महज कुछ महीनों में ही कोविड-19 की महामारी ने समूची दुनिया में उथल-पुथल ला दी। दुनिया भर की सरकारें इस पर काबू पाने मे जुटी हुई हैं। इस संकट में बेरोजगारी बढ़ी है और खाने-पीने और आवश्यक वस्तुओं की सप्लाई भी बाधित हुई। पूरी दुनिया पर आर्थिक मंदी के बादल मंडरा रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में लोगों का निराश होना स्वाभाविक है। फिर भी यह वक्त मानव जीवन-शैली पर चिंतन का है, ताकि आशा की नई िकरण िदखे। आम लोगों की निराशा के कई कारण हैं। पूरी दुनिया में नेताओं की बार-बार बदलती नीतियों के कारण संक्रमण दर और मौतों की संख्या बढ़ रही है। कई देशों में महामारी का प्रसार जारी है और संक्रमण की दूसरी लहर की आशंका है।
देश में लोग इस बात से चिंतित हैं कि न सिर्फ कोविड-19 के मामले बढ़ रहे हैं, बल्कि हमारे श्रमिक, प्रवासी और स्वरोजगार में लगे छोटे कारोबारी अप्रत्याशित आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं। महामारी का जोर रोजाना संक्रमित लोगों की संख्या के रूप में दिख रहा है और समाज के अधिकांश वर्गों में भुखमरी और विपन्नता भी तेजी से पैर पसार रही है। इससे निपटने के लिए प्रभावी कदम अभी भी नहीं उठाए गए हैं। श्रमिकों, गरीबों और प्रवासियों खासकर महिलाओं को इस दौर में जो झेलना पड़ा, वह बड़ी त्रासदी है। रोजी-रोटी के लिए अपना घर, जमीन और गांव छोड़ने की बाध्यता दुखदायी है। अचानक लॉकडाउन के कारण वे बेरोजगार और खत्म हो चुकी आमदनी के बीच बड़े संकट में फंस गए। उन्हें अपने परिवार के साथ घर वापस जाने के लिए सैकड़ों किलोमीटर पैदल यात्रा करनी पड़ी। उनमें से कई लोगों की रास्ते में ही दर्दनाक मौत हो गई। यह हमारे देश के इतिहास में दुखद घटना बन गई। यह हम सभी के लिए शर्म की बात है। यह राजनीति का वक्त नहीं है। सभी को मिलकर समाज के सबसे कमजोर लोगों की सुरक्षा और अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव के लिए बेहतरीन नीतियों और उपायों पर काम करना होगा ताकि जब हम महामारी से उबरें, तो अर्थव्यवस्था की वृद्घि में तेजी आ सके और सभी के लिए समृद्धि लाए।
महामारी सबसे बुरे वक्त में आई है। भारतीय अर्थव्यवस्था 2016 के बाद से लगातार सुस्ती से जूझ रही है। महामारी की शुरुआत होने से ठीक पहले, 2019-20 में जीडीपी विकास दर घटकर 4.2 फीसदी रह गई, जो पिछले 11 साल का सबसे निचला स्तर था। कच्चे तेल की कीमत ऐतिहासिक रूप से निचले स्तर पर आ गई। दिसंबर 2019 तक आर्थिक स्थिति का संकेत देने वाला नॉन फूड क्रेडिट गिरकर सात फीसदी रह गया जो 50 साल का सबसे निचला स्तर था। महामारी के बाद आर्थिक मोर्चे पर हालत और खराब हो गई। इस साल मार्च में रिकॉर्ड 16 अरब डॉलर की विदेशी पूंजी निवेशकों ने निकाल ली। लॉकडाउन के बाद अप्रैल में बेरोजगारी दर बढ़कर 23.8 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई। भारतीय निर्यात 60 फीसदी गिर गया, जो दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ज्यादा गिरावट थी। इस साल ग्रोथ रेट देश की आजादी के बाद सबसे निचले स्तर पर गिर सकती है, जो 1979-80 की रिकॉर्ड गिरावट से भी बुरी हो सकती है। हमारे इस लेख का मकसद यह है कि संकट का समय हमदर्दी जाहिर करने के लिए होता है। महात्मा गांधी के शब्दों में, ‘आपको सबसे गरीब व्यक्ति को याद करके खुद से सवाल करने का वक्त है कि क्या आपका कदम उस व्यक्ति को किसी तरह सहायता दे पाएगा।’ यह एक सिद्धांत है जिसने जॉन रॉल्स के कार्य के जरिए आधुनिक दर्शन को गढ़ा है। साफ है कि हमने महामारी फैलने के बाद खुद को और अपने दोस्तों को सुरक्षित रखने के लिए प्रयास किए लेकिन श्रमिकों को उनके हाल पर ही छोड़ दिया, इस तरह हमने गांधी जी के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी।
आर्थिक और राजनैतिक नीतियां ऐसेे धर्मनिरपेक्ष और समग्र समाज के विकास में मददगार होनी चाहिए और जिन्हें सभी धर्मों, जाति, वर्ग और लिंग के लोग पसंद करें और खुद को अपने घर में सुरक्षित महसूस कर सकें। अगर बाल्यकाल में हमारा पालन-पोषण अच्छे संस्कारों के साथ नहीं होता, तो आज हम यहां नहीं होते। लेकिन हम यह संस्कार भूल जाते हैं और दूसरों के साथ शोषणकारी मानसिकता अपना लेते हैं, खुद की संपन्नता के लिए दूसरे को विपन्न बना देते हैं, समाज की संपन्नता की कीमत पर हम अपने आर्थिक फायदे उठाने लगते हैं। ऐसे व्यवहार से संकट तीन गुना हो गया है जो भारत की मौजूदा दुर्दशा के रूप में दिखाई दे रहा है। संपन्नता बढ़ने के बावजूद गरीबी और बेरोजगारी बढ़ रही है। असहनशीलता, हिंसा और पर्यावरण विध्वंस बढ़ रहा है।
हमारी संस्कृति और बौद्धिकता ऐसी है, जिससे हम भावी पीढ़ियों के पालन-पोषण और उनके बेहतर जीवन के लिए उचित माहौल बनाने का प्रयास कर सकते हैं। हमें ऐसा समाज बनाने का प्रयास करना चाहिए, जिसमें ज्ञान, विज्ञान-टेक्नोलॉजी और संस्कृति का सम्मान हो, हम अपनी क्षमता के अनुसार अधिकतम काम कर सकें और यह सभी के लिए लागू हो। हमारी आकांक्षा भारत को सबसे धनी राष्ट्र बनाने की नहीं है, भारत समतावादी समाज का उदाहरण बने, जहां कोई भी बिना आय और काम के न रहे, कोई भी अल्पसंख्यक होने के कारण असुरक्षित महसूस न करे। उम्मीद है कि महामारी के कष्ट और दर्द से उबरकर हम बेहतर दुनिया में कदम रखेंगे।
(कौशिक बसु कॉर्नेल यूनीवर्सिटी में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं और इला भट्ट सेल्फ-इम्प्लॉयड वूमन्स एसोसिएशन(सेवा) की संस्थापक और गांधीवादी हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं)
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जहां महामारी का जोर बढ़ते संक्रमण के मामलों के रूप में दिख रहा है, और समाज के अधिकांश वर्गों में भुखमरी और विपन्नता भी तेजी से पैर पसार रही है