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तबाही रोकना चुनौती

प्रदेश में जांच की सुविधा अपर्याप्त, बचाव के उपाय भी नाकाफी
फिक्रः रांची में जरूरतमंदों को खाना वितरित करते मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन

झारखंड के सबसे बड़े अस्पताल, रांची के रिम्स में बनाए गए कोविड-19 अस्पताल के बाहर दो लोग बातें कर रहे थे। उनकी बातचीत से यह चिंता साफ झलक रही थी कि झारखंड बड़ी तबाही की ओर बढ़ रहा है। अभी तो लॉकडाउन है, लेकिन इसके खत्म होते ही जैसे ही बाहर से लोग आएंगे, संक्रमण और फैलेगा। उनका सवाल था कि संसाधन और सुविधाओं के अभाव में झारखंड सरकार स्थिति को कैसे संभालेगी। झारखंड में कोरोना के संक्रमण का भयावह रूप अब तक सामने नहीं आया है, लेकिन इसकी एक वजह जांच की रफ्तार का कम होना है। कोरोना के खिलाफ जंग लड़ रहे एक चिकित्सक कहते हैं, “हम संदिग्धों की जांच ही नहीं कर पा रहे हैं, तो मरीजों का पता कैसे चलेगा। टेस्टिंग किट कम हैं, इसलिए जांच की रफ्तार सुस्त है।” झारखंड में पिछले एक महीने में महज 5,380 सैंपल की जांच की गई है। राज्य के पांच कोरोना जांच केंद्रों में हर दिन दो सौ से भी कम सैंपल की जांच हो रही है, यानी एक केंद्र में 40 से भी कम। महाराष्ट्र के एक जांच केंद्र में हर दिन औसतन 700 सैंपल की जांच होती है, जबकि दिल्ली में यह संख्या 810 है।

झारखंड में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या अधिक नहीं है। 31 मार्च को तबलीगी जमात से जुड़ी मलेशियाई महिला के रूप में राज्य में पहला मामला आया था, तब से 25 दिन में यह 70 तक पहुंचा है। कोरोना प्रबंधन की दूसरी सबसे बड़ी कमी संदिग्धों के चयन में है। विशेषज्ञ कहते हैं कि झारखंड में सैंपल लेने के बाद उस संदिग्ध को छोड़ दिया जाता है। तीन दिन बाद अगर रिपोर्ट पॉजिटिव आती है, तब आइसोलेशन में रखा जाता है। इन तीन दिनों में वह कम से कम डेढ़ सौ लोगों को संक्रमित कर चुका होता है, लेकिन उनकी जांच नहीं होती। विशेषज्ञ बताते हैं कि जांच से ही कोरोना संक्रमण का पता लग सकता है। बिना लक्षण वाले लोग भी पॉजिटिव पाए जा रहे हैं। एक और कमी यह है कि किसी कोरोना संक्रमित के परिजनों की जांच तुरंत नहीं की जा रही है, जिससे संक्रमण के फैलने का खतरा बना रहता है।

झारखंड के पास बचाव के भी पर्याप्त उपाय नहीं हैं। महज 4.85 लाख ट्रिपल लेयर मास्क और 45 हजार पीपीई किट से कितने स्वास्थ्यकर्मियों का बचाव हो सकता है? मास्क और सेनेटाइजर जैसी मूलभूत चीजें भी आसानी से नहीं मिल रही हैं। संक्रमण की जांच के लिए सिर्फ 504 इंफ्रारेड थर्मल गन और 2517 वीटीएम किट हैं। यदि पांच जांच केंद्र पूरी क्षमता से काम करें, तो इतने वीटीएम किट पांच दिन में ही खत्म हो जाएंगे। इलाज की व्यवस्था में भी झारखंड अच्छी स्थिति में नहीं है। कोरोना संक्रमित मरीजों के लिए 206 अस्पतालों में साढ़े सात हजार सामान्य बेड और आठ हजार के करीब आइसीयू बेड का इंतजाम किया गया है। करीब 2,900 आइसोलेशन बेड भी हैं। राज्य में आज की तारीख में मात्र 206 वेंटिलेटर हैं, और 340 के ऑर्डर दिए गए हैं।

लॉकडाउन के कारण राज्य के करीब 10 लाख प्रवासी मजदूर देश के दूसरे हिस्सों में फंसे हैं। करीब आठ हजार छात्र भी कोटा और दूसरे शहरों में फंसे हैं। इतनी बड़ी संख्या में बाहर से आनेवालों के साथ संक्रमण भी आ सकता है। इससे राज्य की स्वास्थ्य मशीनरी पर कितना दबाव पड़ेगा, यह सोच कर ही डर लगता है। सीमित क्षमता के कारण उनकी जांच में भी समस्या आएगी। बाहर से आनेवालों को राज्य में व्यवस्थित करने की भी चुनौती होगी। इसके लिए सरकार को खेती पर ध्यान देना होगा, ताकि बाहर से आने वाले मजदूरों को काम दिया जा सके। किसानों को प्रोत्साहित कर उन्हें हर किस्म की खेती के लिए तैयार करना होगा, उन्हें हर तरह की मदद करनी होगी। छात्रों की पढ़ाई में व्यवधान न हो, इसके लिए कोटा जैसी व्यवस्था विकसित करनी होगी। छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों और दूसरे क्षेत्रों पर ध्यान देने की जरूरत होगी, क्योंकि लॉकडाउन के दौरान ज्यादातर क्षेत्रों की गतिविधियां पूरी तरह ठप हो गई हैं। इस क्षेत्र को समुचित प्रोत्साहन की भी जरूरत होगी, ताकि अर्थव्यवस्था को चलाए रखने का भार केवल ग्रामीण क्षेत्र पर न पड़े।

आने वाले दिनों में यह देखना दिलचस्प होगा कि झारखंड इन परिस्थितियों का सामना किस तरह और कितना कर पाता है। हालांकि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पहले ही संसाधनों की कमी की बात कह चुके हैं। वह कहते हैं, “हमारे पास संसाधन बहुत सीमित हैं, हम 90 प्रतिशत केंद्र पर निर्भर हैं। हमारे लिए तो यह डबल डिजास्टर है।” भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश कहते हैं, “यह सरकार कोरोना से जंग में सही तरीके से काम नहीं कर रही, केवल बहानेबाजी कर रही है।” अब देखना है कोरोना से झारखंड कैसे निपटता है। यही हेमंत सोरेन की असली परीक्षा होगी।

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प्रदेश के मजदूर और छात्र अगर लौटे तो सीमित संसाधनों से उनकी जांच कर पाना नामुमकिन होगा

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