जो देश अहिंसा का पुजारी कहा जाता हो, उसने इस मद में पिछले कुछ महीनों में बहुत कम अंक हासिल किए हैं। यह देश पशुओं, खासकर गायों से प्रेम करने का भी दावा करता है लेकिन इस मामले में भी उसका प्रदर्शन काफी खराब रहा है।
भारत कृषि प्रधान देश होने पर भी गर्व करता है और तमाम नेता अपने भाषणों की शुरुआत इसी वाक्य से करते हैं। लेकिन स्टील, क्रोम, बुलेट ट्रेन और हाई टेक्नोलॉजी के जुनून ने देश को घुटनों के बल लाकर छोड़ा है और उससे कई तरह के संकट पैदा हो रहे हैं।
पिछले साल पशुधन क्षेत्र को भारी नुकसान हुआ है। जलवायु परिवर्तन, जिसके कारण मानसून लंबा खिंचने लगा है, से न सिर्फ प्याज की कीमतें आसमान छूने लगीं, बल्कि दूसरी समस्याएं भी होने लगी हैं। महाराष्ट्र में बाढ़ के कारण राज्य के सबसे बड़े दूध उत्पादक जिलों में अनेक डेयरी फार्मों और पशुओं पर असर पड़ा। कई सौ पशुओं को बचाया नहीं जा सका। कई अन्य राज्यों में, घुमंतू चरवाहों का पशुधन ब्लू टंग नामक बीमारी के कारण नष्ट हो गया। इस घटना की पर्याप्त रिपोर्टिंग नहीं हुई, क्योंकि इस बीमारी से सरकार और अपर्याप्त पशु चिकित्सा सुविधा की छवि को धक्का लगता। इन किसानों ने सरकार से अपने पशुधन के नुकसान की शिकायत की लेकिन उन्हें अभी भी मदद और मुआवजे का इंतजार है। अधिकांश घुमंतू चरवाहे पढ़े-लिखे नहीं हैं और वे चारे की तलाश में अपने गृह गांव से चले जाते हैं, इसलिए उन्हें निकट भविष्य में किसी तरह का मुआवजा मिल पाने की संभावना नहीं है। यह एक और बड़ी समस्या बनकर उभरी है।
इस साल जनवरी से संगठित पोल्ट्री इंडस्ट्री की बिक्री घटने लगी है और सैकड़ों करोड़ रुपये का घाटा होने लगा है। यह क्षेत्र बड़ा और संगठित है। वह इस संकट को प्रभावी तरीके से सामने ला सकता है क्योंकि वह मीडिया के ध्यान में आ जाता है। चिकन की खपत में भारी गिरावट के कारण इस क्षेत्र को नुकसान हो रहा है। पूरे देश में चिकन की बिक्री बुरी तरह गिर गई क्योंकि वॉट्सएप और टिक टॉक जैसे सोशल मीडिया चैटिंग प्लेटफार्म पर यह अफवाह फैलाई गई कि औद्योगिक रूप से उत्पादित चिकन बीमारियां खासकर कोविड-19 वायरस फैलाते हैं। औद्योगिक चिकन को लेकर भय निराधार नहीं है। इससे पहले एन्फ्लूएंजा महामारी दक्षिण-पूर्व एशिया के औद्योगिक पोल्ट्री फॉर्म से ही शुरू हुई थी। हालांकि मौजूदा कोविड-19 महामारी भारत में उत्पादित औद्योगिक चिकन खाने से जुड़ी नहीं है। मैं औद्योगिक रूप से उत्पादित चिकन की प्रशंसक नहीं हूं लेकिन अफवाह और गलत सूचनाएं सामाजिक और आर्थिक रूप से नुकसानदायक हो सकती हैं।
आरोप-प्रत्यारोप नया नहीं है। हमारे संगठन ने 2016 में एक रिसर्च की जिसमें हमें पता चला कि गोवा से लेकर मेघालय तक देश भर में छोटे सुअर पालकों ने अपने घर के पिछवाड़े में सुअर पालना बंद कर दिया, क्योंकि इस तरह सुअर पालना गंदगी युक्त माना गया और कहा गया कि इससे बीमारियां होती हैं। धीर-धीरे देश में सुअर पालन संगठित पिगरीज में होने लगा। सुअर के मीट का इस्तेमाल समाज के सबसे गरीब समुदाय किया करते थे। अब संगठित पिग फार्मों का मीट सिर्फ अमीर खाते हैं। इसी तरह घरों के पिछवाड़े में मुर्गीपालन खूब होता था। लेकिन इसमें गंदगी के कारण बीमारी फैलाने वाला माना जाता था। 2005 में बर्ड फ्लू फैला, उस समय यही स्थिति थी। लेकिन बाद में इंडोनेशिया जैसे देशों ने बाकायदा घरों के पिछवाड़े में मुर्गी पालन पर रोक ही लगा दी।
भारत में आज स्थितियां बदल गई हैं। स्थानीय प्रजाति, स्थानीय उत्पादन और स्थानीय प्रणाली मुख्य मंत्र बन गया है। कोविड-19 से बचने के लिए
गो-मूत्र पार्टियों से लेकर ए2 मिल्क घी तक, हम देसी गायों को बचाने की बात कर रहे हैं।
हालांकि विभिन्न क्षेत्रों से सामने आ रही घटनाओं से पता चलता है कि हम पर्याप्त प्रयास नहीं कर रहे हैं। ऐसे मुश्किल भरे दौर में विदर्भ क्षेत्र में गड़रिया और ग्वाला समुदायों को दूध बेचने और पशुचारा खरीदने के लिए गांवों में घुसने नहीं दिया जा रहा है। स्थानीय उत्पादक कंपनियां जैसे हल्दीराम और दिनशॉ ने उनका दूध खरीदना बंद कर दिया है। स्थानीय ढाबा और भोजनालयों ने भी दूध खरीदना बंद कर दिया है। यहां तक कि एनडीडीबी ने भी खरीद कम कर दी है और पशुपालक समुदाय कहीं भी अपना दूध नहीं बेच पा रहे हैं। जल्दी ही उनके पास दूध फेंकने के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचेगा। अगर उन्हें कहीं से पैसा नहीं मिल पाएगा तो वे पशुचारा नहीं खरीद पाएंगे। लॉकडाउन के कारण परिवहन सुविधाएं न होने से वे किसी दूर के स्थान पर जाकर दूध नहीं बेच सकते हैं और पशुचारा नहीं खरीद सकते हैं। ऐसे समय में जब हजारों लोग बेरोजगार हैं, दुग्ध उत्पादकों को दूध फेंकना पड़ता है तो यह शर्मनाक स्थिति होगी। इन पशुपालकों का कहना है कि भले ही देश के लिए यह लॉकडाउन 21 दिन के लिए हो, लेकिन उन्हें इसका नुकसान पूरे साल झेलना होगा।
पूरे देश में पशुधन बाजार बंद हैं। ये वे बाजार हैं, जहां अधिकांश पशुधन उत्पादक अपने उत्पादों और पशुओं की खरीद-फरोख्त करते हैं। घुमंतू चरवाहे अपने पशुओं को बेच नहीं सकते हैं, क्योंकि ट्रांसपोर्ट चेन, कसाइयों की दुकानें और खाने की दुकानें सभी बंद हैं। अगर वे अपने पशुओं को नहीं बेच पाएंगे तो उन्हें अपने परिवार को पालने के लिए आमदनी कैसे होगी। अधिकांश पशुपालक समुदाय खासकर घुमंतू चरवाहे जनगणना में शामिल नहीं हो पाते हैं। उनके पास बैंक खाते नहीं होते हैं, जिनमें सरकार मदद के तौर पर पैसा जमा कर सके। हमने न सिर्फ भेड़ों को भुला दिया बल्कि पालने वाले घुमंतू चरवाहों को भी भुला दिया।
कोविड-19 महामारी ने विभाजन और बढ़ा दिया है। पहले से ही विभाजित समाज में जाति और वर्ग का विभेद करने वाले स्वच्छ बनाम अस्वच्छ, सफाई बनाम गंदगी, प्रदूषित बनाम अप्रदूषित, शाकाहारी बनाम मांसाहारी के कड़वे और खतरनाक सवाल फिर से उठने लगे हैं। जहां अमीर बड़े और चमकदार स्टोरों में पैकेज्ड और प्रोसेस्ड फूड खरीद रहे हैं और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं, वहीं गरीब और असंगठित और ज्यादा वंचित हो गए हैं। रोजगार नहीं, पैसा नहीं, भोजन नहीं, परिवहन नहीं, साबुन नहीं, पानी नहीं, स्वास्थ्य सुविधा नहीं और कोई बैंक एकाउंट भी नहीं है। शेयर बाजार में मामूली गिरावट उनके पहले से ही संकटग्रस्त जीवन को और क्या बिगाड़ सकती है। ग्रामीण क्षेत्रों में अमीर किसान और कॉमर्शियल फार्मिंग कंपनियां मुआवजे की मांग कर रही हैं जबकि गरीब किसान अपनी उपज बिकने का चुपचाप इंतजार कर रहा है।
ऐसी बहुत ही अहम चीजें हैं जिन पर हमें ध्यान देना चाहिए। मंदिर, मस्जिद, बुलेट ट्रेन पर नहीं बल्कि हमारे कृषि और पशुधन क्षेत्र, स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली पर ध्यान देना समय की मांग है।
(लेखिका चरवाहा समुदाय और छोटे पशुपालकों के बीच काम करने वाले संगठन अंतरा में रिसर्चर और डायरेक्टर हैं)
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जलवायु परिवर्तन और महाराष्ट्र में बाढ़ के कारण पिछले साल राज्य के सबसे बड़े दूध उत्पादक जिलों में अनेक डेयरी फार्मों और पशुओं पर बुरा असर पड़ा
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लॉकडाउन के कारण परिवहन सुविधाएं न होने से दुग्ध किसान किसी दूर के स्थान पर जाकर दूध नहीं बेच सकते हैं और पशुचारा नहीं खरीद सकते हैं