पिछले साल सरकार ने दो बजट पेश किए थे। एक, अंतरिम बजट, जिसे तब वित्त मंत्रालय का कामकाज देख रहे पीयूष गोयल ने पेश किया था और दूसरा, जुलाई में मौजूदा वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पूर्ण बजट पेश किया था। दोनों ने नई परंपरा शुरू करने के साथ बड़े-बड़े दावे किए थे। लेकिन जो बात बजट के पहले बिगड़नी शुरू हुई थी, वह बिगड़ती ही चली गई। गोयल ने तमाम बड़ी घोषणाएं की थीं, क्योंकि लोकसभा चुनाव में लोगों को रिझाना था। सीतारमण ने विदेशी परंपरा की निशानी सूटकेस को त्यागकर लाल कपड़े में लिपटा ‘बही खाता’ पेश किया। टीवी चैनलों में तो मुद्दे के बजाय लाल कपड़े के बुनने के स्रोत और बही खाते के देसी नाम पर ही लंबी चर्चाएं हो गईं। वित्तीय और बजटीय प्रावधानों के जानकार यह देखकर हैरान थे कि बजट में आय और व्यय के साथ विभिन्न मदों के लिए आवंटित और पिछले साल के बजट प्रावधानों के बाद संशोधित अनुमान क्या रहे, इसका विस्तार से कोई जिक्र वित्त मंत्री के भाषण में था ही नहीं। कुछ लोगों ने तो यह तक कहा कि संविधान के मुताबिक संसद में पिछले साल के वित्तीय प्रावधानों के नतीजे और अगले साल के प्रावधानों को विस्तार से रखने के स्टेटमेंट ऑफ अकाउंट की ही तिलांजलि दे दी गई। लेकिन असली धमाकेदार तो वित्त मंत्री का देश की अर्थव्यवस्था को 2024 तक पचास खरब डॉलर की बनाने का ऐलान था। प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े ओहदेदारों ने इस ‘चमत्कारिक बजट’ के लिए वित्त मंत्री को शाबाशी दी। वैसे भी, शिक्षा के मद में जीडीपी के मुकाबले सबसे कम बजटीय प्रावधानों की जमात में खड़े रहकर जब हम विश्व गुरु बनने का हांका लगा सकते हैं, तो दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था का ख्वाब भी पाल ही सकते हैं!
हालांकि आर्थिक मोर्चे पर बात जब बिगड़नी शुरू हुई, तो सच्चाई से नजरें चुराने की कोशिशें नाकाम होती गईं। बजट में आठ फीसदी विकास दर के अनुमान के बाद अब सरकार ने आधिकारिक रूप से मान लिया है कि चालू साल में जीडीपी की वृद्धि दर पांच फीसदी रहेगी। यह भी केवल छह माह के आंकड़ों के आधार पर अग्रिम अनुमान है। उधर, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने भारत की विकास दर 4.8 फीसदी रहने का ही अनुमान जताया है। उसने 2020 में वैश्विक विकास दर का अनुमान घटाकर 3.3 फीसदी करने के पीछे भारत की कमजोर विकास दर को एक कारक माना है। बजट के सारे अनुमान ध्वस्त हो गए हैं। इसमें राजस्व संग्रह से लेकर राजकोषीय घाटे का लक्ष्य, महंगाई दर का अनुमान, विभिन्न क्षेत्रों से मिलने वाला गैर-कर राजस्व, निर्यात और कृषि से लेकर मैन्युफैक्चरिंग और बेरोजगारी से लेकर कर्ज का उठान और कमजोर होती निवेश और बचत दर सबकुछ शामिल है। नया बजट पेश होने के पहले कई बरसों में पहली बार वित्त मंत्री को कई बड़ी घोषणाएं करनी पड़ीं। हालांकि, अब भी सरकार कह रही है कि अर्थव्यवस्था के आधारभूत संकेतक मजबूत हैं, लेकिन यह भी स्वीकार कर रही है कि कमजोर अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है। वैसे, जो मजबूत है तो वह कमजोर क्यों है, इसका जवाब तलाशना मुश्किल है।
ऐसे में नाकामी की लंबी होती फेहरिस्त को रोकने के लिए वित्त मंत्री और खुद प्रधानमंत्री को, जो बजट से कुछ समय पहले अर्थव्यवस्था की कमान संभालते दिखे, लोगों को भरोसा देना होगा कि आने वाले दिन वाकई अच्छे होंगे। हालांकि विकल्प काफी सीमित हैं। अब देखना है कि एक फरवरी को पेश होने वाला बजट भरोसा बढ़ाता है या पिछले साल के बजट की तरह हवाई किले बनाने की आंकड़ों की कलाबाजी ही साबित होता है। लेकिन देश और जनहित में तो यही होगा कि वित्त मंत्री पारदर्शिता बरतते हुए देश के सामने अर्थव्यवस्था की वास्तविक तसवीर रखें और उसे पटरी पर लाने का ईमानदार प्रयास इस बजट में करें।
वास्तविकता को स्वीकार करना और ईमानदार पहल ही भरोसा बहाल कर सकती है। वैसे भी इस समय सरकार के तमाम गैर-जरूरी फैसलों से अजीब-सी अनिश्चितता का माहौल बना हुआ है, जिससे सरकार की प्राथमिकताओं पर सवाल खड़े होते हैं। समूचे देश में सीएए और एनआरसी को लेकर विरोध-प्रदर्शन जारी हैं और असहमति जाहिर करने के मौलिक अधिकारों पर तरह-तरह के अंकुश और पुलिसिया कार्रवाई भी सुर्खियों में है।
ऐसे में, गणतंत्र दिवस यह मौका मुहैया करा रहा है कि हमारे गणतंत्र के 70 साल बाद संविधान में प्रदत्त लोगों के बुनियादी अधिकारों के हाल पर ठहर कर सोचा जाए। इसी के मद्देनजर इस विशेषांक में संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा, शिक्षाविद अनिल सद्गोपाल, जनअधिकारों के क्षेत्र में सक्रिय अरुणा रॉय, गांधीवादी कुमार प्रशांत, वरिष्ठ टिप्पणीकार कुलदीप कुमार, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध वकील कपिल सिब्बल समेत तमाम विशेषज्ञों की विस्तृत राय पाठकों को जागरूक कर सकती है। जरूरी है कि देश में स्थिति सामान्य करने की दिशा में कदम बढ़ें।
@harvirpanwar