इन राज्यों के मुख्यमंत्री लगभग हर रोज कुछ न कुछ ऐलान करने लगे। ममता बनर्जी तो सड़कों पर भी उतरने लगीं। ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भी रोज संदेश जारी करने लगे। इससे केंद्र सरकार पर दबाव बढ़ा। वरना 30 जनवरी को देश में कोविड-19 से पहली मौत और 31 जनवरी को विश्व स्वास्थ्य संगठन के इसे वैश्विक महामारी के ऐलान के बाद केंद्र सरकार को हरकत में आने में लगभग पौने दो महीने का वक्त क्यों लग गया? महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्घव ठाकरे ने तो कहा भी कि वे प्रधानमंत्री के ऐलान से हैरान रह गए क्योंकि कोई सलाह-मशविरा नहीं किया गया। सवाल यह भी है कि पहले से ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के रोग छुपाने का सरकार को बहाना तो नहीं मिल गया। अब अर्थव्यवस्था तो पूरी दुनिया की गड़बड़ा रही है लेकिन चीन इससे उबरने लगा है और उसने कामकाज शुरू कर दिया है। अमेरिका, यूरोप की कंपनियों के तकरीबन 30 फीसदी शेयर भी खरीद चुका है। (अर्थव्यवस्था पर विस्तृत रिपोर्ट पढ़ें)।
वैसे, दुनिया भी इस महामारी से बंटती दिख रही है। संयुक्त राष्ट्र के सबसे विश्वसनीय माने जाने वाले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) पर भी संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप डब्लूएचओ के प्रमुख टेड्रोस अदानोम पर चीन की तरफदारी करने का आरोप मढ़ चुके हैं। अदानोम पर आरोप है कि उन्हें दिसंबर से ही मालूम था कि कोविड-19 का खतरा बढ़ रहा है। वे चीन के वुहान भी हो आए और वहां से लौटने के बाद कहा कि वे चीन की कोशिश से संतुष्ट हैं। हाल में जी-20 देशों की वीडियो कॉन्फ्रेसिंग के जरिए शिखर बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी डब्लूएचओ को अधिक पारदर्शी बनाने की बात उठाई। संयुक्त राष्ट्र में चीन का दबदबा बढ़ता जा रहा है। इस तरह संभव है कि कोविड-19 के बाद पूरी विश्व व्यवस्था बदल जाए और नए शक्तिकेंद्र के रूप में चीन उभर आए।
लेकिन इससे दूसरी खतरनाक आशंकाएं भी उभर रही हैं। मसलन, हमारे दौर के प्रखर दार्शनिक युवाल नोवा हरिरी ने हाल में फाइनेंशियल टाइम्स में लिखे लेख ‘द वर्ल्ड ऑफ्टर कोरोनावायरस’ में दो खतरों की ओर आगाह किया है, सर्विलांस राज और राष्ट्रवादी अलगाव। वे आगाह करते हैं कि कोरोनावायरस से लड़ने के बहाने सरकारें लोगों की निजता पर निगरानी के लिए टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर सकती हैं और उसके जरिए अपने राजनैतिक मकसद को साध सकती हैं। इससे लोकतंत्र का स्वरूप बदल सकता है। हमारे देश में इसके खतरे बड़े पैमाने पर मौजूद हैं। मीडिया समेत सारी संस्थाएं लोगों के बदले सत्ता संस्थान की ओर रुख कर चुकी हैं। दूसरा खतरा विश्व में अलगाव बढ़ने का है जिससे युद्घ और तमाम तरह की स्थितियां पैदा हो सकती हैं। इन दोनों खतरों के प्रति आगाह करते हुए हरिरी कहते हैं कि विश्व को एकजुट होकर इसका मुकाबला करना चाहिए। यही तरीका महामारियों को हरा सकता है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकता है। काश! ऐसा हो।
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थमे दौर में जिंदगी ः लॉकडाउन ने पूरे देश में जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति पर भी डाला असर