संसद का बीता मानसून सत्र विधेयकों की बारिश के लिए याद किया जाएगा। बीस साल के सबसे छोटे, सिर्फ दस दिनों के सत्र में लोकसभा और राज्यसभा में 25 विधेयक पारित किए गए। इनमें कृषि संबंधी तीन विधेयकों की चर्चा तो बहुत है, लेकिन तीन श्रम संहिता (कोड) विधेयकों का जिक्र कम हो रहा है। तय तारीख से आठ दिन पूर्व, सत्र खत्म करने से पहले सरकार ने 23 सितंबर को राज्यसभा में ये विधेयक पेश किए। विपक्ष के बायकॉट के कारण ये बिना किसी वाद-विवाद या बहस-विरोध के पारित हो गए। लोकसभा में इन्हें 19 सितंबर को पेश और 22 सितंबर को पारित किया गया था। अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की अनुषंगी संस्था भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) समेत तमाम श्रमिक संगठन इनके अनेक प्रावधानों का विरोध कर रहे हैं।
सबसे अधिक विरोध दो प्रावधानों का है- औद्योगिक इकाइयों को छंटनी की छूट और हड़ताल की शर्तें। नए नियम के मुताबिक 300 से अधिक कर्मचारी वाली इकाइयों को ही छंटनी के लिए राज्य सरकार की अनुमति लेनी पड़ेगी, पहले यह सीमा 100 कर्मचारियों की थी। इससे संगठित क्षेत्र की 74 फीसदी और 99 फीसदी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों को जब चाहे छंटनी की आजादी मिल गई है। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने आउटलुक से कहा, “यह एक तरह से धमकी है कि संगठित क्षेत्र के कर्मचारी कोई आवाज न उठाएं। अगर किसी इकाई में कर्मचारी नेता आवाज उठाएंगे तो उन्हें तत्काल निकाल दिया जाएगा।” इसी तरह, हड़ताल के लिए जो शर्तें रखी गई हैं, उससे हड़ताल करना लगभग नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए सेंटर ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) ने कहा है कि यह श्रमिकों को उन्नीसवीं सदी की गुलामी जैसी परिस्थितियों में ढकेलने जैसा है।
संसद में विधेयक पारित होने के बाद नवंबर के पहले हफ्ते तक नियमों का ड्राफ्ट जारी होगा। उस पर फीडबैक लेने के बाद उन्हें अंतिम रूप दिया जाएगा। श्रम मंत्री संतोष कुमार गंगवार के अनुसार चारों संहिताओं की अधिसूचना एक साथ दिसंबर में जारी की जा सकती है। अब श्रमिक संगठनों की चिंता इन्हीं नियमों को लेकर है। बीएमएस महासचिव वृजेश उपाध्याय के अनुसार, “नियमों को पूरी तरह ब्यूरोक्रेसी पर छोड़ देना चिंता का विषय है। बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि नियम कैसे बनाए जाते हैं।”
सरकार ने 2014 में सभी श्रम कानूनों को मिलाकर चार संहिताएं बनाने का काम शुरू किया था। कुल 44 श्रम कानूनों में से 12 निरस्त किए गए और बाकी को इन संहिताओं में शामिल किया गया है। वेतन संहिता विधेयक अगस्त 2019 में संसद में पारित हुआ था। बाकी तीन- व्यावसायिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य संहिता विधेयक, औद्योगिक संबंध संहिता विधेयक और श्रम कानून तथा सामाजिक सुरक्षा संहिता विधेयक अब पारित हुए हैं। पिछले साल संसद में रखे जाने के बाद इन्हें स्थायी समिति के पास भेजा गया था। श्रम मंत्री के मुताबिक समिति की 233 में से 74 फीसदी सिफारिशें मान ली गई हैं।
व्यावसायिक सुरक्षा संहिता में श्रमिकों की सुरक्षा, स्वास्थ्य और कामकाजी परिस्थितियों से जुड़े विषय हैं। लेकिन सर्वाधिक लोगों को रोजगार देने वाला कृषि क्षेत्र इसके दायरे से बाहर है। असंगठित क्षेत्र और डिजिटल प्लेटफॉर्म तथा ई-कॉमर्स जैसे नए सेक्टर पर भी यह संहिता लागू नहीं होगी। इस तरह देश के 90 फीसदी से अधिक श्रमिक संहिता के दायरे में नहीं होंगे। देश में हर साल कार्यस्थल पर 40,000 से अधिक मौतें होने के बावजूद कार्यस्थल पर सुरक्षा का कोई न्यूनतम मानक तय नहीं किया गया है।
औद्योगिक संबंध संहिता में कर्मचारी संगठन, रोजगार की शर्तों और विवादों को रखा गया है। इसके प्रावधान ऐसे हैं कि करोड़ों असंगठित कर्मचारी उद्योगों से अपने अधिकारों की मांग कर ही नहीं सकते। सामाजिक सुरक्षा का दायरा बढ़ाने की सिफारिशों को सामाजिक सुरक्षा संहिता में शामिल नहीं किया गया है। विभिन्न नियमों के तहत पहले कर्मचारियों की जो न्यूनतम सीमा थी, उन्हें बरकरार रखा गया है। जैसे ईपीएफओ के नियम 20 से अधिक कर्मचारी वाले संस्थानों पर ही अनिवार्य रूप से लागू होंगे। परिभाषाएं अस्पष्ट हैं और नियम तोड़ने वाले नियोक्ता के लिए सजा के सख्त प्रावधानों का भी अभाव है।
येचुरी के मुताबिक कर्मचारी संगठनों ने सौ साल से अधिक की लड़ाई में जो अधिकार हासिल किए थे, उन सबको एक तरह से खत्म कर दिया गया है। इन अधिकारों को तो ब्रिटिश शासन ने भी माना था। वे कहते हैं, “अब निजी पूंजी को मुनाफा बढ़ाने की खुली छूट होगी, उन पर कोई अंकुश नहीं होगा।”
विवाद के बिंदु
बिना अनुमति छंटनी के लिए कर्मचारियों की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 करने पर उपाध्याय कहते हैं, “इसका कोई सकारात्मक असर नहीं होगा। श्रम सघन इकाइयां वैसे ही बहुत कम हैं, सीमा बढ़ाने से ज्यादातर इकाइयां नियम के दायरे से बाहर हो जाएंगी।” इससे सहमति जताते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर लेबर के पूर्व चेयरपर्सन और इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि संगठित क्षेत्र बहुत ही छोटा है। ज्यादातर इकाइयां अपंजीकृत और एमएसएमई सेक्टर में हैं। होता यह है कि कंपनी में नियमित कर्मचारियों की संख्या जब इस सीमा तक पहुंचने लगती है, तो कंपनी उन्हें कॉन्ट्रैक्ट पर रख लेती है। 270 दिन पूरे होने से पहले उनकी नौकरी खत्म कर उन्हें दोबारा कॉन्ट्रैक्ट पर रखा जाता है।
वर्किंग पीपुल्स चार्टर के चंदन कुमार के अनुसार, “रॉयल कमीशन ऑन लेबर ने आठ दशक पहले कहा था कि ठेका श्रमिक की व्यवस्था कर्मचारियों का शोषण करने वाली है। ब्रिटिश सरकार ने जिन नियमों का विरोध किया था, मौजूदा सरकार ने उन नियमों को बरकरार रखा है।”
श्रम मंत्री ने संसद में कहा था कि ज्यादातर संस्थान 100 से अधिक श्रमिक नहीं रखना चाहते, जिससे अनौपचारिक रोजगार को बढ़ावा मिलता है। अब कंपनियां बड़े प्लांट लगाने में रुचि लेंगी जिससे रोजगार सृजन होगा। श्रम मंत्री के अनुसार 16 राज्य पहले ही यह सीमा बढ़ा चुके हैं। संसद की स्थायी समिति ने भी अनुशंसा की थी कि इस सीमा को बढ़ा कर 300 किया जाए। हालांकि येचुरी के अनुसार तथ्य कुछ और है। “संसदीय समिति के सामने प्रस्ताव आया था, पर समिति ने उसे माना नहीं। समिति की रिपोर्ट में असहमति की कई टिप्पणियां थीं। हर संसदीय समिति की रिपोर्ट संसद में पेश होने के बाद सरकार उस पर एक्शन टेकेन रिपोर्ट पेश करती है। वह प्रक्रिया हुई ही नहीं।”
औद्योगिक संबंध संहिता में हड़ताल के लिए कई शर्तें रखी गई हैं। हड़ताल या लॉकआउट से पहले 14 दिनों का नोटिस देना पड़ेगा। समझौते की प्रक्रिया खत्म होने तक श्रमिक हड़ताल नहीं कर सकते। श्रम मंत्री के अनुसार 14 दिन के नोटिस की बाध्यता इसलिए लागू की गई है ताकि आपसी बातचीत से विवाद खत्म हो सके। लेकिन येचुरी कहते हैं, “14 दिन का नोटिस देने के बाद लेबर कमिश्नर समझौते के लिए बुलाएगा। अगर लेबर कमिश्नर समझौते की प्रक्रिया को लगातार टाले तो हड़ताल संभव ही नहीं होगी। तब हड़ताल अवैध होगी और कर्मचारी को गिरफ्तार भी किया जा सकता है।”
उपाध्याय भी श्रम मंत्री से सहमत नहीं। वे कहते हैं कि कई बार तो हड़ताल अचानक हो जाती है। पहले नोटिस देने का नियम अभी तक बिजली-पानी जैसी सार्वजनिक और आवश्यक सेवाओं पर ही लागू होता था, लेकिन अब इसे सभी प्रतिष्ठानों पर लागू कर दिया गया है। वे सवाल करते हैं, “हड़ताल रोकने के लिए तो सभी कर्मचारियों को इस श्रेणी में ला दिया गया, लेकिन बाकी सुविधाओं के मामलों में ऐसा क्यों नहीं किया गया?”
चंदन कहते हैं, “शहीद भगत सिंह ने जब ब्रिटिश पार्लियामेंट में बम फेंका तब वे दो कानूनों का विरोध कर रहे थे- ट्रेड डिस्प्यूट बिल और पब्लिक सेफ्टी बिल। 1921 के ट्रेड डिस्प्यूट बिल के ड्राफ्ट में भी कहा गया था कि हड़ताल से पहले मैनेजमेंट और सरकारी अधिकारी की अनुमति लेनी पड़ेगी। सौ साल पहले जिन नियमों का विरोध भगत सिंह कर रहे थे, वही नियम आज फिर लागू किए जा रहे हैं।”
फिक्स्ड टर्म यानी अस्थायी कर्मचारियों के मामले में औद्योगिक संबंध संहिता में इस बात का जिक्र नहीं है कि किस तरह के कार्यों के लिए अस्थायी कर्मचारी रखे जा सकेंगे। यानी कंपनियां स्थायी प्रकृति के कार्यों के लिए भी अस्थायी कर्मचारी रख सकेंगी। कांट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 में प्रावधान था कि जो काम नियमित कर्मचारी करते हैं, सरकार उनके लिए अस्थायी कर्मचारी रखने पर पाबंदी लगा सकती है। स्थायी समिति ने भी कहा था कि अस्थायी कर्मचारियों के कार्यक्षेत्र के साथ इनकी अधिकतम और न्यूनतम कार्य अवधि भी तय होनी चाहिए।
चंदन के अनुसार, “यह संभव है कि कंपनी कोई नया उत्पाद बनाए और कुछ महीने बाद पता चले कि उस उत्पाद की मांग नहीं है। वैसी परिस्थितियों के लिए अस्थायी कर्मचारियों को रखना जायज है, लेकिन जहां काम की प्रकृति नियमित है, उत्पादन नियमित हो रहा है, वहां अस्थायी कर्मचारी रखने का कोई तुक नहीं बनता है।”
औद्योगिक संबंध संहिता में सरकार को अधिकार दिया गया है कि वह किसी एक या खास वर्ग के प्रतिष्ठानों को ‘जनहित’ में किसी एक या सभी प्रावधानों से छूट दे सकती है। व्यावसायिक सुरक्षा संहिता में भी राज्य सरकारों को नई फैक्ट्री को छूट देने का अधिकार है। इस तरह केंद्र और राज्य सरकारों को बेहिसाब अधिकार मिलने से ‘जनहित’ की मनमानी व्याख्या संभव है। इस आधार पर वह किसी भी प्रतिष्ठान को काम के घंटे, सुरक्षा मानक, छंटनी जैसे मामलों में छूट दे सकती है। इसलिए चंदन कहते हैं कि अब राज्यों में नई प्रतिस्पर्धा होगी। वे उद्योगों को अपने यहां बुलाएंगे और जनहित के नाम पर तमाम कानूनों से छूट देने का ऑफर रखेंगे।
व्यावसायिक सुरक्षा संहिता में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके तहत आने वाले विषयों पर सिविल कोर्ट में सुनवाई नहीं हो सकेगी। अभी तक जिला स्तर पर लेबर कोर्ट का प्रावधान था। नई संहिता में राज्य स्तर पर ट्रिब्यूनल की बात कही गई है। मेहरोत्रा के अनुसार, “इस संहिता की सबसे बड़ी खामी यह है कि यह कृषि क्षेत्र, अधिकतर एमएसएमई और प्रवासी मजदूरों पर लागू ही नहीं होगी। संगठित क्षेत्र में यह जिस तरह से चल रहा था, वैसे ही आगे भी चलता रहेगा। इसलिए हमें किसी क्रांतिकारी बदलाव की उम्मीद नहीं करनी चाहिए।”
सामाजिक सुरक्षा संहिता में कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआइसी) और कर्मचारी भविष्य निधि (ईपीएफओ) का दायरा बढ़ाया गया है। ईएसआइसी की कवरेज देश के सभी 740 जिलों में होगी। ईएसआइसी का विकल्प बागान और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, गिग (जहां नियोक्ता-कर्मचारी का औपचारिक संबंध नहीं होता) और प्लेटफॉर्म (जैसे स्विगी) कर्मचारियों और 10 से कम श्रमिक वाली इकाइयों के लिए भी होगा। इसी तरह, 20 से कम श्रमिक वाली इकाइयों और स्वरोजगार वालों के लिए भी ईपीएफओ का विकल्प दिया गया है। लेकिन मेहरोत्रा के अनुसार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह देखा गया है कि ऐच्छिक योजनाएं सफल नहीं होती हैं।
असंगठित क्षेत्र के लिए प्रावधानों पर उपाध्याय कहते हैं, “समस्या अमल की है। यह समस्या भविष्य में भी बनी रहेगी।” मेहरोत्रा इसकी वजह बताते हैं, “लेबर इंस्पेक्टर के कुल स्वीकृत पद सिर्फ 6,000 हैं और इनमें भी आधे खाली हैं। 3,000 इंस्पेक्टर तो संगठित क्षेत्र पर ही मुश्किल से नजर रख पाएंगे।” मेहरोत्रा के अनुसार प्रतिदिन 275 रुपये न्यूनतम वेतन की सिफारिश के बावजूद आधे लोगों को न्यूनतम वेतन मिलता ही नहीं है।
ग्रेच्युटी के लिए स्थायी समिति ने पांच साल की सीमा घटाकर एक साल करने और यह सुविधा हर तरह के कर्मचारियों को देने की सिफारिश की थी। नई संहिता में सिर्फ वर्किंग जर्नलिस्ट के लिए ग्रेच्युटी की समय सीमा पांच साल से घटाकर तीन साल की गई है। फिक्स्ड टर्म वाले कर्मचारियों को प्रो-राटा आधार पर ग्रेच्युटी का प्रावधान है, यानी वे जितने दिन काम करेंगे उतने दिन की ग्रेच्युटी मिलेगी।
विश्व बैंक की ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ रैंकिंग में भारत अभी 63वें स्थान पर है। सरकार का मानना है कि इन श्रम संहिताओं के बाद भारत शीर्ष 10 देशों में आ जाएगा। मेहरोत्रा के अनुसार नियम-कायदे आसान बनाना अच्छी बात है, लेकिन जब दशकों बाद एक काम हो रहा है, तो उसमें दूरदर्शिता भी होनी चाहिए थी। अभी भले ही भारत में युवाओं की संख्या अधिक हो, लेकिन 2036 में देश में 60 साल से अधिक उम्र के लोगों की संख्या 15 फीसदी होगी जो अभी आठ फीसदी है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को 15 साल बाद क्या सामाजिक सुरक्षा मिलेगी, श्रम संहिताओं में यह विजन नहीं दिख रहा है।
श्रम संहिताओं की प्रमुख बातें
हर श्रमिक को नियुक्ति पत्र का कानूनी अधिकार। निश्चित आयु से ऊपर के श्रमिकों के लिए हर साल स्वास्थ्य जांच का प्रावधान।
अभी तक साल में कम से कम 240 दिन काम करने के बाद ही हर 20 दिन पर एक दिन की छुट्टी पाने का अधिकार था। अब यह सीमा 180 दिन कर दी गई है।
कार्यस्थल पर चोट लगने या मृत्यु होने पर नियोक्ता पर लगाए गए जुर्माने का 50 फीसदी पीड़ित को देने का प्रावधान, अन्य लाभ अलग।
कार्यस्थल जाते या लौटते समय दुर्घटना होने पर भी कर्मचारी मुआवजे का हकदार होगा। अभी तक कार्यस्थल पर दुर्घटना होने पर ही मुआवजा मिलता था।
महिलाएं किसी भी संस्थान में स्वेच्छानुसार रात में काम कर सकेंगी। नियोक्ता को इसके लिए आवश्यक सुरक्षा प्रबंध करने पड़ेंगे।
प्रवासी मजदूर
अपने गृह राज्य से दूसरे किसी भी राज्य में जाकर काम करने वाले मजदूर, जिनका वेतन 18 हजार रुपये से कम है, प्रवासी मजदूर कहलाएंगे। साल में एक बार अपने मूल स्थान जाने के लिए नियोक्ता को मजदूरों को यात्रा-भत्ता देना होगा।
मानसून सत्र में मूसलाधार विधेयकों में कुछ खास
विदेशी सहयोग (नियमन) संशोधन विधेयक 2020
एनजीओ पर सख्ती के लिए कई प्रावधान। किसी व्यक्ति को विदेशी फंडिंग पर रोक, प्रशासनिक खर्चों के लिए विदेशी सहयोग की सीमा 50 से घटाकर 20 फीसदी, एफसीआरए सर्टिफिकेट हर छह महीने में रिन्यू करने का प्रावधान।
बैंकिंग विनियमन (संशोधन) विधेयक 2020
कोऑपरेटिव बैंकों पर रिजर्व बैंक का रेगुलेशन बढ़ाने का प्रस्ताव। आरबीआइ को इनके मैनेजमेंट, पूंजी और ऑडिट जांचने का अधिकार, ताकि जमाकर्ताओं के हित सुरक्षित रहें।
कराधान और अन्य विधियां (कतिपय उपबंधों में छूट) विधेयक 2020
प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर और बेनामी संपत्ति के लेन-देन से जुड़े नियमों में कई तरह की छूट का प्रावधान। पीएम केयर्स फंड में योगदान पर टैक्स में छूट।
कंपनी (संशोधन) विधेयक 2020
कई मामलों में जुर्माने और कैद की सजा से छूट और कई तरह के अपराधों में जुर्माने में कमी का प्रावधान। दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (दूसरा संशोधन) विधेयक 2020
कोविड-19 महामारी से प्रभावित कंपनियों के खिलाफ दिवालिया कार्रवाई पर 25 मार्च 2020 से एक साल के लिए रोक का प्रावधान।
राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय विधेयक 2020
राष्ट्रीय रक्षा विश्वविद्यालय की स्थापना होगी और वह राष्ट्रीय महत्व का संस्थान होगा। मकसद पुलिस व्यवस्था और आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए प्रशिक्षित लोगों का पूल तैयार करना।
राष्ट्रीय भारतीय आयुर्विज्ञान प्रणाली आयोग विधेयक 2020
भारतीय चिकित्सा केंद्रीय परिषद अधिनियम, 1970 को निरस्त करने और नई चिकित्सा शिक्षा प्रणाली का प्रस्ताव।
राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग विधेयक 2020
होम्योपैथी केंद्रीय परिषद अधिनियम, 1973 को निरस्त करने और नई होम्योपैथी शिक्षा प्रणाली का प्रस्ताव।
ज्यादातर संस्थान 100 से अधिक श्रमिक नहीं रखना चाहते, जिससे अनौपचारिक रोजगार को बढ़ावा मिलता है। अब कंपनियां बड़े प्लांट लगाने में रुचि लेंगी
- संतोष गंगवार, केंद्रीय श्रम मंत्री
कर्मचारी संगठनों ने सौ साल से भी ज्यादा लंबी लड़ाई से जो अधिकार हासिल किए, उन्हें खत्म कर दिया गया है-
सीताराम येचुरी, माकपा महासचिव